विषमता अंग्रेज़ी राज से ज़्यादा : अभाव के महासमुद्र में डूबेंगे समृद्धि के टापू !



रामशरण जोशी

 

थॉमस पिकेट्टी की किताब “कैपिटल इन ट्वेन्टी फ़र्स्ट सेन्चुरी” दुनिया में असमानता की बढ़ती खाई को रेखांकित करने के लिए चर्चित रही है। इधर उन्होंने अपने साथी लुकास चांसल के साथ शोधपत्र “फ़्राम ब्रिटिश राज टू बिलिओनेयर राज ?” में पिछले 92 वर्षों में भारत में बढ़ी आर्थिक असमानता पर नज़र डाली गई है।

 

“ असमानता के इतिहास को आर्थिक,,सामाजिक और राजनीतिक नियंता  अपनी  सही व   गलत समझने की  दृष्टि से  आकार देते हैं.  साथ ही  सापेक्ष शक्ति संपन्न  नियंता  तथा सामूहिक पसंद भी इसे आकर देती हैं.. यह सम्बंधित नियंताओं  काएक  संयुक्त उत्पाद है.”

“ मैं राजनीतिज्ञ नहीं हूँ लेकिन जिस प्रकार के आज आन्दोलन ( वाल स्ट्रीट टी) चल रहे हैं उनके राजनीतिक निहितार्थ हैं.भविष्य में हम लोग और गरीब हो जायेंगे। इससे संकट बढ़ेगा। मैंने तथ्यों -आंकड़ों से   सिद्ध कर दिया है कि वर्तमान परिस्थितियों में पूंजीवाद काम नहीं करेगा। ”

  थॉमस पिकेट्टी

 

फ्रांस के युवा अर्थशास्त्री  थॉमस पिकेट्टी और उनके युवा  साथी लुकास चांसल (  विश्व असमानता रिपोर्ट के समन्वयक ) इन दिनों भारत में 1922-2014 के दौरान विषमता के अध्यन को लेकर काफी चर्चा में हैं. चर्चा  की मुख्य वजह है कि देश में  इस 92 वर्ष की अवधि में बेतहाशा विषमता बढी है; चोटी के  1 प्रतिशत लोगों के पास देश की 22 प्रतिशत सम्पति  पर कब्ज़ा है.रोचक तथ्य यह है कि  विदेशी राज रहे या स्वदेशी राज, पूंजीपति दोनों  राजों में और अधिक मालामाल होता रहा है जबकि विषमता  घटने के बजाय पहले से अधिक गहराती रही है। 1991 के दशक से लेकर 2014 तक के समय में विषमता की खाई तेजी से चौड़ी  होती गयी है. आज भी इसकी यह रफ़्तार जारी है.

दूसरे शब्दों में, जुलाई 1991 से आरम्भ हुई नव उदारवादी आर्थिक नीति या भूमण्डलीकरण ने  समाज में विषमता को पाटने के बजाय इसका आकार को फैलाया ही है; उदारवाद,निजीकरण,विनिवेशीकरण की प्रक्रियाओं से  आय व सम्पति का फासला बढ़ा है. यह राज्य की राजनीतिक आर्थिकी में आये बुनियादी परिवर्तन का परिणाम है. इस मामले में, सरकारें कांग्रेस की रहें या भारतीय जनता पार्टी या अन्य गठ्बंधनीय, चरित्र सभी का सामान रहा है. विषमताओं यथावत रही है.

