“कथा के मर्म और मूल को छोड़ने पर आपत्ति की गुंजाइश हमेशा रहेगी और यह उचित भी है”



‘पद्मावती’ विवादः पाठ और संदर्भ के अनेक कोण

प्रकाश के. रे

संजय लीला भंसाली की ‘पद्मावती’ को लेकर सामाजिक और राजनीतिक गलियारों में विवाद चरम पर है. वर्तमान परिदृश्य में सुलह और समाधान की कोई राह भी दिखायी नहीं पड़ रही है. कुछ राज्यों के मुख्यमंत्री भी प्रदर्शन के पक्ष में नहीं हैं. राजस्थान के एक समुदाय-विशेष का प्रतिनिधित्व करने का दावा करती करणी सेना जिद्द पर अड़ी हुई है. केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (प्रचलित भाषा में ‘सेंसर बोर्ड’) ने किसी तकनीकी मसले पर फिल्म निर्माता से स्पष्टीकरण मांगा है. उधर निर्माताओं ने विवाद को नरम करने के लिए तीन वरिष्ठ संपादकों को यह फिल्म दिखायी है जो कह रहे हैं कि फिल्म में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है और यह राजपूतों की मर्यादा का बखान करनेवाली फिल्म है. बहरहाल, इस पूरे मामले में हिंसात्मक बयानों और करतूतों की कोई जगह नहीं होनी चाहिए. समस्या का समाधान संवाद या फिर कानूनी प्रक्रियाओं के जरिये करने की कोशिश की जानी चाहिए.

इस मुद्दे ने सिनेमा और समाज के संबंधों तथा कलात्मक स्वतंत्रता के प्रश्न को भी चर्चा में ला दिया है, जिस पर थोड़ा ठहर कर और गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है. ऐसा करते हुए पूर्वाग्रहों और स्थापित मान्यताओं को कुछ देर के लिए किनारे रख दिया जाना चाहिए.

इस वर्ष जनवरी में जब फिल्म की शूटिंग के समय तोड़-फोड़ हुई थी, उस समय निर्माता और निर्देशक की तरफ से कहा गया है कि जिन दृश्यों पर आपत्ति है, उन्हें हटा लिया जायेगा. भंसाली ने भी कहा था कि चित्तौड़ की रानी पद्मावती और दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के साथ कोई दृश्य या गीत नहीं फिल्माया जायेगा. अब प्रश्न यह उठता है कि अगर निर्देशक ने शुरू में ऐसे किसी दृश्य को रखने का विचार किया था, तो उसकी कल्पना का आधार क्या था. अगर ऐसा कोई दृश्य पटकथा में नहीं था, तो फिर वह दृश्य क्या था जिसे हटाने की बात फिल्मकार द्वारा की जा रही है! खैर, इस सवाल को कुछ देर किनारे रख कर यह जानने का प्रयास किया जाये कि प्रचलित कथाओं में इस संदर्भ में क्या कहा गया है.

वर्ष 1303 में खिलजी ने चित्तौड़ की घेराबंदी की थी. इसके करीब ढाई सौ साल बाद 1540 के आसपास सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने अवधी में ‘पदमावत’ महाकाव्य की रचना की थी जो लोक में प्रचलित कथाओं का काव्य-रूप था. फिर 19वीं सदी में जेम्स टोड ने विभिन्न पांडुलिपियों और लोकगीतों के आधार पर मेवाड़ के इतिहास में पद्मिनी को रखा. उसी सदी में बंगाल में रंगलाल बंधोपाध्याय, ज्योतिंद्रनाथ ठाकुर, क्षीरप्रसाद और यज्ञेश्वर बंधोपाध्याय ने पद्मिनी की कथा लिखी. वर्ष 1909 में अबनींद्रनाथ ठाकुर ने भी लिखा. इस कथा को आधार बना कर फ्रांसीसी संगीतकार अल्बर्त रुसेल ने एक ओपेरा भी रच दिया. इन सभी कथा-रूपों में पद्मिनी और खिलजी की मुलाकात का कोई उल्लेख नहीं है. इनमें चित्तौड़ के योद्धाओं की बहादुरी और पद्मिनी के जौहर का विवरण है.

अब अगर आगे साहित्य या किसी अन्य विधा में पद्मिनी की कहानी कही जायेगी, तो तमाम कलात्मक छूट के बावजूद कथा के मर्म और मूल को कैसे छोड़ा जा सकता है. हमारे देश में राम कथा के कई प्रचलित आख्यान हैं और उनमें कई तरह की भिन्नताएं हैं, लेकिन कथा-साहित्य से लेकर लोक मानस में कथा का एक ही मूल ढांचा है जो राम, सीता और रावण के इर्द-गिर्द बना है. उसी तरह से पद्मावती की कथा का एक मूल स्वर है जिससे इतर जाना कतई उचित नहीं कहा जा सकता है. यदि कोई प्रेम कहानी ही दिखानी है, तो फिर ऐतिहासिक या पौराणिक चरित्रों के बहाने की क्या जरूरत है, आप बना लीजिये कोई ‘राम और श्याम’ या कोई ‘सीता और गीता’ या फिर ‘कयामत से कयामत तक’.

