अयोध्या फैसला: सुप्रीम कोर्ट ने देश को गृह युद्ध की स्थिति से तो बचा लिया……लेकिन !



भारत की राजनीति और सामाजिक ताने-बाने को घुन की तरह चाट रहे अयोध्या के बाबरी मस्जिद-राम मंदिर विवाद में भारत के सर्वोच्च  न्यायालय ने फैसला तो दे दिया, लेकिन वह न्याय नहीं कर सका है। बुद्धि और विवेक यह मानने को तैयार नहीं कि जब खुद सुप्रीम कोर्ट मान रहा है कि बाबरी मस्जिद कोई मंदिर तोड़ कर नहीं बनाई गयी, सुप्रीम कोर्ट जब यह मान रहा है कि 1949 में बाबरी मस्जिद के अंदर राम लला प्रकट नहीं हुए थे बल्कि गैर क़ानूनी तौर से वहां मूर्ती रखी गई थी, सुप्रीम कोर्ट जब यह भी मान रहा है कि 1992 में बाबरी मस्जिद को गिराना गैर क़ानूनी था तो फिर सुप्रीम कोर्ट उस स्थान पर राम मंदिर बनाने का फैसला कैसे दे सकता है?

लेकिन सुप्रीम कोर्ट इसी विवाद में अपने पहले के आदेश की धज्जियाँ उड़ाया जाना भूला नहीं है। उसे याद है कि 1992 में उत्तर प्रदेश की बीजेपी सरकार ने विवादित ढाँचे की सुरक्षा के लिए उसके पास एक दो नहीं 6-6 हलफ़नामे देने के बावजूद उसके द्वारा दिए गए स्टे आर्डर को कैसे तोड़ा था। सुप्रीम कोर्ट को यह भी याद है कि साबरीमाला के मामले में उसके आदेश के साथ संघ परिवार ने क्या सुलूक किया, उसे यह भी याद है कि अभी पिछले साल ही दीवाली पर पटाखा न फोड़ने के उसके आदेश का संघ परिवार ने उसके फाटक पर ही पटाखे फोड़ कर कैसे धज्जियां उड़ाई थीं। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट जानता था की यदि वह इन्साफ के तकाजों को पूरा करते हुए उस जगह मस्जिद बनाने का आदेश दे भी देगा तो दुनिया की कोई ताक़त वहां मस्जिद बनवा नहीं सकेगी उलटे पूरे देश में संघ परिवार ऐसी आग लगाएगा जो गृह युद्ध जैसा हो सकता है और इस में जान-माल का सब से ज़्यादा नुकसान मुसलमानों का ही होगा। इसलिए सुप्रीम कोर्ट के विद्वान् न्यायाधीशों ने अपने दिल और आत्मा पर पत्थर रख कर ऐसा फैसला दिया जो भले ही इन्साफ के तक़ाज़ों को न पूरा करता हो लेकिन जिसने देश को गृह युद्ध जैसी हालत से बचा लिया।

इस फैसले के बाद देश के मुसलमानों ने जिस परिपक्वता दूरंदेशी सद्भाव और सब्र का परिचय दिया है वह इतिहास के पन्नों में सुनहरे शब्दों में लिखा जाएगा। लेकिन कुछ लोग अपनी दूकान चमकाए रखने के लिए इस फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर करने की बात कर रहे हैं। उन्हें समझाया जाना चाहिए कि यह एक निरर्थक कोशिश होगी क्योंकि ज़ाहिर है वही बेंच खुद अपने फैसले को बदल नहीं सकेगा। उलटे संघ परिवार को मुसलमानों के खिलाफ हवा बनाने का एक और मौक़ा मिल जाएगा, उसे यह मौक़ा देना अक़्लमंदी नहीं होगी।

हाँ सुप्रीम कोर्ट से यह सफाई मांगी जा सकती है कि उसने सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को मस्जिद बनाने के लिए जो 5 एकड़ ज़मीन देने को कहा है वह पुरानी अयोध्या नगरी में होगी या नए अयोध्या ज़िले में? क्योंकि पूरे फैज़ाबाद ज़िले का नाम ही अयोध्या कर दिया गया है। वैसे 90 % मुसलमान यह ज़मीन न लेने के पक्ष में हैं क्योंकि यह एक प्रकार से बाबरी मस्जिद का सौदा हो जायेगा जो मुसलमान बिलकुल नहीं चाहते। लेकिन चूँकि सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को ज़मीन देने का है और बोर्ड एक सरकारी संस्था है जो सुप्रीम कोर्ट का आ देश मानने को बाध्य है इस लिए यह सफाई ज़रूरी है।

