भारत-इज़रायल की ‘स्‍वर्ग में बनी जोड़ी’ का सच: भाग दो



अभिषेक श्रीवास्‍तव

पहले अध्‍याय में मैंने बताया था कि कैसे दुनिया भर के मीडिया पर यहूदियों का ‘कब्‍ज़ा’ है। इस पर कुछ प्रतिक्रियाएं आईं और उनमें ‘कब्‍ज़ा’ शब्‍द पर आपत्ति जतायी गई। कुछ पाठकों ने कहा कि ‘मेरिट’ के आधार पर ही यहूदियों का दुनिया भर के बौद्धिक संसाधनों पर ‘कब्‍ज़ा’ रहा है। कुछ लोगों ने मार्क्‍स से लेकर फ्रायड तक तमाम यहूदी विद्वानों का नाम गिनवाते हुए इस बात की ओर ध्‍यान दिलाया कि यहूदी नस्‍ल में कुछ तो ऐसा ख़ास है कि वे इतने मेधावी होते हैं। कल ही किसी ने ओशो रजनीश का कथन भी याद दिलाया कि वे यहूदियों को भारत का ब्राह्मण कहते थे। इस अध्‍याय में इसी बात को आगे बढ़ाते हैं कि आखिर ये नस्‍ल की शुद्धता या ‘मेरिट’ वाला विचार कैसे भारत के ‘पहले’ प्रधनमंत्री की इज़रायल यात्रा से जाकर जुड़ता है।

यहूदियों और ब्राह्मणों के डीएनए के बीच नस्‍ल की समानता स्‍थापित करने वाले 2001 के विवादित जीनोम अध्‍ययन से बहुत पहले राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक गुरु गोलवलकर ने ”वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड” में लिखा था:

”भारत में रहने वाली विदेशी नस्‍लों को या तो हिंदू संस्‍कृति और भाषा अपना लेनी चाहिए, हिंदू धर्म का सम्‍मान करना सीखना चाहिए, हिंदू नस्‍ल और संस्‍कृति यानी हिंदू राष्‍ट्र के गौरवगान के अलावा और किसी भी विचार को जगह नहीं देनी चाहिए और उन्‍हें अपना स्‍वतंत्र अस्तित्‍व त्‍यागकर हिंदू नस्‍ल में समाहित हो जाना चाहिए या फिर हिंदू राष्‍ट्र के पूर्णत: अधीन होकर देश में निवास करना चाहिए, कोई दावा, कोई लाभ, कुछ भी मांग नहीं करनी चाहिए, कोई तरजीही बरताव की उम्‍मीद नहीं करनी चाहिए- यहां तक कि नागरिक अधिकारों की मांग भी नहीं करनी चाहिए। उनके लिए और कोई रास्‍ता नहीं है। हम प्राचीन राष्‍ट्र हैं इसलिए जिस तरह प्राचीन राष्‍ट्र विदेशी नस्‍लों के साथ किया करते हैं, हमें भी वैसे ही उनसे बरताव करना होगा जिन्‍होंने हमारे देश में रहने को चुना है।”

गोलवलकर ने लैब में डीएनए का कोई परीक्षण नहीं किया था जो इस निष्‍कर्ष पर पहुंचे। यह नस्‍लवादी विचारधारा से निकले निष्‍कर्ष हैं जो यहूदियों की तर्ज पर हिंदुओं की सभ्‍यतागत श्रेष्‍ठता को स्‍थापित करते हैं। बेन गुरियन हवाई अड्डे पर जब सारे प्रोटोकॉल ध्‍वस्‍त करते हुए इज़रायली प्रधानमंत्री नेतन्‍याहू भारत के अपने समकक्ष मोदी को लेने के लिए आए, तो दोनों की रक्‍त-शिराओं में यही नस्‍लवादी श्रेष्‍ठता ज़ोर मार रही थी। कुछ दिनों पहले इज़रायली संसद ने एक बिल पारित किया है जिसमें इज़रायल को ”यहूदी लोगों का राष्‍ट्रीय घर” घोषित किया गया है। इज़रायल के केंद्रीय आंकड़ा ब्‍यूरो की मानें तो 2013 में यहां अरब आबादी अनुमानत: 1,658,000 थी जो देश की कुल आबादी का 20.7 फीसदी बनता है। बिल पारित हो जाने के बाद इतनी बड़ी आबादी यहूदियों के राष्‍ट्रीय घर में दूसरे दरजे की नागरिक बनकर रह गई है। इसका मतलब यह है कि मोदी जिस देश की यात्रा पर गए हैं, वहां गोलवलकर का विचार साकार हो चुका है। आरएसएस का सपना ज़मीन पर उतर चुका है। ज़ाहिर है, फिर बार-बार गले मिलना और एक-दूसरे को ‘मेरे दोस्‍त’ कहने की एक ठोस विचारधारात्‍मक ज़मीन है, यह अभिनंदन हवा में नहीं किया जा रहा।

