गाँधी परिवार काँग्रेस को पुनर्जीवित कर रहा है तो मोदी संघ परिवार को ख़त्म !


बीजेपी में हर नेता के सामने ये चुनौती है कि वह कैसे मोदी-शाह को पहले पटकनी दे फिर खड़ा हो सके!




पुण्य प्रसून वाजपेयी

कांग्रेस की पहचान नेहरु-गांधी परिवार से जुड़ी है । बीजेपी की पहचान संघ परिवार से जुड़ी है । बिना नेहरु-गांधी परिवार के कांग्रेस हो ही नहीं सकती तो कांग्रेस की कमजोरी-ताकत दोनो ही नेहरु-गांधी परिवार में सिमटी है। और बिना संघ परिवार के बीजेपी का आस्त्तिव ही नहीं है तो वैचारिक तौर पर संघ की सोच हो या हिन्दुत्व की छतरी तले बीजेपी के राजनीतिक भविष्य को आक्सीजन देने का काम, यह संघ परिवार पर ही टिका है ।

कांग्रेस अभी तक नेहरु गांधी परिवार के करिश्माई नेतृत्व के आसरे सत्ता पर काबिज रही है। चाहे वह नेहरु का काल हो या इंदिरा गांधी का या फिर राजीव गांधी या परदे के पीछे सोनिया गांधी की सियासत का। और इस दौर में जनसंघ से जनता पार्टी होते हुये बीजेपी में उभरी स्वयंसेवकों की टोली की ये पहचान रही कि वह कांग्रेस के ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ के विरोध के आसरे धीरे-धीरे आगे बढ़ती रही। और सत्ता के जरिये कांग्रेस विरोध के दायरे को बढ़ाती भी रही और कांग्रेस विरोध के आसरे अपनी सत्ता गढ़ती भी रही। सौ बरस की उम्र पार कर चुकी कांग्रेस में ये पहला मौका है कि नेहरु गांधी परिवार की पांचवी पीढी के दो सदस्य कांग्रेस को संभालने के लिये एक साथ चलने को तैयार हैं। दूसरी तरफ 2025 में सौ बरस की होने जा रहे संघ परिवार से निकले स्वयसेवकों का सत्ताकरण ही कुछ इस तरह हुआ कि वह संघ परिवार को ही कमजोर कर सत्ता की ताकत तले संघ परिवार को ले आये।

ये वाकई दिलचस्प है कि एक तरफ करिश्माई नेतृत्व के आसरे सत्ता की चौखट पर पहुंचने वाली कांग्रेस में धीरे-धीरे राहुल गांधी ने चुनावी जीत के आसरे खुद को करिश्माई तौर पर स्थापित करने की दिशा में कदम बढाये हैं तो प्रियकां गांधी की राजनीतिक झलकियों ने ही उन्हे पहले से करिश्माई मान लिया है। दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी ने पूर्व स्वयंसेवकों की लीक छोड़ 2014 में खुद को करिश्माई तौर पर स्थापित तो किया लेकिन इसी स्थापना को अपनी ताकत मान कर संघ परिवार की सोच तक को खारिज कर दिया। या कहें, मोदी सत्ता के दौर में संघ परिवर के मुद्दे भी सरोकार खो कर मोदी के करिश्माई नेतृत्व में ही हिन्दुत्व से लेकर स्वदेशी और भारतीयकरण से लेकर स्वयंसेवक होने के पीछे के संघर्ष को ही खत्म कर बैठे। नेहरु-गांधी परिवार और संघ परिवार की इसी बिसात पर 2019 का आम चुनाव होना है। तो पांसे कैसे और किस तरह फेंके जायेगें ये वाकई रोचक है। और सवाल कई हैं!

