‘सवर्ण आरक्षण’ है संविधान का चीरहरण, पर चुप रहे महारथी क्योंकि वोटतंत्र ने ‘बौना’ बना दिया !


अब ऐसे राजनेता गिनती के भी नहीं बचे जो वोटों के नुकसान की क़ीमत पर सत्य बोल सकें।




पंकज श्रीवास्तव

(कृपया ‘बौना ‘ शब्द के इस्तेमाल के लिए क्षमा करें। आशय किसी शारीरिक कमी का उपहास उड़ाना नहीं अपने क़द के अनुरूप आचरण न करने से है ! )

लगता है कि ‘वोटतंत्र’ में बदल चुके भारतीय लोकतंत्र ने हमारे राजनीतिक वर्ग को ‘बौना’ बना दिया है। अब ऐसे राजनेता गिनती के भी नहीं बचे जो वोटों के नुकसान की क़ीमत पर सत्य बोल सकें। राजनीतिक दल भी नहीं। लोकतंत्र के नाम पर दी जा रही यह क़ीमत इतनी बड़ी है कि इतिहास में दर्ज होगी और आने पीढ़ियों को शर्मिंदा करेगी।

ऐसा नहीं होता तो किंतु-परंतु करने वाली तमाम राजनीतिक पार्टियाँ संसद में खुलकर कहतीं कि आर्थिक आधार पर आरक्षण दरअसल, संविधान का चीरहरण है। वे इस 124वें संविधान संशोधन के ख़िलाफ़ वोट डालतीं, लेकिन संसद तो हस्तिनापुर के दरबार में तब्दील हो गई जहाँ तमाम वे महारथी भी चुप्पी साधे बैठे रहे जिन्हें ‘धर्म-अधर्म’ का भेद पता था। लोकसभा और राज्यसभा में जिस आनन-फानन में यह बिल पास हुआ है वह अभूतपूर्व है।

बीजेपी के ‘सवर्ण आधार’ पर आँख गड़ाए बैठी मुख्य विपक्षी दल काँग्रेस को तो छोड़िए, दलित-बहुजन राजनीति की पुरोधा पार्टियाँ भी विरोध जताने का साहस नहीं जुटा सकीं। समाजवादी पार्टी से लेकर बहुजन समाज पार्टी के सांसदों ने भी बिल के पक्ष में वोट डाला। वामपंथी सांसदों ने भी। सबको लगता है कि सच बोलने से सवर्ण नाराज़ हो जाएगा, गोया सवर्ण समाज अनिवार्य रूप से मूर्ख है। उसमें सच सुनने का साहस नहीं है या उसका गणित ज्ञान शून्य है।

सत्य सिर्फ़ अधर्म करने वालों ने बोला। केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने साफ़ कहा कि यह राजनीतिक छक्का है जो मैच जिताएगा !

यानी…?

यानी यह कि यह सब राजनीतिक लाभ के लिए किया गया है। 2019 के चुनाव को ध्यान में रखकर। यानी जो सवर्ण समाज एस.सी/एस.टी ऐक्ट से नाराज़ है, वह फिर बीजेपी के पाले में वापस आ जाएगा। गोया यह बात निर्विवाद है कि सवर्ण समाज कोई एक इकाई है, जो एक तरह ही सोचता है और वह बीजेपी के पाले से वाक़ई बाहर जा चुका है या उसी की नाराज़गी की वजह से बीजेपी को तीन राज्यों में सत्ता गँवानी पड़ी। या कि वह अनिवार्य रूप से दलितों का उत्पीड़न चाहता है और उन्हें किसी भी तरह का संवैधानिक संरक्षण देने के ख़िलाफ़ है। यह सवर्ण समाज की बेहद संवेदनहीन तस्वीर है जो राजनतिक दलों ने बना रखी है और मीडिया इसे प्रचारित करने में जुटा है।

