‘हत्यारी’ पुलिस शांति नहीं ला सकती ! योगी की ‘मुठभेड़-नीति’ पर पूर्व डीजीपी ने उठाए सवाल !




योगी की पुलिस मुठभेड़ों की राजनीति

 

विकास नारायण राय

 

शायद ही आपका ध्यान कभी इस अघोषित परम्परा पर गया हो. गणतंत्र दिवस पर बच्चों को दिए जाने वाले वीरता पुरस्कार प्रायः किसी की जान बचाने में उनके साहसिक प्रदर्शन के लिए होते हैं. एक खालिस मानवीय प्रोत्साहन! जबकि पुलिस/सैन्य बलों के वयस्कों को वीरता पुरस्कार निरपवाद रूप से जान लेने के लिए दिए जाते हैं. सोचिये, नियामकों के लिए क्यों दुर्लभ होता है, जान बचाने वाले पुलिस दृष्टान्तों को भी साहस की श्रेणी में रख पाना ? उन्हें मानवीय पुलिस चाहिए भी या नहीं !

जैसे गोली से मरे शेर के साथ फोटो को शिकारी की जांबाजी का मानक माना जाता रहा है, उसी तर्ज पर पुलिस में वीरता और साहस जैसे मूल्यों को मुठभेड़ के नाम पर ढेर किये गए मानव शरीर से संदर्भित करने का प्रशासनिक रिवाज चला आ रहा है. इस क्रम में ख्याति के साथ पदोन्नति और पुरस्कार भी प्रायः जुड़ जाते हैं. हालाँकि, फर्जी पुलिस मुठभेड़ों की संस्कृति के पीछे प्रमुख वजह यह नहीं है.

आज के सन्दर्भ में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को असली वजह रेखांकित करने का श्रेय दिया जाना चाहिए. उनकी पुलिस, प्रदेश में फर्जी मुठभेड़ की सुनामी लाने के आरोपों से घिरी है. योगी के एक वर्ष के शासन काल में राज्य पुलिस की ओर से एक हजार से अधिक मुठभेड़ों का दावा किया गया है जिनमें तीन दर्जन से अधिक व्यक्ति मौत के घाट उतारे जा चुके हैं.

योगी ने आलोचकों को जवाब में, मुठभेड़ संस्कृति के पक्ष में प्रचलित सूत्र को ही दोहराया, ‘जो लोग समाज का माहौल बिगाड़ना चाहते हैं, जिन्हें बन्दूक की नोक पर विश्वास है, उन्हें बंदूक की ही भाषा में जवाब देना चाहिए.’ जैसा कि आंकड़ों से जाहिर है, उनकी समझदार पुलिस, ‘इशारा ही काफी है’ के मानदंड पर खरा उतरने की होड़ में बढ़-चढ़ कर जुटी हुयी है.

यानी, योगी शासन के तर्क से मुख्य मसला बनेगा कि कानून वह भाषा गढ़ने में असमर्थ सिद्ध हो रहा है जो बदमाश को सही रास्ते पर ला सके. लिहाजा, दूसरे शब्दों में, पुलिस को मजबूरी में कानून के शासन की भाषा नहीं समझने वाले बदमाशों से उनकी भाषा में ही बात करनी पड़ेगी ! इस तर्क में अंतर निहित खोखलापन भी छिपाया नहीं जा सकता. क्या सरकार का ही दायित्व नहीं कि कानून को प्रभावी भाषा के आवरण में ढाले ? और क्या मुठभेड़ों के बढ़ते चलन के बावजूद योगी प्रदेश में अपराध बढ़ते नहीं गए हैं ?

मुठभेड़ों को स्वीकार्यता देने के तर्क में छिपी सांप्रदायिक राजनीति को समझने के लिए एक नजर योगी शासन में मौत के घाट उतारे गए नामों की लिस्ट पर डालना काफी होगा. इनमें से अधिकांश यादव और मुस्लिम मिलेंगे. पूर्ववर्ती अखिलेश यादव के दौर में संरक्षित माफिया राज में पले-बढे मुस्टंडे! लिस्ट में अपवादस्वरूप भी क्षत्रिय या ब्राह्मण जाति का नाम नहीं मिलेगा. योगी की अपनी हिन्दू वाहिनी, जो मुस्लिम समुदाय और युवा संबंधों के प्रति एकतरफा सांस्कृतिक अराजकता पर उतारू है, को तो छूने का सवाल ही नहीं.

