प्रधानमंत्री ने तो अयोध्या विवाद की सुनवाई के मायने ही बदल डाले हैं!


यह पहली बार हुआ कि किसी प्रधानमंत्री ने किसी अदालती विवाद में खुद को उसके एक पक्ष का पैरोकार बना लिया




कृष्ण प्रताप सिंह

                                                

गुरुवार को देश के सबसे संवेदनशील रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद की सबसे बड़ी अदालत की सबसे नई पीठ में सुनवाई शुरू होगी तो सम्बन्धित पक्षों के लिए उसके मायने बदले हुए होंगे। एक पक्ष यह सोचकर हलकान हो रहा होगा कि अब फैसले के उसके पक्ष में होने का भी कोई हासिल नहीं, जबकि दूसरा यह सोचकर आह्लादित कि वह विपरीत भी हो तो क्या, प्रधानमंत्री हैं न, सारा ऊंच-नीच बराबर कर देंगे।

दरअस्ल, गत 1 जनवरी को देश के इतिहास में यह पहली बार हुआ कि किसी प्रधानमंत्री ने किसी अदालती विवाद में खुद को उसके एक पक्ष का पैरोकार बना लिया-बाकायदा साक्षात्कार देकर और इतना सौजन्य बरतने की जरूरत भी नहीं समझी कि यह कहकर उस पर कोई टिप्पणी करने से मना कर दे कि मामला अदालत में है। उलटे तत्काल तीन तलाक मामले की नजीर देते हुए कह दिया कि वह कानूनी प्रक्रिया पूरी होने यानी अंतिम अदालती फैसला आ जाने के बाद अपनी ‘जिम्मेदारी’ निभायेगा क्योंकि उसे ‘वहीं’ राममन्दिर निर्माण का अपनी पार्टी का चुनावी वायदा पूरा करना है।

आखिरकार, उस दिन एएनआई से साक्षात्कार में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस विवाद के फैसले के बाद ही किसी अध्यादेश या कानून पर विचार करने की जो बात कही, उसका पहला निहितार्थ ये नही तो और क्या है कि वे कानूनी नुक्त-ए-नजर से सुनाये गये अदालती फैसले को निरर्थक भी कर सकते हैं? और ऐसा है तो यकीनन, यह देश में कानून के राज के फिक्रमंदों के लिए नये सिरे से सचेत होने की घड़ी है। हां, प्रधानमंत्री मतदाताओं को यह बताकर, कि ‘अनंतकाल तक इंतजार न करने’ की धमकी दे रही कट्टरपंथी जमातों के गहरे दबाव में होने के बावजूद वे देश पर संविधान के दायरे से बाहर न जाने की ‘अनुकम्पा’ कर रहे हैं, अपना कोई नया महानायकत्व गढ़ना चाहते हैं, तो भी यह चिंता की ही बात है। इस विवाद को आगामी लोकसभा चुनावों में नये सिरे से इस्तेमाल के लायक बनाना चाहते और राममन्दिर निर्माण न हो पाने को देश की सबसे बड़ी समस्या बताने व बनाने में लगी उक्त जमातों को समझाना चाहते हैं कि एक बार और प्रधानमंत्री बनने का मौका मिलने पर वे उनकी यह साध पूरी करने के लिए कुछ भी उठा नहीं रखेंगे, तब तो उनके इस आश्वासन में कोई राहत ढूंढना व्यर्थ ही है कि फिलहाल, वे राममन्दिर के लिए अध्यादेश लाने या कानून बनाने की राह पर नहीं पकड़ रहे। 

यहां समझना चाहिए कि प्रधानमंत्री रहते हुए इस विवाद को लेकर न वे कट्टरपंथी जमातों की तरह न्यायालय पर प्रत्यक्ष या परोक्ष दबाव डालने के प्रयास कर सकते थे, न यह कह सकते थे कि फैसला करते वक्त वह कानूनी प्रावधानों के बजाय उनकी आस्थाओं व विश्वासों के साथ इसका भी खयाल रखे कि न्याय में विलम्ब से भी अन्याय होता है और न यह कि फैसला अनुकूल हुआ तो मानेंगे, वरना उसके अनुपालन में सबरीमाला जैसी बाधाएं खड़ी करेंगे, इसलिए उन्होंने यह कहने का ‘शालीन’ रास्ता चुना कि फैसले के बाद अपनी जिम्मेदारी निभायेंगे।

ऐसे में किसी को तो उनसे पूछना चाहिए था कि सत्ता या संख्या बल की शक्ति से ‘विपरीत’ अदालती फैसले को पलटकर अनुकूल बनाने के अलावा यह जिम्मेदारी वे और कैसे निभा सकते हैं? यह और बात है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 1995 में 12 सितम्बर को एक मामले में दी गई इस व्यवस्था ने उनके और उनकी सरकार के हाथ बांध रखे हैं कि उसके द्वारा पारित किसी भी ऐसे आदेश को, जो सम्बन्धित पक्षकारों पर बाध्यकारी हो, कानून बनाकर निष्प्रभावी नहीं किया जा सकता।

प्रधानमंत्री के वास्तविक मन्तव्य तक पहुंचने के लिए इस सवाल का जवाब तलाशना भी  आवश्यक है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी बनने के बाद से लेकर हाल तक उन्होंने अयोध्या विवाद को लेकर आग बोने का काम अपनी पार्टी के दूसरी पंक्ति के नेताओं के हवाले क्यों किये रखा था और अब अपने प्रधानमंत्रीकाल की आखिरी छमाही में उसे लेकर इतने मुखर क्यों हो चले हैं? 2014 में तो जिस फैजाबाद लोकसभा क्षेत्र में अयोध्या अवस्थित है, उसके भाजपा प्रत्याशी की प्रचार रैली को सम्बोधित करते हुए भी उन्होंने राममन्दिर का नाम नहीं लिया था। 

