ट्रंप और मोदी को डूबता जहाज कहना ख़ुशफ़हमी है



प्रकाश के रे

राज्यों के चुनाव में स्थानीय मुद्दे भले ज्‍यादा हावी होते हैं और वे नतीज़ों पर भारी असर भी डालते हैं, लेकिन यह कहना ग़लत नहीं होगा कि बीते पाँच सालों में किसी भी स्तर के चुनाव और राजनीति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का व्यक्तित्व और लोकप्रियता, उनकी सरकार के कामकाज तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के सियासी रवैये चर्चा के केंद्र में होते हैं तथा वे नतीज़ों पर ख़ासा असर भी डालते हैं. नवंबर-दिसंबर में चार राज्यों के चुनाव में भी ऐसा ही होना है. नवंबर में ही अमेरिका में मध्यावधि चुनाव होने हैं. वहाँ भी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उनके प्रशासन का कामकाज अहम मुद्दा है. विभिन्न आकलनों से संकेत मिलता है कि भारत और अमेरिका के इस चुनावी दौर के नतीज़े दोनों नेताओं के लिए झटका साबित हो सकते हैं.

 

इसमें कोई दो राय नहीं है कि आर्थिक और सामाजिक पैमाने पर मोदी सरकार का ख़ाता नकारात्मक उपलब्धियों से भरा पड़ा है. उनके चुनावी वादे अभी भी वादे ही हैंं तथा डंके की चोट पर की गयीं कुछ बड़ी पहलों से भी ख़ास हासिल नहीं किया जा सका है. ट्रंप प्रशासन ने हालांकि आर्थिक मोर्चे पर बेहतर काम किया है, किंतु उनके अनेक फ़ैसलों से कारोबारियों और आम जनता में असंतोष भी बढ़ा है. राष्ट्रपति के रवैये पर भी आपत्ति दर्ज की जाती रही है और उनके अनेक क़रीबी सहयोगी आज उनसे अलग हो चुके हैं. क्या सिर्फ़ इस विश्लेषण के सहारे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अब ये डूबते जहाज हैं और इनकी लोकप्रियता या स्वीकार्यता का सूचकांक ढलान पर है, जैसा कि मीडियाविजिल में विकास नारायण राय ने लिखा है? नहीं. ऐसा समझना एक आसान सोच है या फिर लापरवाह निष्कर्ष. यह भी संभव है कि ऐसा मानने वाले लोग अपनी चाहत या इच्छा को कुछ सामान्य आधारों पर सच में तब्दील करने की जल्दबाज़ी में हैं.

 

बीते मई में ‘द वायर’ में अनूप सदानंदन ने एक दिलचस्प लेख लिखा था. इसमें उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी की सियासी अपील को समझने की गंभीर कोशिश की है. उनका कहना है कि ‘मोदी फ़ेनोमेनन’ एक लंबे अरसे से बन रहा था और यह बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कार्यकाल ख़त्म हो जाने के बाद भी जारी रहेगा. सदानंदन का मुख्य तर्क यह है कि आपातकाल के दौर में या बाद में पैदा हुई पीढ़ी राजनीति में पहले की पीढ़ियों की तुलना में अधिक रुचि रखती है तथा टेलीविजन और इंटरनेट के कारण उसके अनुभव अख़बार और रेडियो के ज़रिये होनेवाले अनुभव से अलग हैं. ‘वर्ल्ड वैल्यू सर्वे’ के आँकड़ों के आधार पर उन्होंने यह बात भी कही है कि राजनीतिक दलों और लोकतंत्र में इस पीढ़ी का भरोसा भी कमतर है. ऐसे में एक बाहुबली एकाधिकारवादी नेता की आकांक्षा स्वाभाविक हो, जो देश और जनता के हित में कठोर फ़ैसले लेने का दम रखता हो. इस माहौल में ’56-इंच का सीना’, ‘आँख में आँख डाल कर बात करना’, ‘जवान अब गोली नहीं गिनेंगे’, ‘एक के बदले दस सिर’, ‘काला धन वापस लाना’ जैसी बातें मुहावरा या जुमला भर नहीं रह जाती हैं. वह युवाओं की बड़ी आबादी की चाहत का प्रतीक बन जाती हैं. बीते कल में ‘लौह पुरुष’ लालकृष्ण आडवाणी यह प्रतीक हुआ करते थे, जो आने वाले कल में भी मोदी की जगह कोई शाह या कोई योगी हो सकता है.