बेशक भाजपा सरकार में सारे छद्म उतार कर फेंक दिए गए हैं लेकिन उत्तर प्रदेश में यह कोई योगी की शुरू की गयी परंपरा नहीं है. वहां के एक पूर्व आईपीएस अधिकारी इसे ‘बाली इफ़ेक्ट’ की संज्ञा देते हैं जिसका पुलिस पर असर तत्कालीन मुख्यमंत्री की जाति के अनुसार होता है. महाभारत प्रसंग में बाली के सामने शक्तिहीनता के आभास की ही तरह, अखिलेश राज की पुलिस किसी यादव या मुस्लिम माफिया और योगी राज में हिन्दू वाहिनी के अराजक लम्पटों के सामने स्वयमेव विवश हो जाती है.

पुलिस वालों को, उनकी ट्रेनिंग चाहे नागरिकों के प्रति जवाबदेह और संवेदी न भी बनाये पर मैं इतना कह सकता हूँ कि उन्हें कठोर नैतिक और कानूनी अनुशासन में जरूर ढाला जाता है. कार्यक्षेत्र में उतरने पर यह सब कहाँ छू मंतर हो जाता है? सीधा समीकरण, डंडे और गोली को संभालना यूँ भी आसान नहीं होता. शक्ति, जितनी बेलगाम होगी उसे संभालना उतना ही भारी होगा. आये दिन ऐसी सुर्खियाँ आपको मीडिया में मिलेंगी- फ़ैजाबाद के एक थाने में भाई से बहन के कपड़े उतारने को कहा गया. गाजियाबाद में सड़क पर वाहन चेकिंग के नाम पर कार चालक की सब इंस्पेक्टर ने सिर में गोली मार कर हत्या कर दी.     

दैनिक पुलिस मुठभेड़ों की छाया में जीने वाले समाज को कहीं बड़ा खतरा है बचे-खुचे लोकतंत्र के निरंकुश तानाशाही में बदल जाने का. डर है लोग इस जीवन से समझौता न कर लें! संविधान की धारा 21 यानी जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार से समझौता, ‘कानून का शासन’ की अवधारणा को तहस-नहस कर देगा. किसी भी विकसित समाज का अनुभव है कि कानून का वकार ऊँचा होने से ही पुलिस का वकार ऊँचा होगा. सुप्रीम कोर्ट ने और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने पुलिस मुठभेड़ को लेकर जो विस्तृत दिशा निर्देश जारी किये हैं, योगी शासन का कोई भी परिपत्र उनका जिक्र क्यों नहीं नहीं करता ? दरअसल, उत्तर प्रदेश में मौजूदा दौर कानून-व्यवस्था दुरुस्त करने की रणनीति नहीं, योगी व्यवस्था को प्रबल करने की राजनीति है.

पुलिस स्वयं भी इस राजनीति का शिकार है. बदमाश को दुरुस्त करने के लिए उन्हें आत्मरक्षा के नाम पर मुठभेड़ जैसा शार्ट कट रास्ता नहीं, समाज में विश्वास पैदा करने वाला त्वरित क़ानूनी हाई वे दिया जाना चाहिए. जबकि मीडिया भी योगी की कानून-व्यवस्था के मूल्यांकन को, किसी कासगंज काण्ड या किसी दिलीप सरोज हत्या प्रकरण या किसी सनसनीखेज गैंग रेप धर-पकड़ में उसके प्रभावी सिद्ध होने या न होने तक ही सीमित रख रहा है. पुलिस का समाज के विभिन्न तबकों से सम्बन्ध, नागरिकों का विश्वास जीतने की उसकी पहल, और पारदर्शी होने के उसके उपाय, मीडिया की छानबीन से लगभग नदारद मिलते हैं.

प्रधानमन्त्री मोदी ने लोकसभा में बजट भाषण के दौरान एक दिलचस्प टिप्पणी की है. उनके अनुसार अगर सरदार पटेल देश के पहले प्रधानमन्त्री बने होते तो देश की बहुत सी समस्याएं हल हो गयी होतीं. सरदार पटेल को स्वतंत्र भारत में पुलिस के गठन और देश के एकीकरण से जोड़ कर देखा जाता है. उनका एक मशहूर कथन है- ‘भारत के सामने प्रमुख काम अपने को समेकित और एकजुट शक्ति में संगठित करना है.’ इसके उलट, योगी से भी बहुत पहले, स्वयं मोदी ने सरदार पटेल के गुजरात का मुख्य मंत्री रहते राज्य नियंत्रित पुलिस मुठभेड़ों की विभाजक राजनीति की हुयी है.

पुलिस के जिम्मे अंततः समाज पर बल पूर्वक क़ानूनी नैतिकता लादने का भी काम आयद होता है. क्या एक हत्यारी पुलिस को यह काम सौंप कर कोई समाज चैन की नींद सो सकता है?

 



(अवकाश प्राप्त आईपीएस, विकास नारायण राय हरियाणा के डीजीपी और नेशनल पुलिस अकादमी, हैदराबाद के निदेशक रह चुके हैं।)