परिवारों को टूटने से बचाने वाली शरई अदालतों को लेकर मीडिया में इतना कोहराम क्यों है?



उबैद उल्लाह नासिर

भारतीय मुसलमानों की प्रतिनिधि संस्था आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा प्रत्येक जिले में “दारुल कुजा” या शरई अदालतों के गठन के एलान के साथ भारत की मीडिया विशेषकर चैनलों ने ऐसा दिखाने और समझाने का प्रयास शुरू कर दिया है जैसे मुस्लिमों की इस संस्था ने देश की न्याय व्यवस्था को नकार कर एक समानान्तर न्याय व्यवस्था अपना लेने का एलान कर दिया हो. यह चैनल हों या अन्य कथित “राष्ट्रवादी” संगठन, उनको तो जैसे बोर्ड के इस एलान के साथ ही मुंहमांगी मुराद मिल गयी हो- तुरत-फुरत मुस्लिमों पर अलगाववाद का इलज़ाम लगा के इसको देश की एकता अखंडता के लिए एक बड़ा खतरा बताने ही नहीं बल्कि आम आदमी को उस पर पूर्ण विश्वास कर लेने का पूरा जोर लगाया जा रहा है.

सबसे पहले तो यह बात समझ लेनी चाहिए कि इस प्रकार की अदालतें बल्कि इनको अदालत कहना ही गलत है, इस प्रकार की संस्थाएं समानांतर न्याय व्यवस्था नहीं हैं बल्कि मुस्लिम परिवारों में उठ खड़ी हुई घरेलू समस्याएं विशेषकर शादी तलाक़ आदि के मामलों में सुलह सफाई और बीच बचाव कराने के काम करती हैं. यह दोनों पक्षों के सामने धार्मिक स्थिति रख कर उनसे मध्यमार्ग निकालने का प्रस्ताव रखती हैं जिससे परिवार टूटने से बच जाएँ. आम तौर से संवादहीनता की स्थिति में ही परिवार टूटने की नौबत आती है. कभी पति ज़रा सी मामूली बात पर पत्नी को तलाक़ देने की धमकी दे देते हैं तो कभी पत्नी ज़रा सी कहासुनी पर न केवल अपने मायके वालों बल्कि पुलिस तक को बुला लेती है. गुस्सा उतरने के बाद दोनों पक्षों को अपनी-अपनी गलती का एहसास होता है लेकिन नाक ऊंची रखने के चक्कर में बात बिगड़ने लगती है. ये संस्थाएं इसी स्थिति में संवादहीनता खत्म कर के सुलह सफाई का रास्ता निकालती हैं.

हाँ, कभी-कभी इन्हें धर्म के अनुसार स्थिति भी साफ़ करनी पड़ती है. चूँकि इन संस्थाओं के पास कोई अधिकार तो होता नहीं है इसलिए ये केवल धार्मिक स्थिति ही साफ़ बता सकती हैं जिसे मानना या न मानना सम्बन्धित पक्ष पर निर्भर करता है. ये संस्थाएं किसी को बाध्य नहीं कर सकतीं और अगर इनके सुझाए हुए समाधान से कोई पक्ष संतुष्ट नहीं होता तो वह सामान्य अदालतों में जाने को आज़ाद होता है. कुछ लोग इन संस्थाओं की खाप पंचायतों से तुलना करते हैं जो पूर्णतया गलत है. अव्वल तो ये संस्थाएं कभी फौजदारी या क्रिमनल केसेज़ अपने हाथ में नहीं लेतीं मसलन अगर लव मेरिज, बल, बलात्कार, आदि के मामले उनके पास आये तो वे उसे अदालत ले जाने को ही कहती हैं. उन पर न अपना फैसला देती हैं और न ही राय. आज तक ऐसा कभी सुनने में नहीं आया कि किसी “दारुल कुजा” या शरई अदालत ने अपना फैसला न मानने वालों के खिलाफ कोई गैर-कानूनी क़दम उठाया हो या किसी के समाजी बहिष्कार आदि की बात की हो.

एक बैठक में तीन तलाक़ के मामले पर बोर्ड की जो किरकिरी हुई है उसके बाद बोर्ड ने इन अदालतों के द्वारा एक बैठक में तीन तलाक़ के खिलाफ देशव्यापी मुहीम चलाने का फैसला किया था, हालांकि यदि बोर्ड सुप्रीम कोर्ट में ऐसे तलाक को अमान्य मान लेता तो उसकी प्रतिष्ठा में चार चाँद लग जाते लेकिन ऐसी भयंकर भूल कर के बोर्ड ने अपनी साख पर बट्टा क्यों लगवाया यह समझ से परे है. अब बोर्ड ने मुस्लिम नौजवानों को एक बार में तीन तलाक़ के खिलाफ शिक्षित करने को जो मुहीम इन शरई अदालतों द्वारा शुरू करने का फैसला किया है उसका स्वागत करने के बजाय उसे बड़ी धूर्तता के साथ ध्रुवीकरण के लिए प्रयोग किया जा रहा है.

बोर्ड को शायद अब भी यह एहसास नहीं हुआ है की यह मोदी का भारत है, नेहरू, इंदिरा और राजीव का नहीं वरना शायद वह देश-काल और समाजी हालात का ध्यान करते हुए अपने इस फैसले को किसी और तरह प्रस्तुत कर सकता था. बोर्ड के मौलवी साहिबों ने सोचा भी न होगा कि एक सुलह सफाई केंद्र स्थापित करने के उनके फैसले को आज का भारतीय मीडिया और समाज इस तरह लेगा और देश में ध्रुवीकरण की मुहीम शुरू कर देगा. अगर विगत चार बरसों में वह बदलते भारत को नही समझ पाए हैं तो उन्हें इतनी  बड़ी और महत्वपूर्ण संस्था में बने रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है. सुप्रीम कोर्ट में एक बार में तीन तलाक के मसले पर इतनी किरकिरी के बाद बोर्ड को अपना हर क़दम बहुत फूँक-फूँक कर रखना चाहिए था. अगर वह इन केन्द्रों या संस्थाओं को “दारुल कुजा” या शरई अदालत जैसे मोटे-मोटे अरबी उर्दू नामों के बजाय “सुलह केंद्र”, “समझौता घर”, “परिवार बचाओ केंद्र” आदि रखता तो शायद इसका प्रभाव कुछ दूसरा होता. वैसे तो बात-बात पर ध्रुवीकरण की कोशिश में लगे चैनल, पत्रकार और राजनीतिज्ञ इसका भी गलत प्रयोग करते लेकिन आम आदमी को मुगालते में डालना तब इतना आसान न होता.

शर्मनाक और अफसोसनाक स्थिति यह है कि शहर-शहर और गाँव-गाँव शाखाएं लगा कर बंदूक तलवार लाठी भांजने की ट्रेनिंग देकर एक वर्ग विशेष के खिलाफ ज़हरीला प्रोपगंडा करने वालों की जहरीली हरकतें इन चैनलों, पत्रकारों और सियासी लोगों को नहीं दिखाई देतीं जबकि सुलह-सफाई करा के परिवारों को टूटने से बचाने और अदालतों पर मुक़दमों का बोझ कम करने की देश हित में की गयी यह कोशिशें इन्हें देशविरोधी दिखाई देती हैं.