पैंतालीस वर्षीय पिकेट्टी २०१४ में पहली बार चर्चित हुए थे जब उनकी पुस्तक “ कैपिटल इन २१ फर्स्ट सेंचुरी “( २१ वीं शताब्दी में पूँजी) ने अपनी स्थापनाओं के कारण अमेरिका सहित विकसित देशों में धूम मचा दी थी।  अमेरिका और यूरोप की पत्र-पत्रिकाओं की समीक्षा में पिकेट्टी के बारे में लिखा जा रहा था “ मार्क्स की वापसी “ ( देखें 2014 का समयांतर).उस समय इस युवा अर्थशास्त्री ने अपने अध्यन में चौकानेवाला  निष्कर्ष सामने रखा था कि वर्ष 2012 में अमेरिका के चोटी के सिर्फ एक प्रतिशत अमीर परिवारों ने देश की करीब 23 प्रतिशत आय पर अपना कब्ज़ा किया है. इतना ही नहीं, 2011-12 तक अमेरिका के 10 प्रतिशत अमीरतम परिवार राष्ट्र की 70 प्रतिशत संपति के मालिक थे. इससे आधी संपति का स्वामित्व केवल एक प्रतिशत अमीरों के पास था.तब प्रसिद्ध दैनिक ‘न्यू यॉर्क टाइम्स’ ने लिखा था “ सभी एक प्रतिशत के लिए  ,एक प्रतिशत सभी के लिए” आज फिर से वे चर्चा में हैं.भारत में इससे भिन्न स्थति कहाँ है?भारत में भी इस शीर्षक को ज़रा बदले अंदाज़ से दोहराया जा  सकता है – एक फ़ीसदी के लिए 22 फ़ीसदी दौलत, 22 फ़ीसदी दौलत एक फ़ीसदी के लिए “.

संयोग है कि 14 सितम्बर 2017 में  कार्ल मार्क्स की ‘पूँजी ‘ (कैपिटल ) के डेढ़ सौ वर्ष पूरे हो गए हैं. 14 सितम्बर 1867  से लेकर 2017 के काल खंड में  ‘पूँजी’ कितनी प्रासंगिक रही है, और भविष्य में भी मार्क्स की आर्थिक स्थापनाएं कितनी खरी उतरेंगी, समाजशास्त्रियों के बीच इसे लेकर  देश भर में डिस्कोर्स हो रहे  हैं. उनका खंडन-मंडन जारी है. इन बहस-मुबाहसों के बीच पिकेट्टी की कैपिटल और भारत की विषमता का अध्यन खास अर्थ रखता है.वैसे अपने 700 पृष्ठों के ग्रन्थ में पिकेट्टी स्वीकार कर चुके हैं, ‘अनेक सीमाओं के बावजूद , मार्क्स का विश्लेषण  कई क्षेत्रों में आज भी प्रासंगिक है.सबसे पहले, वे एक महत्वपूर्ण प्रश्न ( औध्योगिक क्रांति के दौर में संपति का अभूतपूर्व केन्द्रीकरण से सम्बंधित ) से शुरू करते हैं और उपलब्ध सामग्री के आधार पर ज़वाब देने की कोशिश करते हैं- यदि अर्थशास्त्री उनके उदाहरणों से प्रेरणा लेंगे तो अपने काम को अच्छे ढंग करेंगे. सबसे महत्वपूर्ण यह है कि जिस ढंग से मार्क्स ने अनंत संचयन के सिद्धांतों  को प्रस्तावित किया है उनमें मूल अंतरदृष्टि निहित है. ये सिद्धांत जितने 19 वीं सदी के लिए  वैध थे आज 21 वीं सदी के अध्यन के लिए भी उतने ही  वैध हैं, बल्कि कुछ मामलों में रिकार्डो के  ‘अभाव का सिद्धांत ‘ से अधिक चिंतनीय हैं….”