और यदि आप सिनेमा के माध्यम से इतिहास के किसी अध्याय का पुनर्पाठ प्रस्तुत करना चाहते हैं, तो फिर कहिये कि आप इतिहास बता रहे हैं. लेकिन इस मुद्दे में तो इतिहास की कोई बात ही नहीं है. एक साधारण प्रेम कथा को इतिहास और लोक गाथा के पात्रों को लेकर चमक-दमक के जरिये दिखाने की कोशिश भर है. ऐसे में विरोध और आपत्ति की संभावना हमेशा रहेगी और यह उचित भी है. कलात्मक छूट का अर्थ है कि आप दृश्य-संयोजन, संवाद, घटनाओं को चुनने-छोड़ने जैसे मामलों में कल्पनाशीलता और विधा की क्षमता का उपयोग करें. मात्र सनसनी या सौंदर्य पैदा करने के उद्देश्य से कथा के मूल तत्वों की अनदेखी वास्तव में कलात्मक बेईमानी है. इससे यह बात भी साबित होती है कि हमारे सिनेमा उद्योग के धुरंधरों को न तो इतिहास की समझ है और न ही समाज और साहित्य की. और यह पहली बार भी नहीं हो रहा है.

पिछले साल आशुतोष गोवारिकर की मोहेंजो दारो और टीनू सुरेश देसाई की रुस्तम आयी थीं. गोवारिकर ने हजारों साल पहले की हड़प्पा सभ्यता में अपनी कहानी को बुना था, तो देसाई ने आधुनिक भारत में 1950 के दशक की एक बहुचर्चित अपराध कथा को परदे पर चित्रित किया था. कथानक, अभिनय और प्रस्तुति को लेकर इन दोनों फिल्मों को जो भी प्रशंसा या आलोचना मिली, वह तो अलग विषय है, परंतु कथा के कालखंड और इतिहास के साथ समुचित न्याय नहीं करने के लिए दोनों की बड़ी निंदा हुई थी. भंसाली की बाजीराव मस्तानी भी इसी श्रेणी में रखी जा सकती है. अब सवाल यह उठता है कि ऐतिहासिक फिल्में या इतिहास की बड़ी घटनाओं या किरदारों पर फिल्म बनाने के मामले में भारतीय सिनेमा, खासकर मुंबई से चलनेवाला हिंदी सिनेमा इतना स्तरहीन और पिछड़ा क्यों है. आप एक फिल्म का नाम नहीं बता सकते हैं जो ठोस रूप से इतिहास या किसी महान चरित्र पर आधारित हो. इस मामले में उल्लेखनीय नाम चेतन आनंद की हकीकत (1964) और एस राम शर्मा की शहीद (1965) ही याद आ पाते हैं. बॉर्डर (जेपी दत्ता, 1997) भी एक उम्दा फिल्म थी और उसने एक बटालियन की कहानी बहुत मर्मस्पर्शी ढंग से पेश किया था.

ऐसा तब है जब पौराणिक कथाएं, ऐतिहासिक घटनाएं और लोक में प्रचलित कहानियां प्रारंभ से ही भारतीय सिनेमा की सबसे पसंदीदा विषय रही हैं. पहली हिंदुस्तानी फिल्म राजा हरिश्चंद्र (दादासाहेब फाल्के, 1913), पहली बोलती फिल्म आलमआरा (आर्देशिर ईरानी, 1931), सबसे लोकप्रिय फिल्में मीरा (एलिस आर डुंगन, 1845/47) मुगल-ए-आजम (के आसिफ, 1960), शहीद (एस राम शर्मा, 1965), लगान (आशुतोष गोवारिकर, 2001), बाहुबली (एसएस राजामौली, 2015) आदि इन्हीं श्रेणियों की फिल्में हैं.

मोहेंजो दारो की सबसे बड़ी आलोचना यह हुई कि फिल्मकार ने सिंधु घाटी सभ्यता के ज्ञात तथ्यों की घोर उपेक्षा की है. रुस्तम में मूल कहानी में फेर-बदल का आरोप लगा. वैसे ताजा कहानियों पर फिल्में बनाना जोखिम का काम है क्योंकि संबंधित लोग आपको अदालत तक ले जा सकते हैं और आपको हर्जाना भरना पड़ सकता है. लेकिन यह मुश्किल गोवारिकर के साथ नहीं थी तथा फिल्म और उसके प्रचार को देख कर कहा जा सकता है कि उनके पास न तो बजट की कमी थी और न ही इतिहास की समुचित प्रस्तुति के लिए आवश्यक प्रतिभा की. आशुतोष गोवारिकर ने ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लगान और जोधा-अकबर (2008) जैसी फिल्में भी बनायी हैं.

