बहस: क्या ब्राह्मण ही हो सकते हैं ‘ब्राह्मणवादी’ या फिर यह रोग दूसरों में भी है?



 

यूँ तो सोशल मीडिया पर बहुत आँय-बाँय होता है, लेकिन कई बार कुछ ऐसी ज़रूरी बहसें भी नज़र आती हैं जिनसे यूँ कथित मुख्यधारा मीडिया मुँह चुराता है। गौतम बुद्ध से लेकर डॉ.आंबेडकर तक ने ब्राह्मणवाद  के ख़िलाफ़ संघर्ष किया, लेकिन भारत को वास्तव में एक आधुनिक राष्ट्र बनाने की राह के इस सबसे बड़े रोड़े पर कोई चर्चा किसी अख़बार या चैनल पर नज़र नहीं आती।

बहरहाल सोशल मीडिया में एक गंभीर चर्चा हो रही है। मुद्दा है कि ब्राह्मणवादी क्या ब्राह्मण जाति से बाहर पैदा हुए लोग भी हो सकते हैं? बहस शुरु हुई, वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल की फे़सुबक टिप्पणी से। वे मानते हैं कि सिर्फ़ ब्राह्मण ही ब्राह्मणवादी हो सकता है। उन्होंने  बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक रहे, प्रोफ़ेसर चौथीराम यादव की पोस्ट पर टिप्पणी की-

“बाकी जातियों को ब्राह्मणों ने जातिवाद सिखाया है, इसलिए वे जातियां जातिवादी तो हो सकती हैं, लेकिन ब्राह्मणवादी होने के लिए ब्राह्मण होना जरूरी है”

 

प्रो.चौथीराम यादव ने इसका प्रतिवाद करते हुए नई पोस्ट लिखी–

 

Dilip C Mandal जी! मेरी पोस्ट पर आपने जो असहमति जतायी है उसे समझदार असहमति मानते हुए मैं उसका स्वागत करता हूँ।ब्राह्मणवाद मेरी समझ से वर्ण-जाति भेद और लिंग-भेद के आधार पर सामाजिक भेदभाव पैदा करने वाली एक विषाक्त विचारधारा है। यह सही है कि इसके संस्थापक ब्राह्मण रहे हैं तो इस अमानवीय व्यवस्था का विरोध करने वाले भी ब्राह्मण ही रहे हैं। शूद्र-अतिशूद्र को तो पढ़ने का अधिकार ही कहां था। जितनी पुरानी यह जाति व्यवस्था है उतनी ही पुरानी उसके विरोध की परम्परा भी है।

श्रेष्ठता-बोध इसका अहम पहलू है और आपके अनुसार यह केवल ब्राह्मण में होता दूसरी जातियां ब्राह्मणवादी नहीं हो सकतीं। क्या सचमुच दूसरी जातियों में श्रेष्ठता बोध का घोर अभाव होता है? क्या क्षत्रिय अपने से निचले वर्ण की जातियों पर अपनी श्रेष्ठता का मिथ्या दम्भ नहीं भरता?क्या पिछड़े वर्ग की सबल जातियां सवर्णों की तरह ही दलित उत्पीड़न नहीं करतीं? और तो और दलित समुदाय का बाल्मीकि जाटव कोअपने समुदाय का ब्राह्मण महसूस कर अछूतों में भी अछूत क्यों महसूस करता है? श्रेष्ठता का यही मिथ्या दम्भ ब्राह्मणवाद है जो कमोवेश हर जाति समुदायों में पाया जाता है, हाँ सवर्ण जातियों में उसका वर्चस्व है,ऐसा मैं समझता हूँ।

आज जब समय की मांग के अनुसार पिछड़ी,दलित जातियां एकजुट होकर बहुजन समाज बनाने की दिशा में अग्रसर हो रही हैं तो अपने श्रेष्ठता के अंतर्विरोधों को भी भुलाने की कोशिश कर रही हैं जो एकजुटता के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।अपनी कमियों और कमजोरियों पर पर्दा डालकर नहीं,उनसे मुक्त होकर ही एकजुटता सम्भव है।

मैं इसी रास्ते सोचता हूँ।जातियों के सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक ज्ञान की जितनी अधिक जानकारी आपको है,उतनी मुझे नहीं।मेरा सीमित ज्ञान सामाजिक जीवन के अनुभव तथा व्यावहारिक ज्ञान तक ही सीमित है।इस क्षेत्र में आपसे बहुत कुछ सीखना बाकी है!!