यह अजब संयोग है कि कल महाराष्ट्र के सोलापुर में प्रधानमंत्री मोदी सार्वजनिक सभा को संबधित करते वक्त पेशवाई पगड़ी पहने हुए थे। हाथ में तलवार लेकर वह उसी पेशवाशाही की याद दिला रहे थे जिनके राज में शूद्र समाज की स्थिति जानवरों से भी बदतर थी। उन्होंने दावा किया कि उनकी सरकार ने बिना दलित-पिछड़ों और आदिवासियों के आरक्षण में कटौती किए आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को दस फ़ीसदी आरक्षण देकर ‘सबका साथ-सबका विकास’ का नारा ज़मीन पर उतारा है।

गणित का सामान्य जानकार भी मोदी जी के दावे का झूठ पकड़ लेगा। दरअसल, यह विशुद्ध पेशवाई दाँव है, बहुजन समाज को मिल रहे आरक्षण पर डाका। अब तक आरक्षित श्रेणी के तमाम अभ्यर्थी सामान्य श्रेणी में मेरिट के दम पर भी चुने जाते थे, जिनके लिए यह विधेयक रास्ता बंद कर रहा है। बिल की भाषा चाहे आर्थिक आधार पर पिछड़े की बात करती हो, लेकिन यह है सवर्णों के लिए ही। क्योंकि जिन जातियों को पहले आरक्षण का लाभ मिल रहा है, वे किसी भी तरह इस सामान्य श्रेणी में अब नहीं आ सकतीं। यानी मेरिट के दम पर सफल होने के लिए अब उनके सामने 50 नहीं चालीस फ़ीसदी सीटे रह जाएँगी। कुल सीटों की दस फ़ीसदी उसके दायरे से बाहर कर दी गई हैं।

और सवर्ण ?

आर्थिक आधार पर आरक्षण के लिए लाभार्थियों की आयसीमा आठ लाख रुपये सालाना घोषित की गई है। वैसे तो गरीबी रेखा के लिए सरकार ने 32 रुपये रोज़ की आमदनी निर्धारित की है, लेकिन आरक्षण दो हज़ार रुपये से ज़्यादा रोज़ाना कमाने वाले पा सकेंगे! यानी अब तक अनारक्षित वर्ग की 98 फ़ीसदी आबादी को यह दायरा समेट लेगा। एक तरह से पूरा भारत ही अब आरक्षित हो गया है। तो जब सबको ही इसका लाभ मिलेगा तो ‘विशेष अवसर’ का क्या अर्थ रह जाएगा जो आरक्षण का सैद्धांतिक आधार है। साफ़ है कि मोदी जी सवर्णों को वाकई मूर्ख मानते हैं जो सौ मीटर रेस को नब्बे मीटर की किए जाने पर ताली पीटने लगेगा। उसे संघर्ष तो उतना ही करना पड़ेगा।

यहाँ इस बात को छोड़ देते हैं कि सरकारी नौकरियाँ हैं कहाँ जहाँ ये आरक्षण लागू होगा। या कि दो करोड़ रोज़गार हर साल देने का दावा करने वाले मोदी जी ने अपनी विराट असफलता ढँकने के लिए यह दाँव चला है। बात संविधान की करते हैं जिसका खुलेआम चीरहरण हुआ !

संविधान ने आरक्षण के तीन आधार तय किए हैं-

।. दलित (जिन्हें शूद्र के रूप में हज़ारों साल तक अश्पृश्यता का दंश सहना पड़ा इन्हें अनुसूचित जातियों के रूप में श्रेणीबद्ध किया गया है। )

2. आदिवासी (जो जंगलों में रहते हुए अपनी हजारों साल पुरानी परंपराओं से बंधे रहे और शहरी सभ्यता के कथित विकासक्रम में मीलों पीछे छूट गए। इन्हें अनुसूचीति जनजातियों के तौर पर रखा गया है।)

3. सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग ( यह पिछड़ी जातियों का आरक्षण नहीं है। इसमें महाब्राह्मण और गुसाईं कही जाने वाली ब्राह्मण जातियाँ भी हैं। सामाजिक सर्वेक्षण के ज़रिये इसमें शामिल लोगों को हटाया जा सकता है और नए लोगों को जोड़ा भी जा सकता है। मंडल कमीशन की सिफ़ारिश मूलत: इसी वर्ग के लिए है।)

