जेएनयू का मीडिया प्रोपगंडा 16 फरवरी को ही एक्सपोज़ हो जाता अगर…

Mediavigil Desk
ग्राउंड रिपोर्ट Published On :


किसी ने कहा था कि सच जब तक घर से चलता है तब तक झूठ दुनिया का चक्कर लगा कर आ चुका होता है. प्रोपगंडा के इस दौर में इसीलिए सही ख़बरों का प्रसारित होना जितना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी यह भी है कि खबर सही वक़्त पर लोगों तक पहुंचे. पूँजी और मुनाफे पर टिके हमारे समाचार संस्थानों के बीच संसाधनों के अंतर के चलते जो फर्क पैदा होता है, वह न केवल ख़बरों पर असर डालता है बल्कि छोटे संस्थानों के पत्रकारों को उनके सही श्रेय से भी महरूम कर देता है.

कुछ ऐसा ही हुआ है स्टेट टाइम्स के पत्रकार अहमद अली फ़य्याज़ के साथ, जिनकी 16 फरवरी को स्टेट टाइम्स में लिखी खबर पूरे नौ दिन बाद 25 फरवरी को लोगों तक पहुँच सकी जब तक जेएनयू का प्रकरण तकरीबन ठंडा पड़  चुका  था. फ़य्याज़ ने जम्मू और कश्मीर के अखबार स्टेट टाइम्स में जो खबर लिखी थी उसे यहाँ पढ़ा जा सकता है MHA asks DP to spare Jammu & Kashmir students to protect BJP’s possible alliance with PDP

इस खबर में बताया गया था कि जेएनयू में कथित देश विरोधी नारा लगाने वाले कश्मीरी लड़कों को पुलिस इसलिए गिरफ्तार नहीं कर रही क्योंकि उसे गृह मंत्रालय से ”मौखिक आदेश” मिले हैं, जिसकी वजह यह बताई गयी है कि उन लड़कों को गिरफ्तार करने से जम्मू और कश्मीर में पीडीपी के साथ बीजेपी की सरकार बनाने में दिक्कत आ सकती है. यह बात विश्लेषण के तौर पर उसी समय से कही जा रही थी, लेकिन सूत्रों और छात्रों के बयानात के मुताबिक़ एक खबर के आधार पर इसे और पुष्ट किया जा सकता था, यदि यह खबर 16 तारिख को ही ठीक से प्रसारित हो गई होती.

वो तो शुक्र है की दिल्ली के पत्रकार शिवम् विज ने इस खबर के आधार पर huffington post में एक लेख 25 फरवरी को लिख दिया जिसे खूब शेयर किया गया और यह बात लोगों तक तथ्यात्मक रूप से पहुँच सकी, लेकिन तब तक पर्याप्त देर हो चुकी थी. शिवम् विज का लेख यहाँ पढ़ा जा सकता है Why Delhi Police Is Going Soft On Kashmiris Who Actually Raised Anti-India Slogans In JNU

अच्छी बात है की विज ने फ़य्याज़ को उनका बराबर क्रेडिट दिया और स्टेट टाइम्स की मूल खबर से पैरा भी कोट किया है. बुरी बात यह है की उन्होंने ऐसा पूरे नौ दिन बाद किया और ज्यादा बुरी बात यह है कि उन्होंने फ़य्याज़ का ज़िक्र कम से कम दस पैरा के बाद किया है जबकि उनका पूरा आलेख इसी पर आधारित है. इससे समझ में आता है की बड़ी पूँजी और छोटी पूँजी का कितना ज्यादा फर्क सूचनाओं पर होता है. अगर यही खबर huffpost में 16 के आसपास छाप गई होती तो केवल अंदाजा लगाया जा सकता है की दस दिन के भीतर किये गए प्रोपगंडा को कितने असरदार तरीके से रोका जा सकता था.

पहले भी ऐसे मामले सामने आये हैं जहाँ एक छोटे प्रकाशन में छपी खबर को जब बड़े प्रकाशन ने उठाया, तब जाकर वह मुद्दा बन सका. आश्चर्य की बात यह है कि स्टेट टाइम्स की खबर पर और किसी की भी नज़र नहीं पड़ी. इससे यह समझ में आता है की दिल्ली का मीडिया क्षेत्रीय मीडिया को कितना नज़रंदाज़ करता है.