अर्थशास्त्री द्वय ने भारत में असमानत के अपने 50 पेज़ी अध्ययन में  विभिन्न आंकड़ों और ग्राफ़िक्स के माध्यम से बतलाया है कि  ब्रिटिश काल से लेकर आज तक किस प्रकार समाज का अत्यंत सूक्षम वर्ग राष्ट्रीय आय का एक बहुत बड़ा हिस्सा डकारता चला आ रहा है. 1922 में भारतीय  आयकर की स्थापना हुई थी. तब से लेकर आज तक के आंकड़े इस सच्चाई की तस्दीक करते हैं कि 0.1  से लेकर 1 प्रतिशत, राष्ट्रीय आय के एक बड़े हिस्से पर अपना कब्ज़ा ज़माते चले आरहे हैं. हालाँकि, नेहरू से लेकर इंदिरा गाँधी के नेहरुवीय समाजवाद के काल में इस वर्ग के संपति -केन्द्रीकरण की गति ज़रूर मंद पड़ी थी, क्योंकि उस दौर में आयकर की आदायगी की ऊची दरें थीं और निजी क्षेत्र की तुलना में सार्वजनिक क्षेत्र को अधिक तरजीह मिल रही थी. दूसरे शब्दों में, निजी पूंजीवाद पर राज्य का पूंजीवाद भारी पड़ रहा था.यही कारण था कि 1951-1980 की अवधि में नीचे के 50 प्रतिशत समूह का विकास व आय के 28 प्रतिशत पर अधिकार था.लेकिन “ 1980-2014 की अवधि में स्थिति बिलकुल पलट गयी; छोटी के 0.1 प्रतिशत के छोटे से हिस्से ने कुल विकास के उच्चतम हिस्से पर अपना अधिकार जमाया जोकि नीचे के 50 प्रतिशत से अधिक ( 12 प्रतिशत बनाम 11 प्रतिशत) था. जबकि   के चोटी के   1 प्रतिशत का हिस्सा  मध्य  वर्ग के 40 प्रतिशत लोगों से कहीं अधिक रहा(29 प्रतिशत बनाम 23 प्रतिशत)।”

इस विषमता की कहानी में आयकर का पक्ष काफी दिलचस्प है. अर्थशास्त्री बतलाते हैं कि भारत सरकार के आयकर विभाग ने  वर्ष 2000 से  कर आंकड़ों को प्रकाशित करना बंद कर दिया। लेकिन काफी दबाव के बाद 2016 में आयकर विभाग ने 2011-14 के आंकड़े प्रकाशित किये. इन आकड़ों से पता चलता है कि चोटी के 10 से 1 प्रतिशत अमीर औरों की तुलना में अधिक तेज़ी से पूरी मजबूती के साथ बढे हैं. इन अमीरों की आबादी का मोटा होते जाना 1980 से निरंतर जारी है. इसके विपरीत देश की निचली 50 प्रतिशत आबादी की विकास दर मंथर गति से चलती रही है. यहाँ यह कहना समीचीन रहेगा कि  यह सर्वविदित तथ्य  है कि देश की  विधायिका (संसद और विधानसभा ) में अरबपतियों की उपस्थिति का विस्तार इसी अविधि से हो रहा है.

अपने अध्ययन में पेरिस स्थित दोनों युवा अर्थशास्त्री कहते हैं कि सरकार की “ 1980 से व्यापारी समर्थक और बाज़ार नियमन नीतियों के क्रियान्वयन “ के कारण निचले वर्गों के विकास की गति धीमी रही है.इसका परिणाम यह रहा कि वर्ष 2000 में  चोटी के एक प्रतिशत अमीरों की संपति में “ अनुमानतन 5 से 10 की दुगनी वृद्धि रही।”

अर्थशास्त्री द्वय स्वीकार करते हैं कि उन्होंने इस अध्यन के लिए विभिन्न सर्वेक्षणों का सहारा लिया है। बावजूद इसके, “ हम इस तथ्य को दोहराते हैं कि हमें उपलब्ध आंकड़ों की काफी सीमाएँ हैं क्योंकि आय और संपति से सम्बंधित आंकड़ों में और अधिक लोकतान्त्रिक पारदर्शिता की आवश्यकता है.” इसका सीधा अर्थ यह निकला कि राज्य, संपत्ति, आयकर, आय-वितरण तथा केन्द्रीकरण से सम्बद्ध तथ्यों के प्रकाशन में अपेक्षित ईमानदारी नहीं दिखा रहा है.जनता के सामने वास्तविक वस्तुस्थिति नहीं रखी जा रही है.हम सभी जानते हैं कि कर वंचकों,काले धन में लिप्त धनिकों और विदेश में अवैध पूँजी ज़माकर्ताओं के नाम जारी करने में सरकारें कितनी टाल-मटोल करती रही हैं.ऐसी हालत में सही तस्वीर कैसे सामने   आ सकती है!

