नेपाल का हाल: सत्ता की धुन्ध में खोया बादशाह!




नरेश ज्ञवाली

 

किस चीज का इन्तज़ार है
और कब तक ?
दुनिया को 
तुम्हारी ज़रुरत है
–बेर्टोल्ट ब्रेख्त

बडे अजीबो–गरिब निगाह से हम देख रहे थे, जब कठुवा और उज्जैन में एक बलात्कारी के पक्ष में रैलीयां निकल रही थी। हम उस घटना को भी बडे अजीबो–गरीब निगाह से देख रहे थे, जब एक सैनिक कश्मीर के एक युवा को अपनी जिप्सी के आगे बाँध कर शहर घुमा रहा था। हम उन घटनाओं को भी बडे अजीबो–गरीब निगाह से देख रहे थे जब दलित, मुस्लिम और अल्पसंख्यकों को गो–रक्षकों की ओर से पीटा जा रहा था, मारा जा रहा था। उन सारी चीजों को देख हमारे रोंगटे खडे हो जाया करते थे। खैर वह अलग बात है कि आज रोंगटे खडे नहीं होते, पर एैसी घटनाएं रुकी नहीं बल्की अपनी शक्ल बदल हमारे सामने खडी हैं। बिल्कुल हमारे सामने।

हम उस भारत की तरफ हैरत भरी नजरों से देखते जो खुद को सबसे बडा लोकतन्त्र होने का दावा करताऔर अवाम पर गोलीयां दाग 56 इंच के सीने की बात करता। घटनाएँ काफी आगे बढ चुकी थीं और उसका दायरा भी काफी आगे बढ चुका था। भारतीय अवाम की दहलीज को लाँघ वह घर के भीतर घुस चुका था। भारतीय अवाम के घरों की दहलीज को लाँघने का मतलब हमारे दहलीज पर दस्तक देने का था, जो हम भाँप नहीं पाए।

लेकिन यह चुनाव नहीं था जो जोर–शोर के साथ हमारी दहलीज पर दावत के साथ कदम रखता, यह तो उस तूफान से पहले का सन्नाटा था जो आने वाले दिनों में हमारे घोसलों को शर्मसार करने वाला था। हमारी इन्सानियत को शर्मसार करने वाला था। शायद आप को लगे यह कोई कहानी है, नहीं, नहीं बरखुरदार, यह कोई कहानी नहीं, यह वो हकीकत है जो हमारी आँखों के सामने है।

बीते इतवार को 52 दिन हो गए लेकिन बलात्कारी को सजा दिलाने में सरकार न जाने क्यों आनाकानी कर रही है। कभी संसद में खडे हो कर, तो कभी टीवी स्क्रीन में खड़े हो कर बादशाह कहते हैं– ‘आन्दोलन विवेकहीन है।’ लेकिन मैं देखता हूँ, जनता विवेकहीन नहीं होती। यह कोई भीड़ नहीं जो लोगों को पीट-पीट कर हत्या करने के लिए खडी है। वह जनता का सैलाब था जो न्याय की माग कर रहा था। लेकिन बदले में बन्दूक की गोली, अश्रु गैस, पुलिस की लाठी और निर्दोषों को यातना नसीब हुई।

हुआ यह कि नेपाल के सुदूर पश्चिम के कंचनपुर में छोटी बच्ची की बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई। पुलिस ने मामले को अपने कमाण्ड में लिया, लोगों को रिमांड में लिया। पुलिस के मुताबिक दोषी पकड़ा गया, गृहमन्त्री ने संसद में भाषण जड़ दिया, केस रफा-दफा। लेकिन वहाँ की जनता है कि पुलिस द्धारा दोषी बताए गए आदमी दिलीप सिंह विष्ट को बलात्कारी और हत्यारा मानने को तयार ही नहीं। जबकी दिलीप अभी–अभी अपने जीजा के हत्या की सजा काट जेल से बाहार हुआ था।

पुलिस पत्रकार सम्मेलन कर अपने आफिस से कहती है– बलात्कारी और हत्यारा यही है। जनता सड़क से आन्दोलन मार्फत कहती है -बलात्कारी और हत्यारा कोई और है यह नहीं। आन्दोलन बढ़ता गया, सरकार चुप्पी साधती रही। घटना के अभियुक्त के तौर पुलिस लोगों को रिमाण्ड में लेती रही, यातनाएं देती रही, सरकार चुप्पी साधती रही। प्रदर्शन बढ़ते गए, पुलिस की यातना का चक्र भी बढता गया। सबसे पहले दिलीप सिंह विष्ट फिर दीपक नेगी और जीवनघर्ती मगर को बलात्कार और हत्या के अभियोग खड़ा किया गया।

लेकिन जनता है कि मानने को तैयार ही नहीं। प्रदर्शन पर प्रदर्शन। रैलियों पर रैलियाँ। आवाज पे आवाज, लेकिन सरकार है कि चुप्पी साधती रही। पुलिस थोड़ी और सक्रिय हुई तो उसने बलात्कार और हत्या के केस में चक्र बढु, लक्ष्मी बढु, गौतम बढु, हेमन्ती भट्ट को चरम यातना दे कर घटना कबूलने को मजबूर किया। गोलियों का शिकार 20 साल का अर्जुन भण्डारा बीते 30 दिनों से चिटिङ हास्पिटल काठमाडौं में कोमा में है। 16 साल का उमेश देउवा जो बलात्कार की शिकार बालिका का दोस्त है, पैर गवाँ कर विस्तर पर पड़ा आँखों में दहशत लिए निशब्द हैं। डाक्टर का कहना है कि उसे ठीक होने में तीन महीने लगेंगे। अखबारों ने इन बातों को लिखा तब जाकर सरकार ने चुप्पी तोड़ी। वहाँ के एसपी और जिला अधिकारी को वहाँ से वापस बुलाया। लेकिन प्रदर्शन का चक्र नहीं रुका क्योंकि बलात्कार कर हत्या करने वाला अभी भी बाहर है और वाकई मजबूत स्थिति में हैं। कम से कम लगता तो यही है।