संविधान में ‘आर्थिक आरक्षण’ का कोई प्रावधान नहीं है। आरक्षण गरीबी उनमूलन कार्यक्रम है भी नहीं। सुप्रीम कोर्ट कई-कई बार आरक्षण के लिए ‘आर्थिक आधार’ को खारिज कर चुका है। इस बार भी ऐसा ही होगा क्योंकि उसे संसद में बने क़ानूनों की न्यायिक समीक्षा का अधिकार है। सरकार ने कोई ऐसा सर्वेक्षण भी नहीं कराया है जिससे साबित हो कि सवर्णों का प्रतिनिधित्व घटा है, उल्टा हर क्षेत्र में उसका प्रतिनिधित्व उसकी आबादी से कई गुना है जबकि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओबीसी के आरक्षित पद भरे ही नहीं जा सके हैं। पर सरकार को  इस सच की परवाह नहीं और विपक्षी दल आर्थिक आधार पर आरक्षण का विरोध करके ‘सवर्ण विरोधी’ होने की धारणा नहीं बनने देना चाहते। चुनाव उन्हें भी लड़ना है जिसका एकमात्र मक़सद जीत है, सत्य नहीं। सब सुप्रीमकोर्ट के सर ही ठीकरा फोड़ना चाहते हैं। (क्या ये संयोग है कि जिन तीन सांसदों ने लोकसभा में बिल के विरोध में वोट दिया वे तीनों मुस्लिम हैं, बेहद सीमीति क्षेत्रों में असर रखने वाली पार्टियों से हैं और उन्हें सवर्णों की कथित नारज़गी से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।)

बहरहाल, संसद के चुप हो जाने का मतलब सड़कों का चुप हो जाना नहीं है। लोगों को बात समझ में आने लगी है। महाराष्ट्र में ओबीसी संघर्ष समन्वय समिति ने 25 फरवरी को राज्यभर में रैली निकालने का ऐलान कर दिया है। जब 50 फीसदी आरक्षण की सीमा सरकार तोड़ रही है तो उन्हें भी कहने का मौका मिल गया है कि ओबीसी की आबादी 52 प्रतिशत है तो आरक्षण सिर्फ 27 फीसदी क्यों? इधर उत्तर प्रदेश में भी धरना प्रदर्शन शुरू हो गया है। मोदीजी ने जो चालाकी की है, वह पकड़ में आ गई है। सवर्णों को भी यह बात समझ मे आ रही है चाहे मीडिया उनके ‘ख़ुशी से उछल पड़ने’ का जितना भी दावा करे। (कल तक मीडिया आरक्षण को मेरिट पर हमला करार देता था। या ‘आरक्षण की आग’ जैसे शीर्षक लगाता था लेकिन आज आरक्षण को राहत मान रहा है। यह एक तरह से आरक्षण की समकारात्मक भूमिका और इसके विरोध के नाम पर हुए कमीनेपन का स्वीकार है।)

लोहिया ने कहा था कि जब सड़कें शांत रहीं तो संसद आवारा हो जाएगी। समय आ गया है कि ‘रोजगार को मौलिक अधिकार’ बनाने की माँग को लेकर युवा वर्ग सड़कें गर्म करे। यही वह माँग है जो आरक्षण के नाम पर उलझा देने वाले शासकवर्ग के सामने बड़ी रेखा खींच सकती है। जो दलित-पिछड़े और सवर्ण का भेद मिटा सकती है। आख़िर जीने का अधिकार सबका है तो रोज़गार भी सबको मिलना चाहिए। कॉरपोरेट पूँजी पर पल रहे और रोज़गारविहीन विकास के आर्थिक मॉडल से टाँका भिड़ा चुके भारतीय शासकवर्ग की चालाकियों का यही जवाब हो सकता है। कोई निर्णायक युवा अँगड़ाई ही राजनीतिक दलों में सच बोलने का साहस वापस ला सकती है। संसद का कायर हो जाना देश की पराजय है।

लेखक मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।