वेनेजुएला पर प्रचंड का एक बयान कैसे बन गया अमेरिका के गले की हड्डी!


अमेरिका की बौखलाहट को देखकर नेपाल के विदेश मंत्रालय ने 29 जनवरी को एक दूसरा बयान जारी किया




वेनेजुएला के संकट पर नेपाल के माओवादी नेता पुष्पकमल दहाल उर्फ प्रचंड के एक बयान के बाद अमेरिका और नेपाल के संबंधों में तनाव की स्थिति पैदा हो गई है। प्रचंड नेपाल की सत्ताधारी पार्टी ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल’ (सीपीएन) के सह-अध्यक्ष हैं और पार्टी के लेटरहेड पर उनके हस्ताक्षर से जारी इस बयान पर अमेरिका ने सवाल उठाया है कि क्या यह नेपाल सरकार का आधिकारिक दृष्टिकोण है। प्रचंड ने अपने बयान में अमेरिका और उसके सहयोगी देशों द्वारा वेनेजुएला के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप की निंदा करते हुए कहा है कि इससे ‘जनतंत्र, संप्रभुता और शांति के लिए खतरा पैदा हो गया है’। बयान में आगे कहा गया है कि वेनेजुएला के स्वघोषित राष्ट्रपति खुआन गोइदो को अमेरिका द्वारा तत्काल मान्यता दिए जाने से स्पष्ट संकेत मिलता है कि ‘अमेरिका वेनेजुएला के वैध रूप से निर्वाचित राष्ट्रपति निकोलस मादुरो और वहां की जनता के खिलाफ किसी बड़ी साजिश में लगा है।’ वक्तव्य में आगे कहा गया है कि किसी देश के आंतरिक मामले में इस तरह का हस्तक्षेप पूर्ण रूप से ‘अस्वीकार्य’ है और यह ‘साम्राज्यवादी ढंग से तख्ता पलट का प्रयास है।’ इसे एक जनविरोधी कार्रवाई कहा गया है और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से अपील की गई है कि वे राष्ट्रीय संप्रभुता बचाने के वेनेजुएला के संघर्ष में एकजुट हों। वक्तव्य में अमेरिका से अपील की गई है कि वह किसी देश के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप न करने के सिद्धांत का पालन करे और राष्ट्रीय संप्रभुता की रक्षा करते हुए शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के सिद्धांत का सम्मान करे।

प्रचंड के इस बयान के फौरन बाद काठमांडो स्थित अमेरिकी दूतावास ने नेपाल के विदेश मंत्रालय को एक पत्र लिख कर स्पष्टीकरण मांगा कि इस विषय पर सरकार का आधिकारिक दृष्टिकोण क्या है। उधर, अमेरिका स्थित नेपाली राजदूत अर्जुन कार्की को अमेरिकी विदेश विभाग में तलब किया गया और पूछा गया कि क्या इस बयान को नेपाल सरकार का वेनेजुएला के मामले में आधिकारिक वक्तव्य समझा जाय। जिस समय काठमांडो में प्रचंड ने यह बयान जारी किया, नेपाल स्थित अमेरिकी राजदूत रैंडी बेरी वाशिंगटन में थे जहां वे इस तैयारी में लगे थे कि एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंडल निकट भविष्य में नेपाल भेजा जाय। वैसे, अगले महीने 29-30 मार्च को काठमांडो में अंतरराष्ट्रीय निवेशकों का शिखर सम्मेलन होना है। यह भी इत्तफाक है कि जिस समय प्रचंड का यह वक्तव्य जारी हुआ एनसीपी के एक अन्य अध्यक्ष और देश के प्रधानमंत्री के.पी.ओली विदेश यात्रा पर थे। अमेरिका की बौखलाहट को देखकर नेपाल के विदेश मंत्रालय ने 29 जनवरी को एक दूसरा बयान जारी किया। इस बयान में कहा गया था कि ‘अपने सैद्धांतिक पक्ष को ध्यान में रखते हुए नेपाल का यह मानना है कि किसी देश की आंतरिक राजनीतिक समस्याओं का समाधान बाहरी हस्तक्षेप से मुक्त होकर जनतांत्रिक ढंग से देश के संवैधानिक दायरे के अंदर ढूंढ़ा जाना चाहिए। वेनेजुएला की जनता को ही इस बात का अधिकार है कि वह खुद निर्णय ले कि उसके देश का राजनीतिक और संवैधानिक मार्ग क्या हो। हम वेनेजुएला में शांति, स्थिरता और एकता के पक्षधर हैं और मांग करते हैं कि मतभेदों का समाधान शांतिपूर्ण तरीके से किया जाय।’

अमेरिकी अधिकारी इस बयान से संतुष्ट नहीं हुए। उनका कहना था कि प्रचंड ने जो वक्तव्य दिया था उसके और इस वक्तव्य के सारतत्व में कोई फर्क नहीं है- बस भाषा थोड़ी बदली हुई है। अमेरिकी अधिकारियों का कहना था कि इन दोनों वक्तव्यों को देखने से ऐसा लगता है कि नेपाल सरकार वेनेजुएला की ‘जमीनी हकीकत’ को ठीक से नहीं समझ पा रही है।

