क्या नेपाल की दो-तिहाई बहुमत वाली संप्रभु सरकार की भावना का सम्मान कर पाएगा भारत?



नेपाली प्रधानमंत्री के. पी. ओली की भारत यात्रा

(नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली अपना पदभार ग्रहण करने के बाद पहली आधिकारिक यात्रा पर आज भारत आ रहे हैं। माना जा रहा है कि इस यात्रा में भारत और नेपाल के द्विपक्षीय संबंधों को मज़बूत करने के लिए कुछ अहम समझौते दोनों ओर से होंगे। शनिवार को ओली का राष्‍ट्रपति भवन में राजकीय सम्‍मान होगा और आज वे भारत में रह रहे नेपाली प्रवासी समुदाय से भेंट करेंगे। दक्षिण एशियाई भूराजनीति के लिहाज से इस यात्रा को बेहद अहम माना जा रहा है। नेपाल पर पिछले तीन दशक से लगातार निगाह करीबी रखे तीसरी दुनिया के प्रामाणिक जानकार और वरिष्‍ठ पत्रकार आनंदस्‍वरूप वर्मा ने इस अवसर के रणनीति महत्‍व पर एक अहम लेख लिखा हैसंपादक)


 

आनंदस्वरूप वर्मा 

 

प्रधानमंत्री के.पी.ओली की इस बार की भारत यात्रा इस अर्थ में काफी भिन्न है क्योंकि पहली बार नेपाल का कोई प्रधानमंत्री ऐसी हैसियत में है जब वह लगभग दो तिहाई बहुमत के साथ एक स्थिर सरकार देने की स्थिति में हो। इस यात्रा को अत्यंत महत्वपूर्ण इसलिए भी कहा जा सकता है क्योंकि पहली बार नेपाल के किसी विदेश मंत्री ने खुलकर यह राय व्यक्त की है कि अब समय आ गया है जब भारत और नेपाल के संबंधों को फिर से परिभाषित किया जाय और नया रूप दिया जाय। प्रधानमंत्री ओली की यात्रा से महज चार दिन पहले दो अप्रैल को विदेश मंत्री प्रदीप ज्ञवाली ने पत्रकारों से बातचीत करते हुए कहा कि अब तक जो कहानी दुहराई जाती रही है कि नेपाल हमेशा एक लेनदार देश है और भारत देनदार, उसे बदलने की जरूरत है। इसे थोड़ा और विस्तार देते हुए उन्होंने कहा कि भारत में तकरीबन सात-आठ लाख नेपाली काम करते हैं लेकिन नेपाल के अंदर भी भारी संख्या में भारतीय हैं जो यहां से पैसे कमा कर भारत भेजते हैं। भारतीय सेना में हजारों की संख्या में नेपाली युवक काम करते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत के हिस्से में हमारा भी उल्लेखनीय योगदान है। अगर दोनों देशों के बीच संबंधों को सद्भावपूर्ण बनाना है तो इस तथ्य को भी रेखांकित करना होगा।

अपने वक्तव्य में उन्होंने नाकाबंदी के दिनों में भारत के साथ तनावपूर्ण संबंधों को याद करते हुए कहा कि ‘उस समय हमने जो रुख अख्तियार किया उस पर हमें गर्व है।’ जाहिर सी बात है कि उनका आशय भारत के सामने न झुकने से था। चीन की ओर खुल कर मुखातिब होने का भी वही दौर था। इसी संदर्भ में उन्होंने अपने दोनों पड़ोसियों के संबंधों की चर्चा की और कहा कि ‘हम उनके किसी रणनीतिक अथवा भौगोलिक-राजनीतिक स्वार्थों से खुद को नहीं जोड़ेंगे’। इन दोनों देशों के साथ संबंध बनाते समय नेपाल हमेशा अपने आर्थिक विकास और निवेश को ही एजेंडा बनाएगा। विदेश मंत्री ने इस बात पर भी जोर दिया कि भारत और नेपाल के द्विपक्षीय संबंधों को नया रूप देने की जरूरत है।

पिछले दस वर्षों के दौरान नेपाल में दस प्रधानमंत्री आए और चले गए। यह यात्रा इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि नेपाल के नए संविधान के निर्माण के बाद दोनों देशों के संबंधों में काफी कटुता आ गई थी और नेपाल को एक ऐसी आर्थिक नाकाबंदी का सामना करना पड़ा जिसने व्यापक जनसमुदाय के अंदर भारत के प्रति काफी हद तक चिढ़ पैदा कर दी। उस समय नेपाली राष्ट्रवाद की जो लहर पैदा हुई उसका असर था कि कई दशकों से भारत के करीबी समझे जाने वाले ओली की छवि एक भारत विरोधी नेता के रूप में उभरी और भारतीय शासकों के शब्दकोश में भारत विरोधी होने का अर्थ है चीन समर्थक होना। सितंबर 2015 में नेपाल का संविधान बना था और संविधान बनने के दूसरे ही दिन से आर्थिक नाकाबंदी शुरू हो गई थी। उस वर्ष अक्तूबर में के.पी.ओली प्रधानमंत्री बने और फरवरी 2016 तक उनको इस नाकाबंदी से जूझना पड़ा। ओली की सरकार माओवादियों के समर्थन से बनी थी और जैसे ही माओवादी नेता प्रचंड ने जुलाई 2016 में समर्थन वापस लेने की घोषणा की, उनकी सरकार गिर गई। प्रचंड प्रधानमंत्री बन तो गये लेकिन उनके इस कदम को नेपाली जनता ने पसंद नहीं किया और सबने यह आशंका व्यक्त की कि प्रचंड ने भारत के इशारे पर ओली की सरकार गिरायी-वह भी ऐसे समय जब वह भारत की दादागिरी का मुकाबला कर रहे थे।