 

लेकिन दिलीप मंडल के हिसाब से प्रो.यादव की यह स्थापना कमज़ोर है। उन्होंने इसका विस्तार से जवाब देते हुए लिखा-

 

प्रो. Chauthi Ram Yadav की तथ्य और तर्क की दृष्टि से एक कमजोर स्थापना है कि किसी भी जाति के लोग ब्राह्मणवादी हो सकते हैं.

प्रो. यादव की टिप्पणी पर मेरा जवाब:

ब्राह्मणवाद सिर्फ ब्राह्मणों की बीमारी है, इस बात के समर्थन में मैं निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत कर रहा हूं.

1. जाति ब्राह्मणों ने बनाई है. इस बात को प्रो. चौथीराम यादव अपनी टिप्पणी में स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हैं. यह बात सबसे तार्किक तरीके से बाबा साहेब ने 1918 में कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पेश अपने रिसर्च पेपप “कास्ट्स इन इंडिया” में लिखा है. उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि जाति ब्राह्मों की बनाई हुई संस्था है. विस्तार से वहां पढ़ें.

2. जब सभी मानते हैं कि जाति ब्राह्मणों ने बनाई है तो यह भी मानना होगा कि इसकी संरचनाएं, कौन ऊपर होगा और कौन नीचे, किसकी किससे शादी नहीं होगी और किससे होगी, कौन किसको छू सकता है, कौन किसको नहीं छू सकता, ये सारे विधान भी ब्राह्मणों ने बनाए हैं और खुद को पूरी व्यवस्था के शिखर पर बिठा लिया है. साथ ही जाति को उन्होंने जन्मगत बनाया है ताकि पीढ़ी दर पीढ़ी यह चलती रहे.

3. चूंकि जाति ब्राह्मणों ने बनाई है और मेहनतकश और कारीगर जातियों तथा तथाकथित नीच काम करने वालों को व्यवस्था में नीचे टिका दिया है. लेकिन उनमें एकता होने की स्थिति मे पूरी जाति व्यवस्था टूट जाएगी, इसलिए ऐसा इंतजाम किया है कि हर जाति के ऊपर और नीचे कोई जाति हो और हर जाति दूसरी जाति से नफरत करे. बाबा साहेब इस व्यवस्था को ब्राह्मणों की बनाई “Graded Inequality” यानी क्रमिक ऊंच-नीच कहते हैं.

4. चौथीराम यादव जी जिसे नीचे की जातियों में व्याप्त ब्राह्मणवाद कह रहे हैं, वह ब्राह्मणों की बनाई “Graded Inequality” है. हम ब्राह्मणों की बनाई व्यवस्था के कारण एक दूसरे से नफरत करते हैं. यह बुरी बात हमें ब्राह्मणों ने सिखाई है.

5. “बाकी सभी जातियां ब्राह्मणवाद की शिकार हैं. वे ब्राह्मणवादी हो ही नहीं सकतीं.”

11. बाकी जातियों को औकात में रहना चाहिए. वे ब्राह्मणों की फैलाई बीमार के मासूम शिकार हैं. वे जातिवादी हो सकते हैं. यूं तो वे खुद को ब्राह्मणवादी भी कह सकते हैं. लेकिन खुद को हम सिकंदर मान लें तो बन थोड़ी न जाएंगे. तिवाद खत्म हुआ या कमजोर पड़ा? मुझे संदेह है.