मोदी जिस इज़रायल की यात्रा पर गए, उसकी ज़मीन सात लाख मूलनिवासियों के सफाये का खून सोख चुकी है। यह योरोपवासी यहूदियों की अस्तित्‍ववादी उत्‍तेजना से पैदा हुई प्रभुत्‍ववादी नस्‍ली विचारधारा का कमाल है। ध्यान दें कि मोदी फलस्‍तीनी अथॉरिटी के मुख्‍यालय रामल्‍ला नहीं गए। यह भारत के मुसलमानों को दिया गया एक परोक्ष संदेश है। इसकी वैचारिक जड़ें भारत के आज़ादी के आंदोलन में छुपी हुई हैं जब नागपुर के कुछ ब्राह्मणों की अस्तित्‍वगत उत्‍त्‍ेजना ने आरएसएस को पैदा किया था। आरएसएस चाहता था कि अंग्रेज़ों से आज़ाद होने के बाद भारत में उच्‍च जातियों का प्रभुत्‍व स्‍थापित रहे। उसका एजेंडा भारत को हिंदू राष्‍ट्र बनाना था जिसकी वैचारिक बुनियाद में मनुस्‍मृति होती। महात्‍मा गांधी इस हिंदू राष्‍ट्र की राह का रोड़ा थे। देश आज़ाद हुआ, लेकिन उसने सावरकर के रास्‍ते को चुनने के बजाय गांधी का हिंद स्‍वराज चुन लिया। अपने जन्‍म के बाईसवें साल में जो निवाला मुंह तक आते-आते रह गया, आज संघ उसे ही वापस पाने के लिए बेचैन है क्‍योंकि बीते तीन साल से उसकी अपनी सरकार पूरे बहुमत के साथ भारत में है। मोदी की यात्रा को यहां से देखा जाना चाहिए।

याद करें जब डरबन में नस्‍लवाद के खिलाफ विश्‍व सम्‍मेलन में ब्राह्मणवाद (जातिवाद) और यहूदीवाद को नस्‍लवाद ठहराने की कोशिश की गई थी तो ब्राह्मणों और यहूदियों ने इसके खिलाफ हाथ मिला लिए थे। यह केवल एक उदाहरण है वरना 1857 से लेकर अब तक लगातार नस्‍ली आधार पर ब्राह्मणों का वर्चस्‍व कायम करने के लिए कवायदें होती रही हैं। इस लिहाज से ब्राह्मणवाद और यहूदीवाद एक ही सिक्‍के के दो पहलू हैं। हम अगले अध्‍यायों में उन कदमों को गिनवाएंगे जो इस बात को साबित करेंगे कि नस्‍ली शुद्धता और प्रभुत्‍व के आधार पर भारत और इज़रायल के बीच बीती सदी में क्‍या-क्‍या घटता रहा है लेकिन फिलहाल इतना समझ लीजिए कि ब्राह्मणवाद भी अपने आप में कोई एकल इकाई नहीं है। आरएसएस के भीतर इसकी दो धाराएं हमेशा से रही हैं।

संघ हिंदू धर्म के आवरण में अनिवार्यत: ब्राह्मणवादी संस्‍था है लेकिन इसे चलाने वाले ब्राह्मणों की नस्‍ली शुद्धता एकरूप नहीं है। जो ब्राह्मण अपने को यहूदियों के सबसे करीब मानते हैं और नस्‍ली रूप से शुद्धतम, वे चितपावन कहलाते हैं। संघ की स्‍थापना वैसे तो देशस्‍त ब्राह्मण केशव बलिराम हेडगेवार ने की लेकिन कालांतर में इसके भीतर चितपावन ब्राह्मणों का कब्‍ज़ा हो गया। आश्‍चर्यजनक बात यह है कि सरसंघचालक कभी भी चितपावन ब्राह्मण नहीं रहा। हेडगेवार देशस्‍त ब्राह्मण रहे, गोलवलकर और देवरस करहाड़े ब्राह्मण, रज्‍जू भैया ठाकुर थे और इकलौते गैर-ब्राह्मण सरसंघचालक थे। केएस सुदर्शन संकेती ब्राह्मण थे जबकि मौजूदा सरसंघचालक मोहन भागवत दैवण्‍य ब्राह्मण हैं। संघ के भीतर यह तथ्‍य चितपावन ब्राह्मणों के लिए हमेशा से अप्रिय रहा है। इसके कई विचारक बेशक चितपावन रहे हैं, नाथूराम गोडसे खुद चितपावन था लेकिन संघ का नेतृत्‍व कभी इनके हाथ में नहीं रहा।