इस घटना के बाद नेपाल में बहुत कुछ  हुआ। माओवादी नेता प्रचंड और नेपाली कांग्रेस के नेता शेरबहादुर देउबा ने बारी-बारी प्रधानमंत्री पद संभाला और सत्ता संचालन किया। नये संविधान के तहत नवगठित राज्यों के चुनाव सफलतापूर्वक हुए। फिर एक अप्रत्याशित घटना हुई– के.पी.ओली की पार्टी नेकपा (एमाले) और प्रचंड की पार्टी नेकपा (माओवादी केंद्र) ने मिल-जुल कर चुनाव में हिस्सा लिया। दोनों पार्टियों की एकता ने एक अभूतपूर्व दृश्य उपस्थित किया। भारत के सत्ताधारी वर्ग की परंपरागत रूप से पसंदीदा पार्टी नेपाली कांग्रेस हाशिए पर चली गई और इन दोनों वामपंथी पार्टियों की एकता ने कम्युनिस्टों को नवगठित संसद में दो तिहाई के करीब पहुंचा दिया। जैसा कि पहले से तय था, 15 फरवरी 2018 को के.पी.ओली एक बार फिर प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुए।

ऊपर जिन घटनाओं का उल्लेख किया गया है उनसे मोदी सरकार का चिंतित होना स्वाभाविक था। नेपाल को फिर से हिंदू राष्ट्र के रूप में देखने का सपना पाल रहे तत्वों के लिए यह व्यापक वाम एकता किसी हादसे से कम नहीं था। इन्होंने बहुत कोशिश की कि यह संभव न हो सके। इन सबके बावजूद दोनों ने मिलकर चुनाव लड़ा और शानदार कामयाबी पाई। जिन दिनों नाकाबंदी चल रही थी के.पी.ओली ने चीन के साथ कुछ समझौते किए थे ताकि जरूरी सामानों की आपूर्ति में भारत की ओर से जो रुकावट पैदा की गई है उसका समाधान ढूंढ़ा जाए। नाकाबंदी ने सचमुच ओली को भारत के विरुद्ध खड़ा कर दिया। ऐसी स्थिति में ओली का फिर प्रधानमंत्री पद पर चुना जाना भारत सरकार के लिए बहुत सुखद नहीं था। तो भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव के नतीजे आने के बाद ही ओली को बधाई देने के लिए एक बार नहीं बल्कि दो बार फोन किया और उन्हें भारत आने का निमंत्रण दिया। प्रधानमंत्री पद का शपथ लेने से 15 दिन पहले ही विदेश मंत्री सुषमा स्वराज काठमांडो गईं और उन्होंने ओली को अग्रिम बधाई दे दी।

नेपाल में एक अजीब सी परंपरा है (जिसका भारत काफी प्रचार करता है) कि जब भी कोई प्रधानमंत्री पद की शपथ लेता है तो उसकी पहली विदेश यात्रा भारत की होती है। 2008 में प्रधानमंत्री बनने के बाद प्रचंड ने जब इस परंपरा को तोड़कर चीन को अपना पहला गंतव्य बनाया तो भारत की भौंहें तन गईं। नेपाल का प्रबुद्ध समुदाय इस परंपरा के खिलाफ है और इसे वह नेपाली नेताओं की हीन भावना के रूप में देखता है। वैसे तो के.पी.ओली की भी पहली विदेश यात्रा भारत की ही हो रही है लेकिन इससे भारत को खुशी नहीं है। इसकी वजह यह है कि पिछले कई दशकों में पहली बार ऐसा हुआ है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री राजकीय यात्रा पर नेपाल पहुंचे हों। 15 फरवरी को ओली प्रधानमंत्री बने और 5 मार्च को उन्होंने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहिद खाकान अब्बासी का काठमांडो में स्वागत किया। भारत के शासन तंत्र ने इसे एक खतरनाक संकेत के रूप में लिया क्योंकि चीन द्वारा प्रस्तावित ‘बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव’ (बीआरआइ) में भाग लेने से भारत अभी तक इनकार कर रहा है जबकि नेपाल और पाकिस्तान दोनों इसमें शुरू से ही शामिल हैं।