7. यहां मैं एक बार फिर बाबा साहेब को कोट करना चाहूूंगा और इस बार किताब है – एनिहिलेशन ऑफ कास्ट. इस किताब में बाबा साहेब साफ तौर पर कहते हैं कि “पोंगापंथी ब्राह्मण और प्रगतिशील ब्राह्मण एक ही शरीर की दो भुजाएं हैं. एक पर खतरा होने पर दूसरा हाथ सामने आ जाता है.”

8. बाबा साहेब नहीं मानते कि ब्राह्मण कभी भी जाति व्यवस्था की विनाश करना चाहेगा, क्योंकि उसने शेष हिंदू समाज को नियंत्रित कर रखा है. बाबा साहेब लिखते हैं कि – ब्राह्मण जाति व्यवस्था में सुधार का विरोधी है. वे कहते हैं कि भारत में बुद्धिजीवी वर्ग ब्राह्मण ही है और चूंकि वह जाति व्यवस्था के खिलाफ नहीं है. इसलिए इस बात में शक है कि भारत में जातिव्यवस्था खत्म करने का आंदोलन सफल हो पाएगा.”

9. प्रोफेसर यादव अगर यह सोचते हैं कि ब्राह्मणों का प्रगतिशील तबका जातिवाद के खिलाफ संघर्ष में आगे चलेगा, तो उन्हें इसका कारण बताना चाहिए कि वे ऐसा क्यों सोचते हैं.

10. अन्य जातियों और ब्राह्मणों के जातिवादी होने में फर्क है. बाकी हर जाति के ऊपर एक जाति है. ब्राह्मण खुद को धरती का भगवान मानता है और खुद को भूदेव कहता है. यह जलवा और किसी का नहीं है.

11. बाकी जातियों को औकात में रहना चाहिए. वे ब्राह्मणों की फैलाई बीमार के मासूम शिकार हैं. वे जातिवादी हो सकते हैं. एक दूसरे से नफरत कर सकते हैं.

12. यूं तो वे खुद को ब्राह्मणवादी भी कह सकते हैं. लेकिन खुद को हम सिकंदर मान लेने से बन थोड़ी न जाएंगे.

– दिलीप मंडल
ब्राह्मण मामलों के विशेषज्ञ

 

ज़ाहिर है, दोनों पक्ष अपनी बात मज़बूती से लिख रहे हैं। लेकिन सोशल मीडिया की प्रकृति के मुताबिक तमाम अगंभीर टिप्पणियाँ भी की जा रही हैं। फिर भी इस बात को चिन्हित करना चाहिए कि सोशल मीडिया को उन मुद्दों पर गंभीर विमर्श का मंच बनाया जा सकता है, जिसे कॉरपोट मीडिया पर्दे में रखना चाहता है।

वरिष्ठ हिंदी आलोचक वीरेंद्र यादव ने भी दिलीप मंडल की टिप्पणी पर टिप्पणी की है। पढ़िए-

Virendra Yadav तो क्या किन्हीं भी परिस्थितियों में ब्राह्मण जाति में जन्मे किसी भी व्यक्ति का डिकास्ट होना या ब्राह्मणवाद विरोधी होना संभव नहीं है ? राहुल सांकृत्यायन , भगवतशरण उपाध्याय, बाबा नागार्जुन सरीखों के लेखन और चिंतन का आकलन कैसे किया जाएगा ? लखनऊ के पास के स्वाधीनता पूर्व के एक लेखक थे बलभद्र दीक्षित ‘पढीस’ उन्होंने जमकर ब्राह्मणवाद विरोधी लेखन तो किया ही स्वयं हल जोतकर ब्राह्मण पवित्रता का उपहास भी किया था । यही करते हुए उनके पैरों में हल की फाल लगने से टिटनेस के कारण उनकी मृत्यु भी हुई। उनकी रचनावली में एक कहानी ‘चमार भाई’ शीर्षक से प्रकाशित है जिसमें ब्राह्मणवाद पर कटाक्ष और दलित श्रम की महिमा का बखान है।