70 फीसदी कॉरपोरेट और एक फीसदी किसान डिफॉल्‍टर हैं, लेकिन खुदकुशी अकेले किसान करे?



हिमांशु एस. झा

राजीव गांधी ने कहा था कि भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा उपभोक्तावाद के रूप में उतना ही है जितना सांप्रदायिकता के रूप में. भारत जैसी अर्थव्यवस्था के लिए कृषि ही एकमात्र स्वदेशी “मेक इन इंडिया” है. ऐसे में यह खबर आना कि नोटबंदी ने किसानों की रीढ़ तोड़ दी है, ठीक वैसा ही है जैसा कि आपके सजे–धजे सूटबूट पर आपका प्यारा कुत्ता किलो भर लार उड़ेल दे. अभी तीन राज्यों में चुनाव होने को हैं और ऐसे में नोटबंदी से हुए नुकसान की खबर सरकार के लिए हतोत्साहित करने वाली है. उससे भी हतोत्साहित करने वाली खबर तो यह है कि कृषि का राष्ट्र के ग्रॉस वैल्यू एडेड (योजित सकल मूल्य) में योगदान लगातार कम होता जा रहा है.

जहां 2013-14 में यह 18.6 फीसदी था वहीं 2016-17 में यह 17.4 फीसदी हो गया. कृषि निर्यात सकल घरेलू उत्पाद की तुलना में 2012-13 के 13.56 फ़ीसदी से 2015-16 में 9.90 फीसदी हो गया. ठीक इसी तरह आयात 5.71 फीसदी से 6.45 फीसदी पर पहुँच गया. यह तब है जब वास्तविक उत्पाद बढ़ा है. सिर्फ धान और गेंहूँ की बात की जाए तो दोनों के उत्पादन क्षेत्र में कमी होने के बावजूद उत्पादकता बढ़ी है. आइये इस तिलिस्म को समझते हैं.

भारत में 2011 की जनगणना के मुताबिक कुल 263,000,000 किसान या कृषि कार्य से सम्बंधित मजदूर थे जो कि कुल 31.55 फीसदी ग्रामीण हैं. 2016-17 के चौथे अग्रिम आकलन के अनुसार प्रति हेक्टेअ‍र 2550 किलोग्राम (किग्रा) चावल का उत्पादन, 3216 किग्रा गेहूँ का उत्पादन, 1784 किग्रा मोटे अनाज का उत्पादन, 779 किग्रा दलहन का उत्पादन और 2153 किग्रा खादान्न का उत्पादन हुआ. यदि प्रति किसान और कृषि कार्य से सम्बंधित मजदूर पर इनके कुल उत्पादन को देखा जाए तो यह क्रमश: 0.42 ट्न, 0.37 ट्न, 0.17 ट्न, 0.09 ट्न और 1.05 ट्न है जो अपने आप में बहुत ही निराशाजनक है. अब यदि न्यूनतम समर्थन मूल्य देखा जाए तो धान का 15900 रूपये/ट्न है, गेहूँ का 17350 रूपये/ट्न, ज्वार का 17500 रूपये/ट्न, दलहन का 55750 रूपये/ट्न और 14100 रूपये/ट्न जौ का है. इस तरह से एक किसान और कृषि कार्य से सम्बंधित मजदूर को साल में कुल औसत आमदनी 35896 रुपये सालाना ही है. यदि इनमें हम कपास, गन्ना इत्यादि फसलों को जोड़ दें तो भी यह 40,000 सालाना से ऊपर नहीं जाएगा, जो वर्ल्ड बैंक के 2 डॉलर प्रतिदिन से भी कम है.

यह आँकड़ा सिर्फ़ कमाई का है जिसमें से लागत को घटाया अथवा समयोजित नहीं गया है. सोचिये, यदि लागत, जो रासायनिक उर्वरक, पानी, श्रम इत्यादि के रूप में है उसे गणना में लाया जाए तो अन्नदाता के पास क्या बचता है? अभी बटाईदार किसानों की हमने बात ही नहीं की है. यदि इन बटाईदारो को भी जोड दें तो औसतन एक किसान के पास ठेंगा ही बचता है.

एक आंकडे के मुताबिक भारत में प्रत्येक 41 मिनट पर एक किसान आत्महत्या करता है. क्या हमारे पाठक को जानकारी है कि वर्ष 1995 से 2015 के 21 वर्षों के दौरान कुल 318,528 किसानों ने आत्महत्या की है. कृषि पर कोई ध्यान नहीं देता क्योंकि इसमें सेक्स और रोमांस नहीं है, आंदोलित करने वाली कोई नग्न काया नहीं है. शहर के कितने शरीफ हैं जो कृषि पर आधारित कोई कार्यक्रम देखना चाह्ते हैं. एक भी नहीं, दिल पर हाथ रखिए और सोचिये. हम यही सोचते हैं न कि नरक में जाय, कौन टमाटर, गोभी और आलू के बारे मे देखता है.

देश के 70 फीसदी कॉर्पोरेट (समष्टिगत) ऋण चूक कर गये हैं और सिर्फ़ 1 फीसदी किसान, किंतु आत्महत्या किसान ही करते हैं, कॉर्पोरेट नहीं. एक किसान को बकरी खरीदने के लिए 5000 रुपये का ऋण माइक्रोफायनेंस (सूक्ष्म वित्त) संस्था से 24 से 36 फीसदी वार्षिक ब्याज दर पर लेना होता है किंतु टाटा जैसी कंपनी को सानन्द मे नैनो कार के लिए 0.1 फीसदी ब्याज दर पर ऋण आसानी से उपलब्ध हो जाता है वह भी 20 साल के लिए. सोचिए सरकारी मुलाजिमों का 1970 से अभी तक 200 गुणा वेतन वृद्धि हो चुका है किंतु ‘जय किसान’ की औसतन 35000 सलाना कमाई वह भी लागत को समायोजित किये बिना. इसी का नतीजा है कि बिहार से प्रतिवर्ष लगभग 45 लाख से 50 लाख मज़दूरों का शहर की ओर पलायन होता है. यह वे मजदूर हैं जो कृषि पर निर्भर रहते हैं.

लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान, जय किसान का नारा दिया था. क्या किसानों की जय है? बिल्कुल नहीं. समय है हम किसानों के हक के लिए लडें. बहुत हुआ मंदिर मस्जिद, बहुत हुआ घोटाला. चलो साथ दें उसका, जिसके हाथों में है हल की हाला. आज अन्नदाता हैरान है, परेशान है. उसे सरकार का सहयोग चाहिए जो उसे मिल नहीं रहा. उसका शहरों की ओर पलायन बढ़ रहा है. वह दो जून की रोटी के तरस रहा है. क्या कोई है जो उसे उसका हक दिला पायेगा. आपको यह मानना ही होगा कि किसानों की अनदेखी भारत की संप्रभुता के लिए खतरा है. जब तक भारत के किसान खुशहाल नहीं होते मंदिर–मस्जिद बना लेने से क्या होगा?