बात यहीं खत्म नहीं हुई। नेपाल ने 4 फरवरी को इसी विषय पर तीसरा बयान जारी किया। यह बयान नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से जारी किया गया था और कहा गया था कि वेनेजुएला की राजनीतिक स्थिति पर पार्टी की यह ‘ऑफीशियल पोजीशन’’ है। पार्टी के भीतर के कुछ लोगों ने और अखबारों में छपी खबर के अनुसार पूर्व विदेश मंत्री महेंद्र बहादुर पांडे ने इस बयान को ‘मूर्खतापूर्ण’ कहा और यह भी कहा कि इसको जारी करने की कोई जरूरत नहीं थी। पार्टी प्रवक्ता नारायणकाजी श्रेष्ठ ने संवाददाताओं को बताया कि पार्टी की औपचारिक बैठक होने के बाद हमने यह बयान जारी करना जरूरी समझा। इसी बीच एक और महत्वपूर्ण घटना यह हुई कि 1 फरवरी को विदेश मंत्री ज्ञवाली द्वारा बुलायी गयी राजनयिकों की नियमित बैठक में नेपाल स्थित अमेरिकी राजदूत ने भाग नहीं लिया। उन्होंने अपने स्थान पर अपने सहायक को भेज दिया। यह नाराजगी प्रकट करने का एक तरीका था।

यह एक अभूतपूर्व स्थिति थी जब किसी मुद्दे पर दस दिन के अंदर तीन वक्तव्य जारी हुए हों। इन तीनों वक्तव्यों के जारी होने के बाद भी प्रचंड का यह कहना है कि वेनेजुएला के संकट के बारे में उनका जो दृष्टिकोण है वह राजनीतिक तौर पर पूरी तरह सही है और वह अपने वक्तव्य में किसी भी तरह का परिवर्तन नहीं चाहते।

नेपाल के प्रमुख विपक्षी दल नेपाली कांग्रेस ने प्रचंड के वक्तव्य की तीखी आलोचना करते हुए इसे ‘असंवेदनशील, अपरिपक्व और राष्ट्रीय हित के विरुद्ध’ बताया। नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा ने संसदीय दल की बैठक के बाद कहा कि अमेरिका 65 वर्षों से भी अधिक समय से नेपाल का एक भरोसेमंद मित्र है जिसने सामाजिक तथा भौतिक संसाधनों के विकास के क्षेत्र में नेपाल की काफी मदद की है। देउबा ने यह भी कहा कि मिलेनियम चैलेंज कार्पोरेशन कार्यक्रम के अंतर्गत अमेरिका ने अभी नेपाल को 50 करोड़ डॉलर की सहायता दी है और ऐसे में नेपाल की तरफ से अमेरिका की भर्त्सना करने वाला कोई वक्तव्य राष्ट्रीय हितों के खिलाफ है। देउबा ने न केवल प्रचंड के वक्तव्य की बल्कि अन्य वक्तव्यों की भी निंदा की।

देउबा की अमेरिका भक्ति जगजाहिर है लेकिन ऐसी कौन सी कूटनीतिक मजबूरी थी जिसके चलते प्रधानमंत्री ओली को कहना पड़ा कि बयान देने में प्रचंड से ‘चूक’ हो गयी और अगर वह (ओली) देश से बाहर नहीं रहे होते तो ऐसा बयान नहीं आता। ओली ने यह बात 6 फरवरी की रात में एक टेलीविजन चैनल पर कही। जवाब में अगले ही दिन चितवन की एक सभा में जब पत्रकारों ने ओली के इस बयान की ओर प्रचंड का ध्यान दिलाया तो उन्होंने कहा कि ‘पार्टी सचिवालय ने अपनी बैठक में, जिसमें ओली खुद भी शामिल थे, साफ तौर पर कहा कि वेनेजुएला के मामले में अमेरिका ने हस्तक्षेप किया है और इसकी भर्त्सना की।’


हिरण्य लाल श्रेष्ठ

ओली और प्रचंड के परस्पर विरोधी दृष्टिकोण के सामने आने से पहले ही अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार हिरण्य लाल श्रेष्ठ ने 4 फरवरी को ‘ऑनलाइन खबर’ को दिए एक इंटरव्यू में कहा कि अमेरिका को पता है कि नेपाल के बयान से कुछ खास फर्क नहीं पड़ने जा रहा है लेकिन वह जरूरत से ज्यादा इसलिए तूल दे रहा है कि इसी बहाने प्रचंड और ओली में मतभेद पैदा हो। ‘वह पार्टी में फूट डालना चाहता है जिसे इन नेताओं को समझना चाहिए’। श्रेष्ठ का मानना है कि ऐसे समय जब अमेरिका इस बात से नाराज है कि नेपाल ने क्यों चीन के ‘बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव’ (बीआरआइ) में हिस्सा लिया और लगातार इस कोशिश में है कि नेपाल उसके द्वारा शुरू किए गए इंडो-पैसीफिक स्ट्रैटेजी को अपना समर्थन दे दे, इस तरह के वक्तव्य ने उसके समीकरण को और गड़बड़ कर दिया है। हिरण्य लाल श्रेष्ठ रूस में नेपाल के राजदूत रह चुके हैं। उनका मानना है कि चीन को काउंटर करने के लिए अमेरिका लगातार नेपाल में अपनी गतिविधियां बढ़ाने में लगा है।

