राहुल ने उठाया था ओबीसी के हुनर की उपेक्षा का सवाल जिसे मीडिया ‘शिकंजी’ बनाकर पी गया!



 

ओबीसी सम्मेलन में राहुल गांधी का कोकाकोला के संस्थापक को ‘शिकंजी बेचने वाला’ कहना सोशल मीडिया में मज़ाक का विषय बन गया है। यहाँ तक कि कथित मुख्यधारा मीडिया में भी इसे ग़लत साबित करने के लिए कोकाकोला के इतिहास को खंगाला जा रहा है। लेकिन इस खोजबीन में एक बात छिपाई जा रही है, और वह है कि कोका कोला कैसे पूंजीवादी वर्चस्व के प्रतीक के रूप में दुनिया भर में स्थापित हुआ।

इस ट्रोलाक्रमण के पीछे दो चीजें छिप गई हैं- भाषा और इतिहास।

पहले बात करते हैं भाषा की। राहुल गाँधी सोमवार को ओबीसी सम्मेलन में यही बताने की कोशिश कर रहे थे कि कैसे तमाम श्रमिक जातियों के हुनर का सम्मान भारत में नहीं किया गया। (यह संयोग नहीं कि श्रमिकों, दस्तकारों, शिल्पकारों या किसी भी विधा के कलाकारों, यहाँ तक कि अभिनेताओं को भी वर्णव्यवस्था में शूद्र का दर्जा प्राप्त है। भवनशिल्पकार, बढ़ई, कुम्हार, लोहार जैसी सभ्यता को गढ़ने वाली जातियाँ शूद्र कहलाईं। अनुसूचित जाति, जनजाति और ओबीसी एक सरकारी किस्म का विभाजन ही है, जो आज़ादी के बाद अस्तित्व में आया।)  राहुल के मुताबिक पश्चिम में ऐसा नहीं हुआ और शिकंजी बेचने वाला कोकाकोला का मालिक बना और तमाम मेकेनिक बड़ी-बड़ी आटोमोबाइल कंपनियों के।

इसी के बाद हँसी ठट्ठा शुरू हुआ। किसी को ‘अभिधा’ और ‘व्यंजना’ का फ़र्क समझ नहीं आया। देखा जाए तो शिकंजी भी शरबत है और कोकाकोला भी। यही नहीं, शुरुआत में कोकाकोला गिलास में भर कर वैसे ही पिलाया जाता था जैसे कि शरबत पिलाया जाता है। लेकिन श्रमिकों के कौशल की उपेक्षा के अपराध पर बात न हो, इसलिए बात शिकंजी पर केंद्रित कर दी गई। और यह संयोग नहीं है।

कथित मुख्यधारा के मीडिया में भी संपादक नाम की संस्था की मौत हो गई है, वरना इस मूल और महत्वपूर्ण बिंदु पर भी कोई चर्चा ज़रूर होती। बहरहाल, इतिहास में डूबते-उतराते उसने  बताया कि कोकाकोला के संस्थापक कोई शिकंजी बेचने वाला नहीं, जॉन पिम्बर्टन था जो मॉर्फिन का आदी हो चला था। उसी ने कोका के रस, कोला नट्स और कार्बोनेटेड पानी को मिलाकर एक पेय तैयार किया था। इसे कोका कोला नाम दिया गया। यही नहीं अपनी पूरी जिंदगी में वह कभी दुनिया के अमीरों की सूची में नहीं आ सक।

अब यह सब तो विकीपीडिया पर मौजूद ही है। बात तो तब होती जब मीडिया कोकाकोला संस्कृति के कुछ रेशे उधेड़ता।

गिरीश मालवीय फ़ेसबुक पर लिखते हैं–

जब राहुल गांधी ने कोका कोला शब्द का इस्तेमाल किया तो मुझे एक पुरानी पोस्ट याद आयी, कोका कोला सिर्फ एक सॉफ्ट ड्रिंक नही है, यह एक संस्कृति का प्रतीक है। शीतयुद्ध के दौरान कोकाकोला पूँजीवाद का प्रतीक बन गया। वेबस्टर का कहना है कि ये पूँजीवाद और साम्यवाद के बीच भेद करने वाली चीज़ बन गई। कोकाकोला को अमरीका के बढ़ते प्रभुत्व के प्रतीक के रूप में भी देखा जाता है

कोका कोलोनाइजेशन‘ – यह फ्रांसीसियों   द्वारा ईजाद किया शब्द है। जब 1950 मे फ़्रांसीसी जनता ने कोकाकोला का विरोध किया तो इस शब्द का प्रयोग पूंजीवाद के बढ़ते प्रभाव के संदर्भ में इस्तेमाल हुआ।

बताते हैं कि फ़्रांस मे कोका कोला के ट्रक पलट दिए गए और बोतलें तो़ड़ दी गई. विद्वान् बताते हैं कि प्रदर्शनकारी कोकाकोला को फ्रांसीसी समाज के लिए ख़तरा मानने लगे थे। लेकिन वर्ष 1989 में जब बर्लिन की दीवार गिरी, तो पूर्वी जर्मनी में रहने वाले कई लोग क्रेट भर-भर कर कोकाकोला लेकर आए और तब “कोका कोला पीना आज़ादी का प्रतीक बन गया।”

अ हिस्ट्री ऑफ़ द वर्ल्ड इन सिक्स ग्लासेज के लेखक टॉम स्टैंडेज का कहना है कि किसी भी देश में कोकाकोला की एंट्री एक शक्तिशाली प्रतीक के रूप में देखी जाती है। वो कहते हैं, “जैसे ही कोका कोला अपना माल भेजना शुरू करती है, आप कह सकते हो कि वहाँ असली बदलाव होने जा रहा है। कोककोला एक बोतल में पूँजीवाद के बेहद क़रीब है।”

उम्मीद है कि आप समझ गए होंगे कि मीडिया कोका कोला के इस इतिहास से क्यों बचता है। अब कोई यह भी याद नहीं करता कि जनता पार्टी के राज में जार्ज फर्नांडिस ने इसे देश से बाहर फेंककर वाहवाही बटोरी थी।  कोकाकोला उसके लिए विज्ञापन का ही अजस्र स्रोत नहीं हैं उस पूँजीवाद की दुंदुभी भी है जिसे वह रात दिन बजा रहा है।

वैसे,राहुल गाँधी वाक़ई ओबीसी के श्रम और कौशल की लूट को लेकर गंभीर हैं तो उन्हें श्रम की लूट के सांस्कृतक प्रतीक कोकाकोला को सिर्फ़ ‘शिकंजी’ समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। मीडिया यूँ ही इसे शिकंजी कहने का मज़ाक नहीं उड़ा रहा है।

 

.बर्बरीक