उसका नाम लेने की शुरुआत तो उन्होंने सच पूछिये तो मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान समेत पांच राज्यों के हालिया विधानसभा चुनावों में की। यह कहकर कि ‘कांग्रेस के वकील’ सर्वोच्च न्यायालय में इस मामले की सुनवाई टालने की दलीलें न देते तो यह लटकता नहीं और कौन जाने अब तक मनचाहा फैसला आ गया होता। उनका इशारा कांगे्रस नेता कपिल सिब्बल की ओर था, जो पेशे से वकील हैं और अयोध्या विवाद में एक पक्ष की पैरवी करते रहे हैं। अर्ध-सत्यों को लेकर भ्रम फैलाने और उन्हें ही पूर्ण सत्य बताने के फेर में रहने की अपनी पुरानी आदत के अनुसार प्रधानमंत्री ने इस बात को ऐसे अन्दाज में कहा, जैसे कांग्रेस भी विवाद का कोई पक्ष हो या उसने बाकायदा प्रस्ताव पारित कर सिब्बल को ‘अपना वकील’ नियुक्त कर रखा हो और वे उसी हैसियत से न्यायालय में पेश होते रहे हों। 

उक्त चुनावों में यह अर्ध सत्य नहीं चला और मतदाताओं ने प्रधानमंत्री को अभीष्ट साम्प्रदायिक या धार्मिक ध्रुवीकरण न होने देकर भाजपा को हरा दिया तो अब वे कानूनी प्रक्रिया पूरी हो जाने पर वह सब कुछ करने की बात कह रहे हैं, जो ‘संविधान के दायरे में सम्भव’ हो। 2014 के चुनाव में अपने महानायकत्व के साथ विकास के गुजरात माॅडल पर निर्भर करने और अयोध्या विवाद का नाम तक मुंह पर न लाने वाले नरेन्द्र मोदी के 2019 के लोकसभा चुनाव से ऐन पहले यों अयोध्या विवाद पर केन्द्रित होने का एक बड़ा कारण, निस्संदेह, विकास के मुद्दे पर उनके खाते में ऐसी कोई बड़ी उपलब्धि न होना ही है, जिसे लेकर वे दर्पपूर्वक दहाड़ते हुए मतदाताओं तक जा सकें। अलबत्ता, उनकी वायदाखिलाफियों की सूची लम्बी हो चली है और इस सवाल का जवाब देना भी उन्हें भारी पड़ रहा है कि जिन अच्छे दिनों को वे लाने वाले थे, पिछले पांच साल उनकी प्रतीक्षा में ही क्यों गुजर गये? 

क्या आश्चर्य कि इस जवाबदेही से हलकान उनका ‘विकास का महानायक’ अब खोल से बाहर आ गया है और राफेल जैसे मामलों से ध्यान हटाने के लिए 2019 का नया एजेंडा सेट करने की जुगत में है, जिससे बात विकास से हटकर अयोध्या में ‘वहीं’ राममन्दिर पर केन्द्रित हो जाये। फिर मतदाताओं का ऐसा साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हो कि कानूनी प्रक्रिया पूरी होने के बाद ‘जिम्मेदारी’ निभाने का उनका वायदा काम आ जाये। आखिरकार अरसे से लटकी कानूनी प्रक्रिया आगामी लोकसभा चुनाव से पहले नहीं ही पूरी होने वाली।

प्रधानमंत्री ने जो कुछ कहा है, वह इसलिए भी डराता है कि अयोध्या विवाद में भारतीय जनता पार्टी, उसके विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठनों और सरकारों का रवैया ‘कहना कुछ और करना कुछ और’ वाला रहा है। इतिहास गवाह है कि इस विवाद में जब भी कोई कसौटी उपस्थित हुई है, उन्होंने नियमों, कानून-कायदों या संविधान से ज्यादा अपने दलीय हितों और स्वार्थों की फिक्र की है। याद कीजिए, 23 अक्टूबर, 1990 को अपने उन दिनों के महानायक रथयात्री लालकृष्ण आडवाणी की समस्तीपुर में गिरफ्तारी के बाद कैसे भाजपा ने तत्कालीन विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार से समर्थन वापस लेकर देश को अस्थिरता के हवाले कर दिया था। फिर 1992 में उसके उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने कैसे सर्वोच्च न्यायालय और राष्ट्रीय एकता परिषद में दिया बाबरी मस्जिद की रक्षा का वायदा निभाने के बजाय कारसेवकों पर गोली न चलाने के आदेश का पालन करवाया था। 

अब वे इस डर को फैलकर उस बिन्दु तक जाने से भी नहीं रोक पायेंगे कि खुदा न खास्ता वे फिर प्रधानमंत्री बन ही गये और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के मनमाफिक न होने पर राममन्दिर को लेकर नोटबन्दी जैसे किसी नये दुस्साहस पर उतरे तो..? यह भी पूछा ही जायेगा कि क्या खुदा गंजे को ऐसे नाखून देगा, जिनकी बिना पर वह देश को ‘विकास के महानायक’ का इस तरह का पतन दिखा सके? अभी तो यह पतन दो ही स्थितियों में रुकता दिखाई देता है। पहली यह कि काठ की हांड़ी दुबारा चढे़ ही नहीं और दूसरा यह कि सर्वोच्च न्यायालय का फैसला ही ऐसा हो जो इस महानायक की लाज रख ले।  
 

कृष्ण प्रताप सिंह अयोध्या के वरिष्ठ पत्रकार और वहाँ से प्रकाशित दैनिक जनमोर्चा के संपादक हैं।