पिकेट्टी कहते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था में  गत 30 वर्षों में “ सघन विकास हुए हैं.सातवें दशक में भारत की अर्थव्यवस्था अत्यंत नियंत्रित अर्थव्यवस्था थी,जिसमें समाजवादी योजना शामिल थी। 1980 से उदारीकरण और विनियंत्रण सुधारों को लागू किया गया. इस संदर्भ में, बदकिस्मती से भारतीय शासकों ने सन 2000 से आय कर तालिकाएँ प्रकाशित करना बंद कर दिया, जो कि आँकड़ों का मुख्य स्रोत होती हैं. इससे चोटी की आय वालों के विकास का निरंतर पता चलता रहता है”

अर्थशास्त्री का कहना है कि इस विषमता और आय फासले के मूल में इंदिरा गाँधी के उत्तराधिकारियों की उदारवादी नीतियां रहीं हैं, जिनमें उनके पुत्र राजीव गाँधी भी शामिल हैं. उत्तर इंदिरा सरकारें चोटी के आय वालों का टैक्स लगातार  कम करती गयीं और 97.5 प्रतिशत से घटाते हुए 50 प्रतिशत तक ले आईं. आर्थिक सुधारों का परिणाम  यह रहा कि आय और सम्पति में असंतुलन बढ़ता चला गया. हालाँकि निर्धनता में कुछ कमी ज़रूर आयी और जीडीपी में कुछ सुधार हुआ लेकिन बढ़ती असमानता पर कम ध्यान दिया गया और अपेक्षित विमर्श नहीं हुआ.इस विषमता रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि जहाँ नवें दशक में  अमीरतम भारतियों की सम्पति राष्ट्रीय आय का सिर्फ 2 प्रतिशत थी वही वर्ष 2015 में बढ़ कर 10 प्रतिशत हो गयी. हालाँकि यह 2008-09 में 27 प्रतिशत तक पहुँच गयी थी( फोर्ब्स पत्रिका में भारतीय धनिकों की सूची) लेकिन  पिकेट्टी इन  आंकड़ों को अस्पष्ट मानते हैं. क्योंकि सरकार विश्वसनीय जानकारियां देने से कतराती है क्योंकि 1980 से आय व सम्पति असंतुलन लगातार बढ़ रहा है. मैं समझता हूँ वास्तविक कारण  जन संतोष के फैलने का  ‘भय व आशंका ’ हो सकते हैं.याद रखें, इसी अवधि में काले धन की समांतर काली अर्थव्यवस्था और अधिक मज़बूत होती गयी है।  इसके लिए अरुण कुमार  की किताब ‘ स्वाधीनता से भारत की अर्थव्यवस्था’ को देखा जा सकता है. पिकेट्टी आंकड़ों के प्रकाशन के प्रति अधिकारियों की उदासीनता को आश्चर्यजनक मानते  है.उनका कहना है कि जब देश में आज़ादी के बाद से करदाताओं की संख्या बढ़ रही है। फिर भी इसके नियमित प्रकाशन से बचना आश्चर्यजनक है.

अध्ययन में  यह भी माना  गया है कि प्रति व्यक्ति उपभोग, आमदनी ,आवास, वित्तीय व्यय आदि का भरोसेमंद सर्वेक्षणों का अभाव है. जो भी सर्वे हुए हैं उनके आंकड़ों में समानता नहीं है.परिणामस्वरूप किसी सही नतीजे पर पहुँचना  मुश्किल हो जाता है.चोटी के वर्ग की वास्तविक आय का व्यक्ति विकास  बताना कठिन रहता है.फिर भी दोनों अध्येताओं का निष्कर्ष है कि चीन,फ्रांस और अमेरिका  की तुलना में भारत में नीचे के 40 प्रतिशत लोग सकल विकास से सबसे कम लाभान्वित हुए हैं. लेकिन जहाँ तक 50 प्रतिशत आबादी के लाभ का सवाल है वह भारत व चीन में लगभग बराबर रहा है ( भारत 11 प्रति. व चीन 13 प्रति.)इ सके विपरीत 40 प्रतिशत के मामले में भारत -23%, चीन-43%, फ्रांस -42% और अमेरिका 33 % है.गौरतलब यह भी है कि साम्यवादी चीन में भी असमानता तेजी से बढ़ी है; मिसाल के तौर  पर 0.1 और 1 % का विकास भारत की तुलना में प्रति व्यक्ति की दर से वास्तविक विकास ज्यादा हुआ है; भारत में 0.1% व 1% का विकास क्रमशः 1138 व 750 रहा, वहीँ चीन में क्रमशः 1825 व 1534 ( समान अवधि -1980- 2014) रहा. तथाकथित साम्यवादी व्यवस्था के बावजूद वहां  पूंजीवाद का विस्तार हो रहा है.लेकिन,एक सच्चाई यह भी है कि विभिन्न आय वर्ग की तुलनात्मक दृष्टि से, चीन के मुकाबले भारत में अमीरों की विकास गति अधिक रही है.दोनों अर्थशास्त्री इतना ज़रूर कहते हैं कि जहाँ तक 40% लोगों को सकल राष्ट्रीय आय से लाभ मिलने का प्रश्न है उसमें भारत, चीन, फ्रांस और अमेरिका से काफी पीछे रहा है. अपने पड़ौसी देश चीन से तो 20% पीछे है.

