‘गोरखधंधा’ जुड़ा है गुरु गोरखनाथ से, पर अर्थ एकदम उलट है !



गोरखधन्धा यानी सिद्धि की राह

समाज की नज़र में जो कुछ भी ‘उच्च’ है, वहाँ से उसका ज़रा सा भी विचलन हमें सहन नहीं होता। यही वजह है कि इससे पहले इस विचलन को किसी अन्य शब्द से अभिव्यक्त किया जाए, सीधे सीधे उस ‘उच्चता’ की ही #अर्थावनति कर दी जाती है। यह भाषा का समाजशास्त्र है। अध्यापक की अर्थवत्ता वाले किन्ही शब्दों पर गौर करें, यही प्रवृत्ति देखने को मिलेगी। गुरु अब चतुर, चालाक, धूर्त के अर्थ में प्रयुक्त होता है। यही बात उस्ताद के साथ है। मठाधीश, महन्त, स्वामी, बाबा, चेला, भक्त, अफ़सर, पंच, बाबू, मास्टर, नेता, पहलवान, जादूगर, बाजीगर, ओझा, पण्डित आदि शब्द इसी कतार में हैं।

नाथपन्थी शब्दावली से रिश्ता

अनेक शब्द अपनी मूल अभिव्यक्ति से इतने दूर आ गए कि उन्हें बरतते हुए ऐसा लगता नहीं कि दरअसल हम अन्यार्थ बरत रहे हैं, मूलार्थ नहीं। पाखण्ड किसी ज़माने में परिव्राजकों का पन्थ था। आज पाखण्डी किसे कहते हैं, यह सब जानते हैं। ‘रास’ रचाना पहले कुछ और था, बाद में इसका अभिप्राय विशिष्ट अर्थ में आमोद-प्रमोद से जुड़ गया। बहरहाल इन दिनों गोरखधंधा की बहुत चर्चा है। यूँ भी यह हिन्दी पत्रकारिता का पसंदीदा पद है। आज गोरखधंधा का सामान्य अर्थ उलटे-सीधे कामों के सन्दर्भ में ज्यादा होता है। छल-कपट, धोखाधड़ी, चालाकी भरे कृत्यों को इसी श्रेणी में रखा जाता है। दरअसल यह नाथपंथी सिद्ध योगियों की शब्दावली से निकला पद है।

कठिन, जटिल, दुष्कर

नाथपंथियों में गुरु गोरखनाथ का दर्ज़ा ऊँचा है। सिद्धियों की प्राप्ति के लिए नाथपंथी गूढ़, जटिल क्रियाएँ करते थे। आम आदमी इनसे चमत्कृत रहता था। योग, मुद्रा, श्वास-प्रश्वास से नाड़ी गतियों का नियन्त्रण, समाधि और नादानुसन्धान की सिद्धि-प्रक्रियाएँ इतनी दुर्गम जटिल, असहज, कठिन और दुसाध्य होती थीं कि आम आदमी तो दूर, सामान्य नाथपंथी साथक भी उसमें उलझ कर रह जाते थे। बिन गुरु ज्ञान कहाँ से पाऊँ… इसीलिए कठिन और नतीजे तक न पहुँचाने वाले काम या उलझन के सम्बन्ध में गोरखधंधा मुहावरा प्रचलित हो गया। इस शब्द का प्रयोग अपभ्रंश में लिखित बौद्ध साहित्य में हुआ है।

 

चमत्कारी धागा

यूँ देखें तो गोरखधंधा अपने-आप में एक यन्त्र था। नाथपन्थी साधना का अभ्यास- उपकरण। डोरी या धागे से बने चक्र के उलझाव-सुलझाव के ज़रिये सिद्धिप्राप्ति का अनुष्ठान। इसके अनेक प्रारूप रहे हैं। गुच्छे का सुलझाव भी रहा और अनेक चक्रों के बीच से किसी वस्तु को निकालने जैसा अभ्यास भी। इनका यौगिक-आध्यात्मिक-तान्त्रिक महत्व चाहे जो हो, पर नाथों-सिद्धों की पद्धतियों के चमत्कारपूर्ण प्रदर्शन की महिमा ही समाज पर ज्यादा रही। साधना के दुष्कर मार्ग की कठिनाइयों से बचते हुए अनेक साधकों ने भौतिक सुख-सुविधाओं के लिए यौगिक क्रियाओं का माया जाल रचा। मन्त्र-मुद्रा आदि के जाल में उलझा कर आमजन को खूब ठगा। मूलतः ये सभी प्रणालियाँ आध्यात्मिक विस्तार के लिए थीं, पर चमत्कारी धागों में उलझ कर रह गईं।

स्वार्थसिद्धि नहीं, अध्यात्म सिद्धि

गोरखनाथी योगियों की जमातों के मठ पूरे भारत में हैं। गोरखपुर गढ़ है। ये साधु हिमालयी क्षेत्रों से लेकर रेतीले राजस्थान में भी पाए जाते हैं। गुजरात, महाराष्ट्र और बंगाल में भी इनके ठिकाने हैं। इनकी निराली धज के बारे में जायसी ने लिखा है-
मेखल सिंघी, चक्र धंधारी। जोगवाट रुदराछ अधारी।।
कंथा पहिरि दंडकर गहा। सिद्ध होइ कहँ गोरख कहा।।
मुद्र स्रवन कंठ जयमाला। कर उपदान कांध बघछाला।।
अनेक लोगों को भ्रम है कि गोरखधंधा का मूलार्थ ही दरअसल उलटे-सीधे काम कर अपना मतलब साधने से है। उन्हें लगता है इसेके ज़रिये गोरखपंथियों अथवा नाथपंथियों को बदनाम किया जाता है। मगर ऐसा नहीं है। मूलतः यह युग्मपद नाथपरम्परा से ही निकला है और इसका विशेष महत्व है। गोरखपंथी साधुओं के सिद्धि-अभ्यास उपक्रम का एक अनिवार्य चरण है ‘गोरखधंधा’ जो साधना की कठिन पद्धति की वजह से समाज में चर्चित हो गया।