जनता का आक्रोश और घटना को दबाने के लिए की गईं पुलिस की करतूतें, जिसमें साक्ष्य को भट्काने, प्रमाणों को नष्ट करने और शक्ति का गलत प्रयोग कर दूसरों को दोषी करार देने को मददेनजर रखते हुए कहा जा सकता है कि यहाँ दाल में काला नहीं पुरा दाल ही काली है। सारे संकेत वहाँ के पुलिस के एसपी (जो जिलाप्रमुख होता है) डिल्लीराज विष्ट की ओर इशारा करते हैं, लेकिन सरकार है कि चुप्पी साधे बैठी रहती है। जब बोलता है तो तो बादशाह के अदब में कहता हैं– ‘आन्दोलन विवेकहीन हैं।’

अजीब बात तो यह है कि पुलिस ने जिन जिन लोगों को अपराधी के तौर पर खड़ा किया उन लोगों की मानसिक अवस्था ठीक नहीं है। बात साफ है– पुलिस अपना पल्ला झाड़ दुसरे के गले सारी घटना को मढ़ना चाहता है। दिलीप विष्ट जिसको पुलिस ने प्रमुख अपराधी करार दिया था उसकी मानसिक अवस्था ठीक नहीं और उसकी डीएनए टेस्ट कराने पर बलात्कार का शिकार बनी बालिका से मैच नहीं होता। लेकिन पुलिस तो पुलिस होती है। जैसे सत्ता आखिर सत्ता होती है।

शायद सत्ता और शक्ति ही वह जिच है जो दूसरे शक्तिशाली को सलाखों के पीछे देखना नहीं चाहती। हैरत हमें यह भी है कि यह सरकार हमारी चुनी हुई सरकार है। शर्मसार हम भी हैं कि हमारा नेपाल एैसा तो नहीं था। ग्लानि हमें भी महसूस होती है कि हम क्रान्ति को सही ढंग से संजो नहीं पाए।

पुलिस एसपी और उनके कुछ चुनिन्दे अफसर डीएसपी ज्ञानबहादुर सोटी और इन्सपेक्टर एकेन्द्र खड्का को सरकार की तरफ से निलम्बित कर दिया जाता है, लेकिन फिर भी प्रदर्शन जारी है। क्यों भई, अब क्यों प्रदर्शन ? जनता कहती है–वास्तविक दोषी को सजा दो। यानी 52 दिनों के प्रदर्शन और अफरा–तफरी ने लोगों में एक बेचैनी खड़ी कर दी है लेकिन नेपाल में लगभग दो तिहाई बहुमत के साथ सरकार में काबिज वामपन्थी नेता, विरोध करने वालों को देखना पसन्द नहीं कर रहे। वे काले झण्डों से डरा करते हैं न कि बलात्कारियों से। वे आलोचकों से डरते हैं न कि पपेटों से। वे बहुत पढ़ते हैं, जी हाँ बहुत पढ़ते हैं–फेसबुक में किए गए कमेन्ट को।

यही हमारे बादशाह हैं। यही हमारे शासक हैं। इन्ही की चाबुक पर देश की शासन व्यवस्था चलती है। माहौल एसा बना है जैसा श्रीकांत वर्मा नें अपनी कविताओं में कहा है–

कोई छींकता तक नहीं
इस डर से
कि मगध की शांति
भंग न हो जाए,
मगध को बनाए रखना है, तो,
मगध में शांति
रहनी ही चाहिए
मगध है,तो शांति है
कोई चीखता तक नहीं
इस डर से
कि मगध की व्‍यवस्‍था में
दखल न पड़ जाए
मगध में व्‍यवस्‍था रहनी ही चाहिए

बादशाह हिन्द महासागर में जाहाज और काठमांडो में रेल दौडाने की बात बडे अदब से किया करता है, लेकिन न्याय देने को तयार नहीं। ये मैं नहीं ये 52  दिन हमसे कहलवा रहें है– यह कैसा लोकतन्त्र है? ये 52 दिन बादशाह को टर्की के राष्ट्रपति एड्रोगान से तुलना करने को विवश कर रहे हैं जो खुद को सुलतान समझता है। ये 52 दिनें भारत के बादशाह की याद दिला रहे हैं जो बड़े अदब के साथ अपने पपेट जर्नालिस्टों के साथ इन्टरव्यू में सरीक हुआ करता है।

हालात और हवाओं का रुख यहाँ भी कुछ ठीक नहीं जनाब! यहाँ भी वही हाल है जैसा हबीब जालिब ने कहा था–

तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख्तनशीं था
उसको भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था।

नरेश ज्ञवाली काठमांडो में रह कर पत्रकारिता करते है और नेपाल के नयाँ पत्रिका दैनिक से जुड़े हुए हैं।