क्यों न सिसोदिया को राम मंदिर हल का दायित्व देकर देखा जाए !



विष्णु राजगढ़िया


राम मंदिर का आसान हल निकल सकता है। कई बार बड़ी समस्याओं का आसान हल निकल आता है। चमत्कार भी होते हैं। जरूरी यह है कि हम किसी नए प्रयोग के लिए तैयार हों।
राम जन्मभूमि का मामला भारतीय समाज और राजनीति के लिए गंभीर संकट का विषय बन चुका है। अब दिल्ली के डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया ने एक नया प्रस्ताव देकर इसके आसान हल का रास्ता निकाल दिया। केंद्र सरकार अगर एक बड़ा प्रयोग करते हुए उन्हें राम मंदिर मामले का विशेष दायित्व सौंप दे, तो देश की राजनीति में बड़ा बदलाव आ सकता है।
मनीष सिसोदिया ने ‘आज तक’ के कार्यक्रम ‘हमलोग’ में कहा-
“अगर दोनों पक्ष राजी हों, तो उस जगह एक बड़ी यूनिवर्सिटी बना दी जाए। उसमें हिंदू बच्चे भी पढ़ें, मुस्लिम बच्चे भी पढ़ें। देश और दुनिया के बच्चे पढ़ें। इससे श्रीराम का संदेश दुनिया भर में फैलेगा। बच्चों को पढ़ाने से ही रामराज्य आएगा।”
मनीष सिसोदिया ने यह बात यूं ही नहीं कह दी है। दिल्ली में उन्होंने शिक्षा को लेकर अद्भुत प्रयोग किए हैं। देश की राजनीति में ऐसा पहली बार हुआ है, जब किसी सरकार ने स्कूल-अस्पताल जैसे मुद्दों को अपनी प्राथमिकता बनाया। विकास के बूते राजनीति सपना देखकर आम आदमी पार्टी ने देश की परंपरागत राजनीति को बड़ी चुनौती दी है।
तीन दशकों से भारतीय समाज और राजनीति को गहरे संकट में डालने वाले अयोध्या विवाद का सकारात्मक हल होना बड़ा संकेत होगा। इससे सांप्रदायिकता का जहर खत्म करने का रास्ता खुलेगा। शिक्षा को प्राथमिकता के संदेश का दूरगामी प्रभाव होगा।
लेकिन क्या यह संभव है? क्या केंद्र सरकार ऐसे किसी प्रयोग के लिए मनीष सिसोदिया को विशेष दायित्व दे सकती है? वह आम आदमी पार्टी से हैं, जिसके साथ केंद्र का 36 का आंकड़ा है। लेकिन देशहित में ऐसे रिश्तों को सुधारना मुश्किल काम नहीं।
ध्यान रहे कि पूर्व में अरविंद केजरीवाल ने केंद्र से सकारात्मक रिश्ते की पेशकश की थी।  वर्ष 2015 में 67 सीटों की ऐतिहासिक जीत के बाद अरविंद केजरीवाल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा था। इसमें राजधानी के विकास में सकारात्मक सहयोग का आग्रह था ताकि दिल्ली ही नहीं, देश का नाम हो। लेकिन कारण जो भी हो, दिल्ली की विकास योजना में केंद्र की बाधाओं और खासकर एलजी की प्रेतबाधा से सब वाकिफ हैं।
इस कटु सत्य के बावजूद राम मंदिर हल का दायित्व मनीष सिसोदिया को सौंपकर देश को एक बड़े संकट से निकाला जा सकता है।
यह कोई अजूबा नहीं होगा। याद करें, देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने विपक्ष के सांसद अटल बिहारी वाजपेयी को संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए भेजा था। वैसा प्रयोग आज इस मामले में संभव है। राजनीतिक दलों की अपनी प्राथमिकता होती हैं। लेकिन देशहित में सबको एक मंच पर आना चाहिए। जवाहरलाल नेहरू ने अपनी उदारता और सबको समाहित करते हुए सबका साथ लेने की सोच के तहत वाजपेयी जी को यूएनओ भेजा था। अब तो मोदी सरकार का नारा भी है ‘सबका साथ, सबका विकास।’
