कहीं आप दर्द-निवारकों के बारे में फ़ालतू का सरदर्द तो नहीं पाले हुए हैं?


प्राणवान् चिकित्सा नहीं है, चिकित्सक है। विवेकशील दवा नहीं है, देने वाला है। प्राण और विवेक के आँखें नहीं हैं, वे हितकामी अन्तःप्रेरित अनुमान से चलते हैं।




डॉ.स्कन्द शुक्ल

एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं , एक देह में दो एक-सी दर्दनिवारकों को भी नहीं रहना चाहिए।

दर्दनिवारक या पेनकिलर के मामले में मैंने लोगों को भ्रमित देखा है। ‘हम पेनकिलर नहीं खाना चाहते’ ढेरों रोगियों की उपचार-सम्बन्धी इच्छा रहा करती है और ‘हमने पेनकिलर नहीं खायी’ उनकी सहनशक्ति का स्टेटमेंट। ढेरों लोगों का सोचना है कि जब दर्दनिवारक इतनी बुरी होती हैं , नुकसान पहुँचाती हैं — तब भी पता नहीं डॉक्टर इन्हें लिखते क्यों हैं ! आख़िर ये उपलब्ध ही क्यों हैं बाज़ार में !

सच तो यह है कि इन दवाओं के बारे में लोगों ने जाने-अनजाने जो ग़लत धारणाएँ बना ली हैं , उनपर बात करना ज़रूरी है। दर्दनिवारक दवाओं के सेवन के समय दो बातों को समझ कर देखना ज़रूरी है : पहली दर्द की आकस्मिकता और तीव्रता और दूसरी इन दर्दनिवारकों का आसानी से कहीं भी मिल जाना। 

जिन कई लक्षणों को लेकर मरीज़ डॉक्टरों के पास पहुँचते हैं, उनमें दर्द प्रधान है। उल्टी , सूजन , पीलिया , थकान , कमज़ोरी — जैसे लक्षण कम भी मिलते हैं और कई बार त्वरित प्रतिक्रिया की माँग भी नहीं करते। लेकिन दर्द दर्द है। वह कितना भी तीव्र हो सकता है। वह प्रसवपीड़ा में भी है , हृदयाघात में भी। वह दाँत से उठ सकता है , आँत से भी। वह मामूली चोट से भी हो सकता है , जानलेवा कैंसर से भी। ऐसे में दर्द से परेशान रोगी से विवेकसम्मत रहने को नहीं कहा जा सकता।

दर्द मनुष्य को सबसे अधिक विकल करता है। जब विकलता आती है , तो विवेक नहीं रहता। तब तुरन्त उपचार की दरकार होती है। पीड़ा से कराहता आदमी भारत जैसे देश में कई बार डॉक्टर नहीं पहुँच सकता और नहीं पहुँच पाता। हमारे यहाँ स्वास्थ्य-तन्त्र ऐसा चुस्त संरचना और सजग प्रतिक्रिया वाला नहीं कि दर्द उठा , इंसान इमरजेंसी पहुँचा और दस मिनट में राहत पा ली। यह होना चाहिए , लेकिन हो नहीं पा रहा। कारण कई हैं। अभी उन्हें जाने दीजिए।

अब ऐसे में पीड़ित व्यक्ति का अगला ठिकाना मेडिकल-स्टोर है। वह चूँकि दुकान है और दवा की वहाँ बिक्री होती है , इसलिए वहाँ दर्दनिवारक की सहज उपलब्धता है। व्यक्ति कराहता जाता है , मेडिकल-स्टोर वाले भाई से फ़रियाद करता है — वह उसे दो गोलियाँ काटकर पकड़ाता है , जिन्हें व्यक्ति खा लेता है। आराम पड़ जाता है , तो बात आगे नहीं बढ़ती। या फिर इस तरह की स्थिति मेडिकल-स्टोर वाले भैया ही सँभाल लें , तो डॉक्टर को परामर्श देकर दिखाने की ज़रूरत ही क्या भला ! अगली बार , बार-बार , हर बार वहीं से दवा जाने लगती है। ओवर-द-काउंटर उपचार से काम चला लिया जाता है।

मेरे कई डॉक्टर-मित्र अमेरिका का उदाहरण देते हैं। वहाँ पैरासिटामॉल के अलावा कोई दवा यों बिना डॉक्टरी पर्चे के नहीं मिलती। लेकिन फिर वहाँ डॉक्टर भी अलग मेल के हैं और मरीज़ भी। जनता भी अलग है , राजनेता भी। कर्त्तव्य-बोध भी भिन्न है , अधिकार-बोध भी। केवल मैकडोनाल्ड और सबवे में बर्गर खा लेने से तो हमारा देश अमरीका बन नहीं सकता।

भारत-सरकार और ऐसी अन्य सरकारें अगर दर्दनिवारकों को ओटीसी ( ओवर द काउंटर ) बिकने देती हैं , तो इसके पीछे व्यावहारिक कारण हैं। दर्द से पीड़ित लोगों के लिए जब तक ऐसा तन्त्र विकसित न कर लें , जो हर पीड़ित को त्वरित उपचार दे सके , तब तक और कोई मानवीय रास्ता नहीं है। जो तड़प रहा है , कराह रहा है — उसे फ़ौरी राहत चाहिए। ऐसे में इन दवाओं को अगर वह सीधे खरीद कर खाता है , तो क्या बुरा भला ?