पिछले कुछ महीनों के अंदर तीन ऐसी घटनाएं हुई हैं जिनसे नेपाल को लेकर अमेरिका की चिंता बढ़ गई है। पिछले वर्ष दिसंबर में विदेश मंत्री प्रदीप ज्ञवाली के पास अचानक अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपिओ का एक निमंत्रण आया जिसमें पोंपिओ ने ज्ञवाली से मिलने की इच्छा प्रकट की थी। इस निमंत्रण से सबको हैरानी हुई कि महाबली अमेरिका को नेपाल से ऐसी क्या जरूरत पड़ गई! अमेरिकी विदेश मंत्री ने ज्ञवाली से वाशिंगटन में हुई बातचीत में अनुरोध किया कि नेपाल अमेरिका द्वारा संचालित इंडो-पैसिफिक स्ट्रैटेजी का सदस्य बन जाए। पोंपिओ ने कहा कि इस संगठन के पास काफी पैसे हैं और इसका इस्तेमाल नेपाल अपने विकास कार्यों के लिए कर सकता है और साथ ही इस संगठन में वह एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। प्रदीप ज्ञवाली ने अत्यंत विनम्रतापूर्वक इसका सदस्य बनने में अपनी असमर्थता व्यक्त की क्योंकि उन्हें पता था कि इसका मकसद चीन की घेराबंदी में नेपाल का इस्तेमाल किया जाना है। अमेरिका के लिए रवाना होने से पहले उन्होंने ‘काठमाण्डो पोस्ट’ से कहा था कि विश्व की किसी ताकत के साथ रणनीतिक साझेदारी करते समय नेपाल अपने राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखेगा। इससे पहले सितंबर में पुणे में आयोजित ‘बिम्सटेक’ के संयुक्त सैनिक अभ्यास में भाग लेने से नेपाल ने मना कर दिया था जबकि काठमांडो में आयोजित इस संगठन के चौथे शिखर सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सैनिक अभ्यास में नेपाल के शामिल होने की संभावना का स्वागत किया था। जब यह खबर आई तो लोगों ने इस आशय की टिप्पणी की कि नेपाल ने भारत की अवहेलना की है लेकिन नेपाल को अच्छी तरह पता था कि भले ही ऊपरी तौर पर बिम्सटेक की कमान भारत के हाथों में दिखाई देती हो लेकिन परोक्षरूप से इसकी कमान अमेरिका के ही हाथ में है। इन दो घटनाओं का दर्द अभी अमेरिका झेल ही रहा था कि वेनेजुएला संकट पर प्रचंड का वक्तव्य आ गया। अमेरिका के सामने थोड़ी मुश्किल पैदा हो गई है कि वह नेपाल से कैसे निबटे।

नेपाल में इस समय कम्युनिस्ट पार्टी का शासन है। यह पार्टी जनता द्वारा दो-तिहाई बहुमत से चुनकर सत्ता में आई है। इसमें माओवादियों की बराबर की भूमिका है। दुनिया के विभिन्न देशों में और खास तौर पर भारत और नेपाल में बहुत सारी कम्युनिस्ट पार्टियां हैं और इनमें से कइयों का नेपाली कम्युनिस्टों के बारे में अलग-अलग आकलन है। कोई इन्हें संसदवाद के दलदल में फंसा बताता है तो कोई संशोधनवादी, विलोपवादी या पूंजीवादपरस्त विशेषणों से अलंकृत करता है। यह तो एक कम्युनिस्ट नजरिया हुआ। लेकिन अमेरिका की निगाह में नेपाल की सत्ता पर काबिज पार्टी ‘कम्युनिस्ट पार्टी’ है- भले ही उसका रंग गाढ़ा लाल हो या हल्का लाल। चीन को छोड़कर दुनिया का एकमात्र देश आज नेपाल है जो अपने लाल रंग से अमेरिका के लिए परेशानी का सबब बना हुआ है। ऐसी स्थिति से कैसे निज़ात पाया जाय, इसके अनेक उदाहरण हम अमेरिका के बर्बर साम्राज्यवादी इतिहास में देख चुके हैं। अतीत के अनुभवों से सबक लेते हुए नेपाल के सभी धारा के कम्युनिस्टों और प्रगतिशील जनतांत्रिक शक्तियों को अमेरिका के भावी प्रहार से बचने के उपायों पर गंभीरता से विचार करने और एकजुट होने की जरूरत है।

(समकालीन तीसरी दुनिया के संस्‍थापक और संपादक वरिष्‍ठ पत्रकार आनंद स्‍वरूप वर्मा  नेपाल मामलों के विशेषज्ञ हैं और मीडियाविजिल के संपादकीय परामर्श मंडल के सदस्‍य हैं)