मनीष सिसोदिया ने देश में शिक्षा के प्रति एक नई और व्यापक सोच की नींव रखी है। पिछले दिनों मुंबई में प्रिंसिपल्स को एक एक संस्था ने वक्ता के तौर पर उन्हें बुलाया था। उस समारोह में श्री सिसोदिया का वक्तव्य अविस्मरणीय है। उन्होंने शिक्षा के मूलभूत दायित्व पर विस्तार से प्रकाश डाला। बताया कि मास्को के एक सम्मेलन में जब शिक्षा मंत्रियों के बीच उन्हें बोलने का अवसर मिला तो उन्होंने क्या कहा। बोले-
“मैं मास्को के शिक्षा सम्मेलन में गया। 45 देशों के शिक्षा मंत्री बता रहे थे कि उन्होंने स्कूलों में कैसी नई तकनीक लाई। मैंने कहा- यह मत बताइये कि बाजार को किस तरह स्कूल में पहुँचाया। बल्कि क्या हम दुनिया को यह भरोसा दिला सकते हैं कि शिक्षा के माध्यम से युद्ध, हिंसा और प्रदूषण को ख़त्म कर दें। दुनिया ने बहुत से प्रोटोकॉल बना लिए, लेकिन हिंसा ख़त्म नहीं हुई। हम शिक्षा के जरिये ऐसे इंसान बनाएं, जो हिंसा के खिलाफ हों।”
शिक्षा को इतनी ऊंचाई से देखने और शिक्षा की शक्ति पर ऐसे भरोसे का उदाहरण भारतीय राजनीति में पहली बार दिखा है।
हाल के दिनों में शिक्षा पर ऐसी व्यापक सोच वाला शायद ही किसी राजनेता ने दिखाई हो। मोदी सरकार में मानव संसाधन मंत्री बनी स्मृति ईरानी ने शिक्षा पर हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न की। उन्हें हटाया गया। उनके बाद आए प्रकाश जावड़ेकर भी कोई गंभीर भूमिका निभाने में नाकाम रहे। उल्टे उन्होंने शिक्षकों को कटोरा लेकर भीख मांगने जैसे अपमानजनक वक्तव्य अथवा अंबानी की अदृश्य जियो यूनिवर्सिटी को सेंटर ऑफ एक्सीलेंस का तमगा देकर अगंभीरता का परिचय दिया।
ऐसे में देश की राजधानी के एक छोटे राज्य का शिक्षा मंत्री अगर कोई बड़ा संदेश दे रहा हो, तो उसे अवश्य सुना जाना चाहिए।
नरेंद्र मोदी ने अपने जीवन में सब कुछ पा लिया है। एक सामान्य कार्यकर्ता से मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक का सफर तय कर लिया। अब अगर वह संकीर्ण राजनीति से उठकर व्यापक सोच दिखाएं। ‘सबका साथ सबका विकास’ कोई जुमला नहीं, हकीकत बने। मनीष सिसोदिया को राम मंदिर के हल का विशेष दायित्व सौंपकर बड़प्पन दिखाएं।

संभव है, इस चौंकानेवाले कदम से देश की आत्मा जागृत हो तथा उदार जनमत के सामने दोनों पक्ष के उन्मादी तत्वों को झुकना पड़े। संभव है, अयोध्या में एक ऐसी यूनिवर्सिटी सचमुच बन जाए, जिसे दुनिया देखे। यह भाईचारे का प्रतीक होगी। श्रीराम, जानकी और हनुमान भी प्रसन्न होंगे। उन्हें किसी छत की नहीं, अपने बच्चों की शिक्षा और उन्नति की ज्यादा जरूरत है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। राँची में रहते हैं।