कृषि संकट का सामाजिक चरित्र समझने के लिए उसे हालिया मराठा आरक्षण के आईने में देखें


Courtesy India Today


राहुल कुमार

सत्ता का केंद्र दिल्ली जब लाखों किसानों के दर्द से रूबरू होने को तैयार था, तभी महाराष्ट्र विधानसभा में मराठों को 16 फीसदी आरक्षण देना तय किया गया। देश के अलग-अलग हिस्सों में सामान्य संवर्ग से आने वाली मजबूत जातियां मसलन गुजरात में पटेल, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा में जाट और महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण को लेकर हाल के दिनों में सड़क से लेकर संसद तक आंदोलन करती रही हैं, जबकि आजादी के समय अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों को आरक्षण के माध्यम से मजबूत बनाने और सम्मान दिलाने की पहल की गई। वहीं पिछड़ों को लेकर कालेलकर से लेकर मंडल कमीशन की रिपोर्ट वर्षों धूल फांकती रहीं लेकिन पहली बार 1990 के दशक में तब के प्रधानमंत्री विश्‍वनाथ प्रताप सिंह ने आधी-अधूरी ही सही लेकिन उनके स्वाभिमान को पहचान देने की कोश्शिश की। उसके बाद 2005 में कांग्रेस की अगुवाई वाली संप्रग सरकार में केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने इसे और विस्तार देते हुए पिछड़ों को कुछ और अधिकार दिए।

पिछले पांच साल में हालांकि सामाजिक न्याय, आरक्षण से लेकर पिछड़ों-दलितों की नौकरियों, उत्पीड़न सहित तमाम मसलों पर मौजूदा सरकार की दमनकारी नीतियों की बाढ़ आ गई है। सवाल उठता है जब दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को उसका अधिकार व सम्मान नहीं मिल पा रहा है, तब पटेल, जाट और मराठा जैसी मजबूत जातियां या समाज आरक्षण को लेकर इतने उतावले क्यों हैं? दरअसल, सामान्य संवर्ग की मजबूत जातियों की तरफ से आरक्षण की यह मांग खेती किसानी के चौपट होने से उपजी हताशा से जुड़ी हुई है।

इस देश में कृषि को सुधारे बगैर न रोजगार के बड़े अवसर मिल सकते हैं और न अर्थव्यवस्था बहुत गतिशील हो सकती है। आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा विकास की मुख्यधारा से छूटता चला जा रहा है। इसीलिए इस देश के अंदर जातिगत अस्मिता का सवाल उठता रहता है, लेकिन यह सवाल बुनियादी रूप से कृषि का सवाल है। आज भारत की इकनॉमी का बड़ा हिस्सा भले ही कृषि न हो, लेकिन आदिकाल से समाज का बड़ा हिस्सा कृषि पर निर्भर रहा है। एशियाई उत्पादन पद्धति में गांव का पूरा समूह आपस में मिलकर काम करता रहा है। हमारी आजीविका के साधन और स्रोत का केंद्रीय विषय कृषि रहा है।

देश के अलग-अलग हिस्सों में पिछड़ी जातियों के अलावा पटेल, जाट, गुर्जर, मराठा जैसी मजबूत जातियों का भी कृषि कार्य से न सिर्फ गहरा रिश्ता रहा है बल्कि ये आजीविका के लिए भी कृषि पर ही निर्भर रहे हैं। जैसे-जैसे कृषि हाशिये पर जा रहा है वैसे-वैसे इन तबकों की आर्थिक गतिविधियों में भागीदारी घट रही है। कारण स्पष्ट है, कृषि का समेकित विकास न होना। हमारे यहां विकास के इस दौर में कृषि बहुत पीछे रह गया। आजादी के बाद कुछ हिस्सों में नहरों और सिंचाई को लेकर काम हुआ, लेकिन कालांतर में कृषि सभी सरकारों के फोकस से बाहर ही रहा। हाल के सात-आठ साल तो किसानी-खेती के लिए बहुत ही कठिन रहे हैं। उपज के डेढ़ गुना दाम दिलाने के ढकोसला से आगे बढ़कर कृषि संकट का हल अब कर्ज माफी के लोक-लुभावन नारों तक जाकर खत्म होता दिख रहा है।

यह कहने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि कृषि के विकास पर कोई ज्यादा काम नहीं हुआ। हुए हैं, लेकिन उसे प्राथमिकता के क्षेत्र के तौर पर देखा जाए, ऐसा भी नहीं हुआ है। कृषि क्षेत्र प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से 52 प्रतिशत आबादी को आजीविका प्रदान करता है। साल-दर-साल कृषि की स्थिति सुधारने के लिए सरकारों का पूरा जोर फसल की उत्पादकता बढ़ाने पर रहा है। कोई आश्चर्य नहीं कि बीतते हर साल के साथ कृषि संकट कम नहीं हुआ बल्कि गहराया ही है। किसानों द्वारा आत्महत्याओं का सिलसिला खत्म ही नहीं हो रहा है। पिछले 22 वर्षों में अनुमानतः 3.30 लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली है। पैदावार का दाम नहीं मिलना सबसे बड़ी चुनौती है, ऊपर से बैंक कर्ज चुकाने की चुनौती भी भयावह है। क्या सरकारें यह दावा कर सकती हैं कि जो खरीद मूल्य तय किया गया है, वह कीमत भी किसानों को मिल जा रही है।