एक प्रकार से देखा जाए तो अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला तथाकथित मुस्लिम नेतृत्व विशेषकर आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बॉर्ड की असफलता का एक और उदाहरण है। इससे पहले एक ही बार में तीन तलाक़ के मुद्दे पर समस्त मुस्लिम बुद्धजीवी कानूनदाँ और आम मुलमान इस बात पर सहमत थे की तलाक़ का यह तरीका क़ुरआन सम्मत नहीं है। कभी यह भले ही हालत के तहत प्रचलित रहा हो लेकिन अब इसका दुरूपयोग बहुत बढ़ गया है। इसलिए इसे समाप्त करने का फतवा जारी आकर दिया जाना चाहिए। लेकिन बोर्ड इस पर 99 फीसदी तक राज़ी होने के बावजूद फतवा नहीं जारी कर सका नतीजा यह हुआ कि सरकार ने इसे मुद्दा बना दिया और सुप्रीम कोर्ट ने इसे गैर क़ानूनी घोषित कर दिया। इसी प्रकार अयोध्या विवाद में मध्यस्थता द्वारा अपनी कुछ महत्वपूर्ण शर्तें मनवा कर यदि विवादित भूमि छोड़ दी जाती तो इसका देश के सेक्युलर हिन्दुओं पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता और हर मामले में मुसलमानो के साथ खड़े होने वाले हिन्दुओं के हाथ मज़बूत होते। लेकिन मुर्गे की वही एक टांग मौलवी टस से मस नहीं हुए और अब कोर्ट द्वारा मस्जिद छीन जाने पर यही मौलवी रांड का रोना रो रहे हैं।

बहरहाल अब जो हो गया वह हो गया। अब सवाल यह है कि इस फैसले को नज़ीर बना के संघ परिवार मुस्लिम दौर की और न जाने कितनी इमारतों पर दावा कर के देश में शांति व्यवस्था को चुनौती देगा।

विश्व हिंदूं पारिषद ने काशी और मथुरा को लेकर स्थिति साफ कर दी है कि उसका अगला निशाना यही दो स्थल होंगे ताज महल, लाल क़िला समेत सैकड़ों ऐसी इमारतें हैं जिन को संघ परिवार हिन्दू पूजा स्थल तोड़ कर बनाये जाने का दावा करता है, हालांकि नरसिम्हा राव के समय क़ानून बन गया था कि 15 अगस्त 1947 को जो इमारत जैसी थी उसकी उस स्थिति को चैलेंज नहीं किया जा सकेगा। लेकिन जब लोकतंत्र कानून और संविधान पर भीड़तंत्र को हावी कर दिया जाए जिसकी लाठी उसकी भैंस का नियम समाज में लागू हो जाए और खुद सरकार इस नियम को सरक्षण दे तो क़ानून का राज कौन स्थापित कर सकेगा ?

देश के 20 करोड़ से अधिक मुसलमानो में अलग-थलग पड़ जाने और दूसरे दर्जे का नागरिक बन का जो एहसास पैदा हो गया है वह देश के लिए बहुत घातक है। गैरबीजेपी सियासी पार्टियों को सियासी नफा नुकसान से बुलंद हो कर इस समस्या पर गहराई से विचार करना होगा। दूसरी तरफ खुद मुसलमानो को भी अपनी आर्थिक और शैक्षिक स्थिति सुधारने के साथ-साथ सियासी तौर से महत्वहीन हो जाने की समस्या का समाधान खोजना होगा। देश के बीस करोड़ से भी अधिक मसुलमान देश के बनाने संवारने के यज्ञ में मूक दर्शक नहीं रह सकते, उन्हें अपना महत्व स्थापित करने के लिए अपनी हिकमतअमली (strategy) तैयार करनी होगी। गड़े मुर्दे उखाड़ने के बजाय वर्तमान और भविष्य को मद्दे नज़र रख कर रास्ता खोजना होगा।