राजसमन्‍द: मुस्लिमों को डराने और दलितों को हिंदुत्‍व की छतरी के नीचे लाने का दोहरा फॉर्मूला



मुजाहिद नफ़ीस

राजसमन्द 1991 में उदयपुर जिले से अलग होकर नया जिला बना। इस जिले की आबादी 1156597 है जिसमें 581339 पुरुष और 575258 महिलाएं हैं। यहां 12.81% अनुसूचित जाति, 13.90% अनुसूचित जनजाति के लोग हैं। यहां 80.90% लोग सीमान्त मजदूर हैं जो 3-6 महीने ही नियमित रूप से काम पाते हैं| यहां की साक्षरता दर 63.14% है, बाल लिंग अनुपात  (0-6 साल के बीच) 1000 पर 903 है। राजसमन्द शहर, जिसको राजनगर के नाम से भी पहचाना जाता है, की आबादी 67,798 है जिसमें मुस्लिम 9.54%, ईसाई 0.29% और जैन 5.63% हैं।

यहां की ज़मीन में चांदी, जिंक, लीड आदि मिनरल पाए जाते हैं, वहीँ यहां मार्बल, ग्रेनाइट, लाइमस्टोन भारी मात्रा में पाया जाता है। यह शहर उदयपुर से 67 किलोमीटर व राज्य की राजधानी जयपुर से 336 किलोमीटर दूर है। उदयपुर से राजसमन्द के 67 किलोमीटर के रास्ते में आपको सड़क के दोनों तरफ़ मार्बलस्टोन की बड़ी-बड़ी दुकानें दिखेंगी। यह जिला अपनी धार्मिक पहचान व विश्व प्रसिद्ध हल्दीघाटी को भी अपने में समेटे है। अब यह समझने की ज़रूरत है कि यहां पर बाहर से आए हुए एक अल्‍पसंख्‍यक मजदूर की इतने निर्मम ढंग से हत्या क्यों की गई।

ऊपर मैंने जो आंकड़े व जिले की पृष्‍ठभूमि दी है, वह इसको स्पष्ट करता है कि हालिया बर्बर घटना के लिए राजसमन्‍द को ही क्यों चुना गया। राजसमन्द जिले में अनुसूचित जाति, जनजाति की कुल आबादी लगभग 26% है वहीँ मुस्लिम 2.91 % हैं। यह सब उस समय हुआ जब गुजरात में विधानसभा चुनाव चल रहे थे और 22 सालों से सत्ता में रही भारतय जनता पार्टी को सबसे मुश्किल दौर से गुज़रना पड़ रहा था। ऐसा इसलिए भी था क्योकि भाजपा के मुख्य सूत्रधार नरेन्द्र मोदी अब गुजरात से बाहर हैं, उनके बिना गुजरात का प्रशासन अस्तव्यस्त ही रहा है। गुजरात में पटेलों का आरक्षण आन्दोलन, ओबीसी का आन्दोलन, दलित उत्पीडन के ख़िलाफ़ उना आन्दोलन और बहुत शुरूआती दौर में अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा अपने हकों के लिए आन्दोलन शुरू हुआ है|

उना के दलित उत्पीड़न के विरोध में हुए आन्दोलन में दलितों के साथ मुसलमानों नें बढ़ चढ़ कर भागीदारी की। इस भागीदारी नें राज्य में एक नए राजनीतिक समीकरण की सम्भावना को हवा दी, जिसमे दलित-मुस्लिम गठजोड़ के नए समीकरण से भाजपा परेशान होने लगी। राजसमन्द में हुई घटना के पात्रों को देखें तो पाएंगे कि इसका शिकार बाहर से आया हुआ मुस्लिम मजदूर है जो राजसमन्द में छत की शटरिंग का काम करता है और बंगाल का मूल निवासी है। शिकारी वहीँ का एक स्थानीय दलित है।