अब आइए बदल रहे भारतीय समाज पर। विशेषरूप से शहरी जन , जो इंटरनेट पर जानकारियाँ पा सकने में सक्षम हैं या फिर जिनके बच्चे अथवा रिश्तेदार उन्हें पैसिव फीडिंग करते-कर देते हैं। अमुक रोग का अमुक इलाज आ गया ! अमुक दवा हानिकारक पायी गयी ! अमुक दवा तो बैन हो गयी ! आपने अमुक उपचार-पद्धति के बारे में पढ़ा ! लोग जितना समझ पाते हैं , समझते हैं। जितना ग्रहण कर पाते हैं , करते हैं ! इन्हीं ढेरों बातों से बात निकल कर आती है कि दर्दनिवारक नुकसान करती हैं !

मुझे मेरे रोगी इस बारे में कई बार राय देने लगते हैं। उन्हें उपचार चाहिए , लेकिन वे राय अपनी थोप रहे हैं। डॉक्टर साहब , पेनकिलर न लिखिएगा। इलाज करिए। लेकिन पेनकिलर न दीजिए। पहले मैं भड़क जाता है। मूर्खतापूर्ण बातें पढ़े-लिखों के कानों में बहुत चुभती हैं। फिर मनोविज्ञान की समझ शिक्षा को मुलायम कर देती है। शिक्षित कहने वाले के कथन की पड़ताल में लग जाता है। समय मिलता है और सुनने वाला सुनता-मानता है , तो अपनी विज्ञानसम्मत बात रख देता है। रोगी को मानना होता है , तो मानता है। नहीं मानना होता , तो किसी पर ज़बरदस्ती तो न विज्ञान थोपा जा सकता है और न विवेक।

बहुधा ( लेकिन हमेशा नहीं ! ) दर्द पैदा करने में जो रसायन काम करते हैं , वे हैं प्रोस्टाग्लैंडिन। उनके उत्पादन के कारण तरह-तरह के दर्द उठते हैं। सामान्य रूप से जो दवाएँ होती हैं , वे इन्हीं प्रोस्टाग्लैंडिनों के निर्माण को रोकती हैं। नतीजन दर्द ठीक हो जाता है। लेकिन प्रोस्टाग्लैंडिन बनने के कई लाभ भी हैं। वे आमाशय की भीतरी दीवार को अम्ल और एन्ज़ाइम की मार से सुरक्षित रखते हैं और गुर्दों में सुचारु ढंग से मूत्र-निर्माण कराते हैं। नतीजन जिन रोगियों को दर्दनिवारकों के कारण प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ते हैं , वे इन्हीं दो अंगों में बहुधा देखे जाते हैं। 

दर्द-निवारकों को मेडिकल साइंस नॉन-स्टेरॉयडल-एंटीइंफ्लेमेटरी दवाओं के नाम से जानती है। यानी ये स्टेरॉयड-परिवार की सदस्या नहीं हैं , लेकिन इन्फ्लेमेशन का शमन करती हैं। ( स्टेरॉयड-परिवार क्या है और उसके सदस्य कौन-कौन हैं , इनपर बात फिर भी। ) इन्हीं को लघुरूप में एनएसएआइडी भी कहा जाता है।

मैं मरीज़ों से एक ही बात बार-बार कहता हूँ। प्राणवान् चिकित्सा नहीं है, चिकित्सक है। विवेकशील दवा नहीं है, देने वाला है। प्राण और विवेक के आँखें नहीं हैं , वे हितकामी अन्तःप्रेरित अनुमान से चलते हैं। डॉक्टर को भी यथासम्भव प्राणवान् और विवेकशील होना चाहिए : दवा से रोगी को कोई हानि हो जाए , इसकी आशंका बहुत ही कम हो जाएगी।

विवेक ज्ञान के साथ जुड़कर बेहतरीन काम करता है। अज्ञानी विवेकी छोटे हितकारी फ़ैसले ले सकता है , ज्ञानी अविवेकी महादुष्ट और क्रूर हो सकता है। लेकिन ज्ञानी-विवेकी बड़े हितों का साधन करता है , क्योंकि यह उसी के वश में होता है।

मैं अपनी लम्बी बात को यहीं कुछ तथ्यों से साथ विराम देता हूँ : दर्दनिवारक यथासम्भव चिकित्सक के निर्देश से लीजिए। यथासम्भव कम-से-कम दिनों लीजिए। यथासम्भव खाली पेट न लीजिए। डॉक्टर को दर्दनिवारक लिखते समय अन्य दवाओं के बारे में बता दीजिए।

और अन्त में वह सबसे ज़रूरी बात , जिससे यह लेख आरम्भ किया था : दो दर्द-निवारक एनएसएआइडी-दवाएँ एक साथ कभी न खाइए। सुबह-दोपहर-शाम आईबूप्रोफ़ेन के साथ अत्यधिक पीड़ा होने पर भी स्वयं सुबह-शाम डायक्लोफिनेक न लीजिए। इतने तीव्र दर्द में यथाशीघ्र डॉक्टर से मिलिए। एक से अधिक ली गयी नॉन-स्टेरॉयडल-एंटीइंफ्लेमेटरी दवाएँ शरीर के ढेरों अंगों को हानि पहुँचा सकती हैं और मेडिकल-साइंस में ऐसा न करने की स्पष्ट हिदायतें हैं।

दवाएँ उतनी ही बुरी हैं , जितनी बुरी बन्दूकें है। शस्त्र और औषधि का इसीलिए लायसेंस होता है और विवेकशीलता-ज्ञानवत्ता से बड़ा लायसेंस संसार में कोई नहीं।

(पेशे से चिकित्सक (एम.डी.मेडिसिन) डॉ.स्कन्द शुक्ल संवेदनशील कवि और उपन्यासकार भी हैं। लखनऊ में रहते हैं। इन दिनों वे शरीर से लेकर ब्रह्माण्ड तक की तमाम जटिलताओं के वैज्ञानिक कारणों को सरल हिंदी में समझाने का अभियान चला रहे हैं।)