चुनावी सभाओं में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा राहुल गांधी पर मूंग और मसूर के बीच फर्क नहीं मालूम होने पर तंज कसा जा सकता है, लेकिन देश भर के किसानों को मूंग और मसूर का दाम नहीं मिला यह उनके भाषण का मुद्दा नहीं बनता है। मोदी सरकार अन्य सरकारों से अलग कैसे है, जबकि वह उसी निष्ठुरता से किसानों के साथ पेश आ रही है। यह भयावह है। इसे उत्पादकता से मतलब है, उत्पादन करने वाले से नहीं। यह तय है कि आजीविका के लिए कृषि कार्य पर निर्भर रहने वाले प्रमुख समाज के आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक और दूसरे मानव विकास इंडेक्स के सुधार कृषि के विकसित होने तक नहीं होंगे।

ब्हरहाल, महाराष्ट्र विधानसभा जिस तरफ बढ़ चली है दरअसल वह सामाजिक न्याय की अवधारणा के न सिर्फ पूरी तरह उलट है बल्कि वास्तविक समस्याओं की तरफ से मुंह मोड़ना भी है। फिर यह एक दूसरे बड़े सामाजिक संकट की तरफ बढ़ने की तरफ भी है। मराठा को आरक्षण का सवाल यहीं तक नहीं रूकेगा, सामाजिक न्याय की अवधारणा पर यह चोट करेगा और अंततः यह दलित, शोषित और पिछड़ों के अधिकारों पर कुठाराघात करेगा।

मजबूत जातियों की आरक्षण की मांग भयावह होते कृषि संकट का बाय प्रोडक्ट है कि वो नौकरियों की तरफ देख रहा है। रोजगार बाजार में संभावनाएं नहीं दिखने के चलते ही वह आरक्षण की तरफ प्रवृत्‍त होता है। नतीजतन यह सामाजिक संकट पूरी व्यवस्था के विफल होने का संकेत है। राजनीतिक दलों ने इसका इलाज निकालने के बजाय सत्ता में जाने को ही सिद्धि मान लिया है लेकिन राजनीतिक दल की निर्भरता जब कॉरपोरेट घरानों पर होगी तो वह कृषि संकट का इलाज कर ही नहीं सकता है। खेतिहर समाज पर आधारित राजनीतिक दल और सामाजिक न्याय की आवश्यकता समझने वाली व नेता ही इसके समाधान के लिए आगे बढ़ सकते है।

अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि आज की तारीख में जमीनी स्‍तर से उठे नेता हों या खेती किसानी की पृष्‍ठभूमि से आए क्षेत्रीय दल, कृषि को लेकर किसी के पास कोई एजेंडा नहीं है। कृषि और सामाजिक न्‍याय के आपसी संबंध पर तो खद सामाजिक न्‍यायवादी दल भी बात नहीं करते, फिर और किससे उम्‍मीद की जाए। एक उम्‍मीद उत्‍तर प्रदेश में चौधरी अजित सिंह के लोकदल के रूप में पिछले ज़माने में हुआ करती थी लेकिन सत्‍ता में बने रहने की विवशता ने उनके बुनियादी आधार को ही निगल लिया। अब वह पूरी तरह जाटों की पार्टी होकर रह गई है। ऐसे में बिहार में खेती के सवालों के साथ निचली जातियों के सामाजिक न्‍याय के सवाल को उठाने वाले उपेंद्र कुशवाहा भविष्‍य की उम्‍मीद दिखते हैं लेकिन वे या आर कितना कर पाएंगे, यह उनकी पार्टी रालोसपा की स्‍वायत्‍तता पर निर्भर करता है।

जिस तरीके से किसानों के आंदोलन का सारा रुख विशेष संसदीय सत्र बुलाने की ओर है और वे आसन्‍न संसदीय चुनावों के मद्देनजर ऐसी मांग कर रहे हैं, तो क्या हम उम्‍मीद कर सकते हैं कि 2019 का आम चुनाव कृषि संकट का जवाब खुद देगा?


लेखक बिहार के शेखपुरा में शिक्षा और सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय पूर्व पत्रकार हैं। कोई एक दशक से ज्‍यादा वक्‍त तक दिल्‍ली में रह कर इन्‍होंने महत्‍वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में पत्रकारिता की है। इकनॉमिक टाइॅम्‍स में तीन साल तक अपनी सेवाएं देने के बाद वे दो वर्ष पहले गृहराज्‍य लौट गए और वहां एक पब्लिक स्‍कूल स्‍थापित कर के वंचित समुदायों के हक में काम करने लगे।