संघ के समानांतर एक संस्‍था है अभिनव भारत जिसे चितपावन जयंत अठावले चलाते थे। यह पूरी तरह चितपावनों के हाथ में है। टाइम्‍स ऑफ इंडिया में 7 फरवरी, 2014 की एक ख़बर देखें जिसमें बताया गया है कि एएनआइए की जांच में यह बात सामने आई थी कि मोहन भागवत के ऊपर जानलेवा हमला करने की एक योजना बनाई गई थी। साध्‍वी प्रज्ञा, कर्नल पुरोहित और दयानंद पांडे से हुई पूछताछ में यह उद्घाटन हुआ कि कुछ अतिवादी दक्षिणपंथी समूह मोहन भागवत से संतुष्‍ट नहीं थे और उन्‍होंने उनके समेत इंद्रेश कुमार की हत्‍या की योजना पुणे में बनाई थी। ये तीनों अभिनव भारत से ताल्‍लुक रखते हैं। यह आधिकारिक रिकॉर्ड का हिस्‍सा है क्‍योंकि महाराष्‍ट्र के तत्‍कालीन गृहमंत्री आरआर पाटील ने खुद अप्रैल 2010 में विधानसभा में इस बाबत एक बयान दिया था।

कुछ लोग इसे भगवा गिरोहों की नूराकुश्‍ती मान सकते हैं, लेकिन असल में यह चितपावन ब्राह्मणों और गैर-चितपावन ब्राह्मणों के बीच के संघर्ष का परिणाम है जो संघ के भीतर और बाहर बहुत तीखा है। यह ऊपर से भले नहीं दिखता, लेकिन इस तथ्‍य से समझा जा सकता है कि कथित भगवा आतंकवाद के नाम पर जितनी भी गिरफ्तारियां हुईं उनमें आरएसएस का कोई भी सक्रिय सदस्‍य नहीं था जबकि अजमेर धमाके की चार्जशीट में नाम आने के बावजूद आरएसएस के इंद्रेश कुमार का बाल भी बांका नहीं हो सका। इसकी कुल वजह इतनी सी है कि अभिवन भारत जैसी संस्‍थाओं का कोई राजनीतिक मुखौटा नहीं है जबकि संघ अपने राजनीतिक मुखौटे बीजेपी के चलते राजनीतिक रूप से काफी ताकतवर है। संघ और बीजेपी कभी भी चितपावन और गैर-चितपावन के बीच का संघर्ष ऑन दि रिकॉर्ड स्‍वीकार नहीं करते हैं। यहां तक कि एनआइए की जांच में भागवत पर हमले की बात सामने आने के बाद भी रविशंकर प्रसाद जैसे नेताओं ने इसे कांग्रेस की साजिश बताते हुए खारिज कर दिया था।

ध्‍यान देने वाली बात यह भी है कि कथित भगवा आतंकवाद में गिरफ्तार हो चुके और मोहन भागवत व इंद्रेश कुमार की हत्‍या की योजना बनाने वाले नामित लोगों में सभी चितपावन ब्राह्मण हैं जबकि भागवत और इंद्रेश दोनों चितपावन नहीं हैं। तो मामला ब्राह्मणों की नस्‍ली शुद्धता से आगे जाकर चितपावन ब्राह्मणों की नस्‍ली शुद्धता का बनता है और यहीं इज़रायल परिदृश्‍य में आ जाता है क्‍योंकि वहां नस्‍ली शुद्धता के नाम पर 20 फीसदी आबादी को दोयम दरजे का बना दिया गया है। भारत में यह संघ का एक पुराना सपना रहा है। अभिनव भारत जैसे ‘शुद्ध’ दक्षिणपंथी संगठनों का कांग्रेस राज में संघ आदि से भरोसा उठ गया था कि वे हिंदू राष्‍ट्र के लिए कुछ ठोस करेंगे, इसीलिए कथित ‘भगवा आतंकवाद’ का इतना हल्‍ला मचा। 2014 में जब आखिरकार नरेंद्र मोदी सत्‍ता में आए, तो अतिवादी दक्षिणपंथी गिरोहों का संघ पर दोबारा से भरोसा जगना शुरू हुआ क्‍योंकि केंद्र सरकार ने सरकारी वकीलों को भगवा आतंकवाद के मामले में पकड़े गए लोगों के मामले में धीरे चलने को कहा। सरकारी वकील रोहिणी सालियान का संदर्भ याद करें।

इसके बाद जेल में बंद तमाम लोग छूटते गए, मालेगांव से लेकर मोडासा, समझौता ब्‍लास्‍ट आदि की फाइलें बंद होती गईं और दक्षिणपंथी समूहों के बीच की आपसी रंजिश को थोड़ी राहत अवश्‍य मिली है। अब चितपावन हों कि गैर-चितपावन, सभी की निगाहें संघ की सरकार पर हैं क्‍योंकि वहां राजनीतिक सत्‍ता का वास है। उस सत्‍ता का प्रतिबिंबन नरेंद्र मोदी में होता है जो अनिवार्यत: प्रचारक रहे हैं। लिहाजा जो काम बैकडोर से चल रहा था, वह अब फ्रंट डोर से होगा। मोदी की इज़रायल यात्रा इसीलिए इतनी अहम हो जाती है।