दुनिया गोल है…

ध्यान रहे, सभी प्राचीन संस्कृतियों में चक्र की परिकल्पना ध्यान, अध्यात्म, योग, चिन्तन, मनन से जुड़ती है। चक्र यानी सर्कल, घेरा, गोला, वृत्त, मण्डल, वर्तुल, दायरा। सृष्टि में जो कुछ व्याप्त है, वह सब प्रतिक्षण बदलता है क्योंकि सब गतिशील है। मगर बदलाव का यह क्रम चक्रगति से चलता है। चक्र के विस्तार में न जाते हुए हमें इसके विविध आयामों पर विचार कर लेना चाहिए मसलन सौरमण्डल, जीवनचक्र, ऋतुचक्र आदि। तो नाथपन्थियों के अनेक तन्त्र मूलतः चक्र की महत्ता से जुड़े हैं। गोरखधंधा भी चक्र ही है। गोरख-योगियों की साधना का अनिवार्य हिस्सा है गोरखधंधा। इसे धंधारी या धांधरी भी कहते हैं। शायद धांधली का भी इससे रिश्ता हो।

छल्लों का मायाजाल

लकड़ी या लोहे की पतली छड़ को मोड़ कर चक्र बनाया जाता है। इनके भीतर कोड़ियों की माला पिरोई जाती है। यह कुछ उसी तरह तरह का यन्त्र है जैसा हमने जादूगरों के पास देखा है। दो लोहे के छल्लों को वे एक दूसरे में पिरो देते हैं और फिर बड़ी तरकीब से दोनों छल्लों को अलग अलग कर देते हैं। कुछ यही बात गोरखधंधा में है। ख्यात विद्वान तर्कतीर्थ लक्ष्मण शास्त्री जोशी रचित मराठी विश्वकोश के मुताबिक-“धंधारी दरअसल लकड़ी की चपटी पट्टियों और लोहे की सलाइयों से निर्मित एक उपकरण होता था। इसके सुराखों में धागा डालने और फिर मन्त्रोच्चार के साथ बाहर निकालने की क्रिया सिद्धिप्राप्ति के लिए महत्वपूर्ण थी।”

खेल खेल के धागे

यही नहीं, धंधारी समेत कुछ और उपकरण भी गोरखपंथियों की सिद्धि के उपादान थे जेसे किंगरी यानी छोटी सारंगी, मेखला यानी करधनी, सिंघी यानी सींग से बना बिगुल, अधारी यानी झोला और मुद्रा यानी कुंडल आदि इसके बदले हुए रूप भी होते हैं। हममें से हर एक ने बचपन में दोनों हाथों की उंगलियों में धागों के छल्ले बनाते हुए एक दूसरे में पिरोते हुए पहले उन्हें उलझाने और फिर एक झटके में सुलझाने के खेलों को सीखा भी है और उससे प्रभावित भी हुआ है। कुछ यही बात गोरखधंधा में रही, बस खास यह रहा कि गोरखधन्धा ध्यान केन्द्रित करने का यन्त्र था। विशेष मन्त्रों के ज़रिये साधक कौडियों की माला को बाहर निकाल पाता था। प्रायः धंधारी से डोरा निकालने की प्रक्रिया को लक्ष्य प्राप्ति से जोड़ कर देखा जाता रहा।

गोरखनाथ की धंधारी

अन्य संदर्भों से पता चलता है कि गुरुओं की अपनी अलग धंधारी होती थी। अधिकांश साधक पारम्परिक धंधारी से काम चलाते थे। गोरखनाथ की धंधारी अनोखी थी और इसीलिए उनके पंथ में इस धंधारी का नाम ‘गोरखधंधा’ प्रसिद्ध हुआ। यह मान्यता थी कि जिससे यह क्रिया सध सकती है उस पर गोरखनाथ की कृपा होगी और उसे संसारचक्र से मुक्ति मिल जाएगी। बाद में गोरखधंधा शब्द जटिल और उलझाऊ क्रिया के लिए रूढ़ हुआ। गोरखनाथ की धंधारी अद्भुत थी । इसलिए साधक को चक्कर में डालने वाली सिद्धि प्रक्रिया के बतौर इसका प्रयोग शुरू हुआ होगा। धंधारी के शब्दकोशीय अर्थों में अकेलापन, सन्नाटा, सूनापन जैसे अर्थ भी हैं। निश्चित ही इसमें सिद्धि की राह में तल्लीन होने का संकेत छुपा है।

अजित वडनेरकर

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शब्दों के सफ़र के अध्येता हैं। ‘शब्दों का सफ़र’ उनका मशहूर ब्लॉग है। पाठक इससे लाभान्वित हो सकते हैं।)