मसलन, क्या मोदी का करिश्मआई नेतृत्व बीजेपी-संघ परिवार की सत्ता को बरकरार रख पायेगा ?क्या राहुल गांधी के साथ खडी प्रियंका का करिश्मा मोदी सत्ता की जड़ें हिला देगा? क्या मोदी-शाह में सिमट चुकी बीजेपी के पास कोई नेता ही नहीं है जो कांग्रेस के करिश्माई नेतृत्व को चुनाव मैदान में पटकनी दे दे? या फिर बीजेपी में हर नेता के सामने ये चुनौती है कि वह कैसे मोदी-शाह को पहले पटकनी दे फिर खड़ा हो सके! क्या राहुल प्रियंका की जोड़ी अब मोदी विरोध के गठबंधन के सामने ही चुनौती बन रहा है? यानी एक वक्त के बाद क्षत्रपों के सामने संकट होगा कि वह बीजेपी विरोध के साथ कांग्रेस विरोध की दिशा में भी बढ़ जाये।

जाहिर है ये सारे सवाल हैं। लेकिन इन सवालों के आसरे ही चुनावी राजनीति को परखें तो तीन सच सामने उभरेंगे। पहला , प्रियंका के जरिये महिलायें और युवाओं का वोट सिर्फ बीजेपी नहीं बल्कि अखिलेश-मायावती से भी खिसकेगा। दूसरा, यूपी में चेहरा खोज रही काग्रेस को प्रियंका का एक ऐसा चेहरा मिल चुका है जो लोकसभा चुनाव के बाद आखिलेश-मायावती की उस सौदबाजी में सेंघ लगाने के लिये काफी है कि राज्य कौन संभाले और केन्द्र कौन संभाले (अगर लोकसभा चुनाव के बाद मायावती पीएम उम्मीदवार के तौर पर उभरती हैं) । क्योंकि कांग्रेस ने अभी प्रियंका गांधी को पूर्वी यूपी की कमान सौपी है। अगला कदम रायबरेली से चुनाव मैदान में उतारना होगा। और फिर 2022 में यूपी विधानसभा के वक्त प्रियंका गांधी को ही सीएम उम्मीदवार पद के लिये उतारा जा सकता है। तीसरा, क्षत्रपों को अब समझ में आने लगा है कि गठबंधन का मतलब तभी है जब उसमें कांग्रेस शामिल हो। यानी सिर्फ क्षत्रपों का मिलना गठबंधन तो है लेकिन वह सिर्फ सत्ता के लिये सौदेबाजी का दायरा बढ़ना है।

इन तीन हालात के दौर को और किसी ने नहीं बल्कि मोदी के ‘करिश्माई’ नेतृत्व ने ही पैदा किया है। और मोदी के करिश्माई नेतृत्व के पीछे संघ परिवार को ही कमोजरी करना रहा। क्योंकि संघ परिवार का हर वह संगठन जो कांग्रेस की सत्ता को चुनौती देने के लिये संघर्ष करते हुये बीजेपी का रास्ता अभी तक बनाता रहा है, उसे ही मोदी के करिश्माई नेतृत्व ने खत्म कर दिया। विहिप के पास प्रवीण तोगड़िया नहीं हैं तो विहिप को प्रवीण तोगड़िया के हर कदम से लड़ना पडा रहा है । किसान संघ के सक्षम नेतृत्व को कैसे मोदी सत्ता के काल में खत्म किया गया, ये मध्यप्रदेश में कक्काजी के जरिये उभरा। फिर भारतीय मजदूर संघ हो या स्वदेशी जागरण मंच या फिर आदिवासी कल्याण संघ, हर संगठन को कमजोर किया गया। या कहें संघ के हर संगठन का काम ही जब करिश्माई मोदी के लिये ताली बजाना हो गया तो फिर वह नीतियाँ भी बेमानी हो गईं जो किसान को खुदकुशी की तरफ धकेल रही थीं और युवाओं को बेरोजगारी की तरफ। उत्पादन ठप पड़ा है तो उद्योगपतियों के पास काम नहीं। व्यापरियों के सामने जीएसटी से लेकर विदेशी निवेश और ई-मार्केटिंग का खतरा है। मजदूर को नोटबंदी ने तबाह कर दिया। यानी संकट काल स्वयंसेवक की सत्ता के वक्त संघ की सोच के विपरीत है। 

तो आखरी सवाल यही हो चला है कि कांग्रेस की राजनीति ने संघ या पुरानी बीजेपी की कार्यशैली को अपना लिया है। और मोदी के करिश्माई नेतृत्व ने काग्रेस की करिश्माई सोच को अपना लिया है!

लेखक मशहूर टीवी पत्रकार हैं।