दरअसल डोकलाम की घटना ने नेपाल के मनोविज्ञान को काफी प्रभावित किया है। भूटान और चीन के बीच विवादित क्षेत्र में जिस तरह भारत ने आक्रामक अंदाज में हस्तक्षेप किया, उससे नेपाल काफी सतर्क हो गया। यही वजह है कि प्रधानमंत्री की इस यात्रा से पहले नेपाली मीडिया में बहुत सारे ऐसे लेख प्रकाशित हुए जिनमें प्रधानमंत्री को सलाह दी गई कि भारत के साथ बातचीत में वह उन मुद्दों को भी उठाएं जो दोनों देशों के सीमा विवाद से संबंधित हैं। इस संदर्भ में काला पानी और सुस्ता का विशेष रूप से उल्लेख किया गया। नेपाल के प्रमुख अखबार ‘काठमांडो पोस्ट’ ने निरंजन मणि दीक्षित का एक लेख प्रकाशित किया जिसमें कहा गया था कि ‘‘भारत ने काला पानी इलाके में तकरीबन 37000 हेक्टेयर, सुस्ता में 14000 हेक्टेयर और नेपाल-भारत सीमा पर 71जगहों में 12000 हेक्टेयर पर कब्जा कर रखा है। डोकलाम के त्रिदेशीय सीमा क्षेत्र से जब फौजें हटाने की बात भारत करता है तो उसे खुद भी नेपाल के काला पानी क्षेत्र से अपने सैनिक हटा लेने चाहिए।’’

1962 में चीन के साथ हुए युद्ध के दौरान भारतीय सैनिकों ने काला पानी में अपना अड्डा स्थापित किया था। यह स्थान सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यहां से चीनी सैनिकों की गतिविधियों पर निगाह रखी जा सकती है। शुरू के दिनों में इंडो-तिब्बतन बार्डर पुलिस के लोगों ने वहां कुछ छावनियां बनाई थीं लेकिन धीरे-धीरे भारतीय सेना ने पक्की इमारतें और बंकर भी बनाने शुरू कर दिए। फिर वहां सेना की कुछ बटालियनें तैनात कर दी गईं। पिछले 21 वर्षों से काला पानी के मामले पर दोनों देशों के बीच अनेक बैठकें हुईं लेकिन अब तक कोई समाधान नहीं निकला। समस्या के समाधान के लिए ‘नेपाल-इंडिया ज्वाइंट टेक्निकल लेवल बाउंड्री कमेटी’ 1981 में बनाई गई लेकिन 2007 में इसका विघटन कर दिया गया। काला पानी के विवाद को जब भी हल करने की कोशिश की गई, भारत ने कुछ ऐसे नक्शे पेश किए जिसे नेपाल फर्जी मानता है।

यही हालत नवलपरासी जिले के सुस्ता क्षेत्रा की है जहां तकरीबन 14000 हेक्टेयर की जमीन को लेकर विवाद है। ओली की भारत यात्रा से पहले नेपाल के कई विशेषज्ञों ने खुल कर कहा है कि काला पानी-लिपुलेह का इलाका ऐसा है जहां भारत-नेपाल और चीन की सीमा मिलती है और अगर इसका अब समाधान नहीं किया गया तो आने वाले दिनों में यह गंभीर रूप ले सकता है।

ओली के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही नेपाल की राजनीति ने एक नए युग में प्रवेश कर लिया है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान चीन का नेपाल में जबर्दस्त निवेश हुआ है और बहुत सारी परियोजनाओं में उसने पूंजी लगाई है। ‘बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव’ के जरिए उसने नेपाल के इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास की भी अच्छी खासी योजना तैयार की है। शायद चीन के ही आश्वासन के आधार पर के.पी.ओली ने अगले पांच साल का जो कार्यक्रम तैयार किया है उसके अनुसार ईस्ट-वेस्ट हाइवे के समानांतर रेल लाइन बिछाई जाएगी, रसुआगढ़ी से लेकर लुम्बिनी तक रेल व्यवस्था तैयार की जाएगी, काठमांडो के चारों तरफ जो रिंग रोड है उसे मेट्रो रेल व्यवस्था से संपन्न किया जाएगा और परिवहन के क्षेत्र में नेपाल में एक क्रांति ला दी जाएगी। हाइड्रो इलेक्ट्रिक के क्षेत्र में भी अनेक परियोजनाओं पर काम चल रहा है और ये परियोजनाएं किनके हिस्से में जाएंगी इसे लेकर भारत और चीन के बीच काफी खींचतान भी है।

नेपाल के लोगों ने अब यह कहना शुरू कर दिया है कि ‘रोटी-बेटी का संबंध’ या ‘सांस्कृतिक एकता’ जैसी भावुकतापूर्ण बातों से अब फुसलाया नहीं जा सकता। अगर संबंधों का इतना ही ध्यान था तो छह महीने की आर्थिक नाकाबंदी क्यों की गई? भारत के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती यह है कि अपने परंपरागत मित्र नेपाल को वह कैसे अपने प्रभाव क्षेत्र में बनाए रखे। पहली बार कोई सरकार अपनी संप्रभुता को जोरदार ढंग से व्यक्त कर रही है और ऐसे में देखना है कि भारत का सत्ताधारी वर्ग उसकी इस भावना का सम्मान कर पाता है या नहीं?


लेखक मीडियाविजिल के सलाहकार मंडल के सम्मानित सदस्य भी हैं