अपने निष्कर्ष में पेरिस के दोनों अर्थशास्त्रियों का मानना है कि दीर्घकाल में असमानता कम नहीं होगी.यद्यपि चौथे दशक में इसमें गिरावट दर्ज हुई थी और 1950-70 तक चोटी के लोगों की आय मंद हुई थी, लेकिन इसके बाद के वर्षों में इस वर्ग के लोंगों की सम्पति में बेलगाम इजाफ़ा हुआ है.यहाँ तक कि युद्ध कालों में भी चोटी के वर्ग की आय में कोई उल्लेखनीय गिरावट नहीं देखी गयी.वे नगण्य रूप से प्रभावित हुई लेकिन 1950-70 के वर्षों में ज़रूर उनकी आय धीमी रही.पिकेट्टी कहते हैं इस अवधि में रेलवे (1951),विमान यातायात (1953), बैंकं-1955 व 1969),तेल उद्योग (1974 व 1975) जैसे क्षेत्रों के राष्ट्रीयकरण से इस वर्ग की बेलगाम आय व सम्पति को ज़रूर आघात पहुंचा था.लेकिन इसकी भरपाई की शरुआत राजीव गाँधी के शासन से शुरू हो गयी थी, जोकि नरेन्द्र मोदी शासन में और भी तेज़ हो गयी है.अर्थशास्त्री द्वय का निष्कर्ष यह भी है कि “ इंडिया शायनिंग “  केवल 10% यानि 8 करोड़ लोगों के लिए रहा है। इसका कारण यह भी रहा है  कि भारत  में उदारीकरण और विनियमन की बयारें बहती रही हैं.

इसी वर्ष जनवरी में  दावोस में ऑक्सफेम द्वारा प्रसारित अध्ययन रिपोर्ट में बतलाया गया है भारत में एक प्रतिशत अमीरों के पास 58% दौलत है जबकि विश्व में औसत प्रतिशत  50 है. भारत में केवल  57 अरबपतियों की कुल सम्पति 216 मिलियन डॉलर है .दूसरे शब्दों में यह देश की 70% जनता की सम्पति के बराबर है. इस संस्था का कहना है कि असमानता और विषमता और अधिक गंभीर होगी. भविष्य की तस्वीर काफी चिताजनक है.केवल 8 अरबपतियों की सम्पति ही विश्व की 50 % जनता की कुल सम्पति के बराबर है.इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कितना गंभीर असंतुलन भारत में होगा क्योंकि इस देश में भी अरबपतियों की आबादी के परिवार नियोजन का कोई नीति सरकार के पास नहीं है. यह कैसी विडम्बना है कि देश की सामान्य आबादी  बढ़ने के साथ साथ  अरबपतियों की  आबादी भी बढती जा रही है! आख़िर किसकी कीमत पर? ज़ाहिर है, देश की बहुसंख्यक जनता को  नारकीय जीवन के हवाले रख कर इन धनपशुओं की आबादी पर चर्बी चढ़ाई जा रही है!

(यह लेख समयांतर के अक्टूबर अंक में छपा है। साभार प्रकाशित)



रामशरण जोशी देश के जाने-माने पत्रकार और मीडिया विजिल सलाहकार मंडल के सम्मानित सदस्य हैं।