 

सदानंदन के इस विश्लेषण को ‘मिंट’ में सितंबर, 2013 में छपे अनिल पद्मनाभन के लेख के साथ रख कर पढ़ें. उस महीने तमिलनाडु के तिरूचिरापल्ली में हुई मोदी की एक रैली में मौजूद एक व्यक्ति के हवाले से उन्होंने लिखा है कि उतनी भीड़ राज्य की तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता को भी सुनने के लिए नहीं जुटी थी, जबकि वह बेहद लोकप्रिय थीं और तमिलनाडु में भाजपा कोई ताक़त नहीं थी. एक दूसरी उल्लेखनीय बात उस व्यक्ति ने यह कही कि उस सभा में पके बालों वाला एक भी आदमी नहीं था. पद्मनाभन ने इससे निष्कर्ष निकाला था कि मोदी अब एक ‘नेशनल फ़ेनोमेनन’ बन गये हैं तथा पार्टी से परे जाकर एक ‘पर्सनालिटी’ हो गये हैं. उस लेख में पद्मनाभन ने छह महीने पहले के अपने एक लेख का हवाला दिया है. तब प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा ने मोदी की उम्मीदवारी की घोषणा नहीं की थी. उसमें इन्होंने कहा था कि मौजूदा माहौल मोदी लहर के लिए पूरी तरह से मुफ़ीद है क्योंकि शासन और सियासत में एक खालीपन है, सत्ता से उद्योग जगत नाख़ुश है, युवाओं में अपनी आकांक्षाओं को पूरा कर पाने के अवसर नहीं हैं तथा देश, ख़ासकर उत्तर भारत में मतदाताओं का ध्रुवीकरण हो रहा है.

 

भ्रष्टाचार और नीतिगत निर्णय लेने में अक्षमता जैसे मुद्दों को लेकर डॉ मनमोहन सिंह की तत्कालीन यूपीए सरकार की जो छवि बनी थी तथा गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की जो छवि- सकारात्मक और नकारात्मक- बनी थी, इन पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है. उन्हें दुहराना या मोदी की प्रचार-शैली या विपक्ष की टूट जैसे बिंदुओं का विस्तृत उल्लेख यहाँ ज़रूरी नहीं है. प्रधानमंत्री बनने से पहले और बतौर प्रधानमंत्री मोदी के ‘फ़ेनोमेनन’ को कुछ हफ़्ते पहले ब्रह्म चेलानी ने भी एक लंबे लेख में विश्लेषित करने की कोशिश की है. वह लेख हद से परे प्रशंसात्मक है. चूँकि हमारे लेख का विषय मोदी सरकार के कामकाज या मोदी की विचारधारा का विश्लेषण नहीं है, इसलिए चेलानी के आकलन को भी ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए ताकि यह समझने में आसानी हो कि आख़िर वे तत्व क्या हैं, जो तमाम असफलताओं के बाद भी मोदी के ‘पर्सनालिटी’ को बनाये रखे हुए हैं. राय जी भी अपने लेख में मुतमईन नहीं हैं कि मोदी ‘डूबता जहाज’ हैं. यही हाल विपक्ष का भी है, जो सरकार की असफलता गिनाने और संगठित तौर पर ज़्यादा जनाधार के बाद भी अपनी जीत को लेकर आश्वस्त नहीं है.

 