इन फिल्मों और अन्य ऐसी फिल्मों पर नजर दौड़ायें, तो निष्कर्ष यही निकलता है कि इतिहास के नाम पर बननेवाली हिंदी फिल्मों को ‘पीरियड’ फिल्में यानी किसी विशेष काल खंड की कथावस्तु पर बनी फिल्में कहना ठीक नहीं होगा. ये फिल्में बस कॉस्ट्यूम ड्रामा हैं जो नौटंकी परंपरा का विस्तार हैं. मीरा, शहीद, बॉर्डर या हकीकत इसलिए उल्लेखनीय बन जाते हैं क्योंकि वे खास चरित्र या घटना तक सीमित हैं जिनको लेकर फिल्मकार ईमानदार रहे.

मुगले-आजम को देखकर आप एक शानदार प्रेम कहानी और सिनेमाई भव्यता के साथ उत्कृष्ट अभिनय और पटकथा का आनंद ले सकते हैं, पर उससे अकबर या सलीम या उनके दरबार या उस दौर के बारे में आपकी समझ में कोई विस्तार नहीं होता है. वह कहानी कभी भी और किसी दौर की पृष्ठभूमि में बनायी जा सकती थी. वास्तव में, ऐसी सैकड़ों फिल्में बनी भी हैं. यही हाल जोधा-अकबर का है. सिर्फ किरदार मुगलिया इतिहास से लिये गये हैं, इतिहास नहीं.

लेख टंडन की आम्रपाली (1966) अजातशत्रु के दौर के बारे में कोई सूचना नहीं दे पाती. कहा जा सकता है कि कहानी के केंद्र में कुछ चरित्र हैं और यह जरूरी नहीं है कि सारा इतिहास फिल्मकार दिखाये. लेकिन असलियत यह है कि सिर्फ कहानी को आकर्षक बनाने के लिए इतिहास को पृष्ठभूमि के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, पर उसके संदर्भों को हटा कर.

यह सब वैसा ही है जैसे किसी दौर में फोटो स्टूडियो में लोग ऐतिहासिक इमारतों या पहाड़ों की पृष्ठभूमि में फोटो खींचवाया करते थे. अशोका (संतोष सिवन, 2001) और बाजीराव मस्तानी (संजय लीला भंसाली, 2015) इसी श्रेणी की फिल्में है जो भव्यता परोस कर इतिहास को भ्रष्ट कर जाती हैं.

मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि बॉलीवुड को ऐतिहासिक फिल्में बनाना ही चाहिए या किसी ऐसी फिल्म को ढेर सारी जानकारियों से बोझिल बना देना चाहिए. मेरा आग्रह बस इतना है कि साधारण प्रेम कहानियों के लिए इतिहास के नाम पर महंगे सेट और पोशाक बनाना समझदारी नहीं है.

ऐसे में हातिमताई (बाबू भाई मिस्त्री, 1990) और बाहुबली जैसी फिल्में मोहेंजो दारो या मुगले-आजम से अधिक ईमानदार फिल्में हैं जो दर्शकों को एक अनजाने मिथकीय वातावरण में ले जाकर मनोरंजन प्रदान करती हैं और किसी इतिहास का प्रतिनिधि होने का ढोंग भी नहीं रचती. अब जब तकनीक है, दर्शक हैं, धन है, उम्मीद करनी चाहिए कि हमारे फिल्मकार इतिहास को लेकर अधिक संवेदनशील होंगे और विगत को ईमानदारी से पेश करने का जोखिम उठायेंगे.

भंसाली विवाद के कुछ बिंदुओं को देख कर यह भी लगता है कि सस्ता प्रचार पाने के लिए शुरू से ही कुछ विवादास्पद करने की कवायद हुई. आखिर जनवरी में करणी सेना को कैसे पता चला कि फिल्म में ऐसे कुछ दृश्य हैं! मान लिया जाये कि कहीं से उन्हें भनक लग गयी, तो उसी समय विवाद निपटाने के प्रयास क्यों नहीं हुए, जो अब निर्माताओं की ओर से किये जा रहे हैं? और उपाय भी कम अजीबो-गरीब नहीं हैं. भंसाली और निर्माता ने यह फिल्म तीन नामचीन संपादकों को दिखायी जो अपने-अपने चैनलों और लेखों में कह रहे हैं कि फिल्म राजपूतों के गौरव का बखान करती है और यह अच्छी फिल्म है. अब यह फिल्म समीक्षा है या फिर प्रचार का नया तरीका? आखिर इन्हीं तीन को क्यों और किस आधार पर चुना गया? अगर दिखाना ही था, तो पत्रकार विभिन्न चैनलों, अखबारों और वेब साइटों पर फिल्म समीक्षा लिखते हैं, उन्हें क्यों नहीं दिखाया गया? सेंसर बोर्ड के पास विचाराधीन फिल्म को तीन बड़े पत्रकारों को दिखाना कोई साधारण बात नहीं है जिसकी अनदेखी कर देनी चाहिए. पूरा मसला फिल्म और उसके कथानक के दायरे से दूर निकल चुका है.


लेखक पेशे से पत्रकार हैं और सिनेमा के गंभीर अध्‍येता, फिल्‍मकार बीआर चोपड़ा पर किताब लिख चुके हैं और उनकी पीएचडी वी शांताराम पर है।