अबोध मत बनिए! इस केस का वास्ता देश के दूसरे सबसे बड़े ताकतवर शख्स से है…



जितेन्द्र कुमार

माफ कीजिए आपलोग। बिना किसी कारण के बहस कर रहे हैं कि जो करना है वह न्यायपालिका को करना है। यह मामला उन चार जजों का तो बिल्कुल ही नहीं है। जजों का मामला कैसे हो गया ये?

क्या सर्वोच्च न्यायालय के चारों वरिष्ठतम जज (जिनमें जस्टिस गगोई भावी प्रधान न्यायधीश हैं) मिश्रा जी से यह कहने गए थे कि शाम के वक्त हमको समौसे क्यों नहीं मिलते हैं जबकि दूसरों को मिल जाता है या फिर आपको मर्सिडीज गाड़ी मिल गयी है और हमको मारूति अल्टो से ऑफिस जाना पड़ता है! वे सभी विद्वान और वरिष्ठतम जज मिश्रा जी को यह कहने गए थे कि जब से आप प्रधान न्यायाधीश बने हैं, उस समय से सत्ताधारी पार्टी से जुड़े लगभग हर गलत मामले में आप घालमेल कर देते हैं और उस पार्टी या पार्टी से जुड़े व्यक्ति को फायदा पहुंचाते हैं। 

इंदिरा जयसिंह जैसी बड़ी व धाकड़ वकील कह रही हैं कि जब भी किसी मामले को लेकर हम सुप्रीम कोर्ट पहुंचते हैं तो मिश्रा जी बोलते हैं -पहले हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाइये, अब जब जस्टिस लोया की हत्या के मामले की सुनवाई बंबई हाइकोर्ट में हो रही है तो उस मामले को किसी प्रोसिजर का पालन किए बगैर तुलनात्मक रूप से कनिष्ठ जज अरुण मिश्रा को दे दिया जाता है। अरुण मिश्रा के बारे में सुप्रीम कोर्ट बार कॉंसिल के पूर्व अध्यक्ष वकील दुष्यंत दवे का कहना है कि दूसरे वाले मिश्रा जी (अरुण मिश्रा) का बीजेपी के साथ संबंध है। 

बातों को घुमाए-फिराए बगैर मैं पूछता हूं कि इस केस का वास्ता किसके साथ है? इस केस का वास्ता प्रधानसेवक नरेन्द्र मोदी के बाद देश के दूसरे सबसे ताकतवार इंसान बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के साथ है। इसलिए इतना भी अबोध मत बनिए और मासुमियत से यह मत कहिए कि मामला न्यायपालिका का है। मामला इस देश के हर इंसान से जुड़ा है, जमीर वाले लोगों से जुड़ा है, उन जमीरवालों से भी जुड़ा है जिसने बीजेपी को वोट दिया था। 

बस, बात समझ में आ रही है तो ठीक, नहीं तो कोई बात नहीं। हां, एक बात और बता दूं। अपने घर में कई बार सुना हूं। जब इंदिरा गांधी ने पांच सीनियर मोस्ट जजों को दरकिनार कर एक जुनियर जज को प्रधान न्यायाधीश बना दिया था तो मेरे पिताजी ने इसका यह कहकर समर्थन किया था-सरकार इंदिरा जी की है, उन्हें ऐसा करने का अधिकार है। वह सरकार के इस ‘कड़क’ फैसले के लिए इंदिरा गांधी को बधाई देने दिल्ली भी आए थे। थोड़े दिनों के बाद इंदिरा जी ने इमरजेंसी लगा दी थी। इंदिरा जी के उस फैसले से पिताजी थोड़ा सा दुखी थे क्योंकि उस वक्त वह यह मानते थे कि राष्ट्र हित में कुछ कड़े फैसले जरूरी हैं। कुछ ही दिनों में उनके अगल-बगल के ढ़ेर सारे लोगों को जेल में डाल दिया गया था जो पूरी तरह निर्दोष थे।उन्होंने इंदिराजी को चिठ्ठी लिखी लेकिन उसका कोई जवाब नहीं आया। कुछ दिनों के बाद एक बार फिर वह इंदिराजी से मिलने दिल्ली आए। इंदिराजी के आवास पर चार दिनों तक बार-बार जाते रहे लेकिन इंदिराजी ने उनसे मिलने से इंकार कर दिया। बहुत दुखी मन से वह गांव वापस लौट आए। सुना है कि एंकात में वह बड़बड़ाते रहते थे-नेहरूजी की बेटी ऐसा कैसे कर सकती हैं! 

इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में उन्होंने इंदिरा गांधी को वोट नहीं दिया,  1984 में भी नहीं, जब बहुसंख्य जनता को लग रहा था कि देश की एकता और अंखडता के लिए कांग्रेस को वोट देना जरूरी है! उन्होंने 1989 में जिंदगी का अंतिम वोट डाला लेकिन इस बार भी उन्होंने कांग्रेस को वोट नहीं दिया था। कारण- वह प्रायश्चित कर रहे थे कि जब जजों को हटाया गया तो उन्हें विरोध करना चाहिए था व इंदिरा गांधी को बधाई देने के लिए दिल्ली नहीं जाना चाहिए था। साथ ही, इमरजेंसी की खिलाफत करके जेल जाना चाहिए था… उनसे दो-दो गलतियां हुई हैं। 

….और हां, वह स्वतंत्रता सेनानी थे जिसने लगभग छह साल ब्रिटिश हुकुमत के दौरान जेल में बितायी थी।