इसे समझने में सहूलियत के लिए अमेरिका का रूख करते हैं. साल 2016 में राष्ट्रपति चुनाव की गहमागहमी के बीच माइकल मूर ने एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने उन पाँच कारणों की चर्चा करते हुए डोनाल्ड ट्रंप की जीत की भविष्यवाणी की थी. इससे पहले वह यह भी सटीक भविष्यवाणी कर चुके थे कि ट्रंप को ही रिपब्लिकन पार्टी की उम्मीदवारी हासिल होगी. मूर ने जो पहला कारण बताया था, वह यह था कि अमेरिका के कुछ इलाकों में नाफ्टा जैसे व्यापारिक समझौतों से स्थानीय उद्योगों को भारी नुक़सान हुआ था. हिलेरी क्लिंटन ने ऐसे समझौतों का समर्थन किया था. ट्रंप ने वादा किया था कि वे आयातों पर भारी शुल्क लगायेंगे और अमेरिकी कंपनियों को वापस देश में आने के लिए मजबूर करेंगे. दूसरा कारण श्वेत-श्रेष्ठता की ग्रंथि से ग्रस्त श्वेत पुरुष मतदाताओं का रवैया था. तीसरा कारण हिलेरी क्लिंटन का दागदार राजनीतिक जीवन था जिसकी वज़ह से मतदाताओं में वह बहुत अधिक भरोसेमंद नहीं रह गयी थीं. चौथा कारण बर्नी साण्डर्स के निराश समर्थकों का अवसाद था. पांचवां कारण था अराजक मतदाताओं का ग़ैरज़िम्मेदाराना रवैया. अगर भारत को 2013-14 में देखें, तो अमेरिका से हालात बहुत समान दिखेंगे.

 

मज़े की बात यह है कि राष्ट्रपति ट्रंप की संरक्षणवादी नीतियों से दुनिया में चाहे जो असर पड़ रहा हो, अमेरिकी अर्थव्यवस्था को बड़ी राहत मिली है. डेमोक्रेटिक पार्टी रिपब्लिकन पार्टी और ट्रंप के बरक्स वैकल्पिक राजनीति देने में असफल रही है. क्लिंटन और साण्डर्स की अलग-अलग सोच के बीच तनातनी बनी हुई है. नवंबर के चुनाव के लिए कई जगहों पर पार्टी के भीतर इन दो धाराओं में उम्मीदवारी को लेकर प्रतिद्वंद्विता चली है और अगर मतदान तक इसमें सुधार नहीं होता है, तो रिपब्लिकन पार्टी अपनी कुछ निश्चित हारों को जीत में बदल सकती है. ट्रंप को डूबता जहाज कहने से पहले हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि रिपब्लिकन पार्टी काँग्रेस में और काँग्रेस के बाहर उनके पीछे खड़ी है. उद्योग और वित्तीय जगत उनकी छूटों और दरों से संतुष्ट है. उनके विवादास्पद बयानों और अहंकार को कुछ देर के लिए अलग कर दें, तो आपको रीगन, बुश और ट्रंप में बहुत अंतर नहीं दिखेगा. कई मामलों में तो ट्रंप, क्लिंटन और ओबामा के नज़दीक भी दिखते हैं.

 

भारत में विपक्ष भी कोई नीतिगत विकल्प अभी तक नहीं दे पाया है. विचारधारात्मक स्तर पर भी कोई बड़ी बहस नहीं है. यदि एकजुट विपक्ष 2019 में मोदी और भाजपा को सत्ता से बेदख़ल भी कर देता है, तो उसमें उन्मादी हिंदुत्व को कुछ हद तक रोकने के अलावा और कुछ ठोस कर पाने का एजेण्डा नहीं दिखायी देता है. आख़िरी और अहम बात यह कि ट्रंप और मोदी जैसे धुर-दक्षिणपंथी राजनीति के दुनिया भर में उभार का सबसे बड़ा कारण नव-उदारवाद और वैश्वीकरण की वादाख़िलाफ़ी है. मुनाफ़ाखोर और मतलबी पूँजीवाद के ये पैंतरे सुख-समृद्धि के सपने दिखाते रहे, पर हर जगह ग़ैर-बराबरी बढ़ती ही गयी. उदारवादी विश्लेषकों को यह नहीं भूलना चाहिए कि ट्रंप और मोदी के ज़्यादातर मतदाता समाज और आर्थिकी के निचले पायदान पर खड़े तबके हैं. ये नेता कोई जहाज नहीं हैं, वे तो दरअसल उस जहाजी बेड़े के कप्तान भर हैं जिसके झंडे पर तमाम ब्रांडों और मुद्राओं के चिन्ह सजे हुए हैं. कप्तान की चिंता छोड़ें, इस बेड़े की काट की जुगत सोचें.

 


लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं और विदेश मामलों के जानकार हैं