घटना को जिस वीभत्स रूप से अंजाम दिया गया और वीडियो बनाकर जिस तरीके से उसे फैलाया गया, इसके पीछे दोहरी सोच यह रही कि स्थानीय मुलिम इससे डर जाएंगे और दलित भी हिन्दुत्व की छतरी के नीचे आ जाएंगे। इससे आने वाले चुनाव में फायदा लिया जा सकेगा। मारने वाला व्यक्ति जो दलित है, उसकी वीडियो में भाषा को अगर ध्यान से सुनें पाएंगे कि यह भाषा राजसमन्द के इलाके में बोली जाने वाली भाषा नहीं है। उसने आत्मसमर्पण से पूर्व वीडियो को मंदिर में शूट किया है, वहीँ उसने लम्बा सा तिलक भी लगाया हुआ है। आम तौर से दलितों की बोली ऐसी नहीं होती। उसे पहले से काफी ट्रेनिंग दी गयी गई है। एक दलित के मन में साम्प्रदायिकता का ज़हर ठूस-ठूंस कर भरा गया है|

इस घटना को अंजाम देने की पूर्व तैयारी थी, इस दावे को इस बात से बल मिलता है कि कातिल के समर्थन में लाखों लोग सड़कों पर एकदम से आ गए। वहीँ उसका केस लड़ने के लिए दिल्ली से वकीलों का इंतज़ाम व केस खर्च उसके अकाउंट में सीधे लाखों रूपये जमा हो जाना बताता है कि इसके पीछे कुछ संगठन लगे हुए थे। इस घटना का एक मकसद दलितों, मुस्लिमों के स्वाभाविक गठजोड़ को कमज़ोर करना भी है, जैसा कि हिंदू चरमपंथियों ने गुजरात में हुए दंगों में किया था।

जब एक दलित किसी मुस्लिम को मारेगा, तो मुखर दलित संगठन इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देंगे- ऐसा ही इस मामले में देखा गया। किसी भी बड़े दलित नेता ने इस घटना के विरोध में राजसमन्द का दौरा नहीं किया। इससे मुसलमानों में एक दूरी बनी होगी जिसका इस्तेमाल वे आने वाले राजस्थान विधानसभा चुनाव में करेंगे क्योकि वहां भी मौजूदा सरकार की हालत बहुत खस्ता है। राजसमन्द कांग्रेस के बड़े नेता सी.पी. जोशी का गृह जनपद है। यहीं से वे पिछला चुनाव सिर्फ एक वोट से हार गए थे जिसके चलते वे मुख्यमंत्री पद से चूक गए। उन्होंने भी सार्वजनिक रूप से इस घटना के प्रति गंभीरता नहीं दिखाई है।

इस घटना को अगर हम राजनीतिक रूप से देखें तो पाएंगे कि अब पूरे देश में दलितों को मुसलमानों के विरुद्ध सांप्रदायिक रंग देकर उनको लड़ाया जाएगा क्योंकि यह गठजोड़ अगर कामयाब रहा तो राजस्थान, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, मध्य प्रदेश व गुजरात के कुछ इलाकों में चुनावी राजनीति पर असर डालेगा। इसलिए सांप्रदायिक शक्तियों के लिए ज़रूरी है कि इन दो को अलग कर दो ताकि देश की सत्ता पर आसानी से व लम्बे समय के लिए रहा जा सके।

इस घटना नें राजस्थान के मुस्लिमों को डरा दिया है। प्रशासन भी मुस्लिम समाज के नेताओं को लगातार समझा रहा है कि वे कोई प्रदर्शन इत्‍यादि न करें। अतिवादी संगठन अपने मकसद में सफल होते हुए दिख रहे हैं क्योकि कोई राजनीतिक दल इस पर नहीं बोल रहा है। मुस्लिम समाज डरा- सहमा हुआ है| इन सबके बीच इस केस का क्या होगा, यह चिंता का विषय है।

अप्ल्संख्यकों पर हमले और वोटों की खातिर मुख्यधारा की पार्टियों की चुप्पी देश के ताने बाने को लगातार कमज़ोर कर रही है। देश धार्मिक आधार पर प्रथम/ दोयम दर्जे की नागरिकता के गर्त में जाता हुआ दिखाई दे रहा है| अगर मुख्यधारा के राजनीतिक दलों नें इसको नहीं रोका तो ही हमारे भारत को हिटलर शासित बनने में बहुत देर नहीं लगेगी|


(लेखक गुजरात में अल्पसंख्यक अधिकारों के लिए काम करते हैं व राजसमन्द जाकर आए हैं)