सिर्फ दलित दावे के संदर्भ से ‘काला’ की व्याख्या ठीक नहीं



 

प्रकाश के रे

 

रजनीकांत जैसे मेगास्टारों की फिल्मों की चर्चा ज्यादातर इस कारण से होती है कि उनकी लागत और कमाई का आंकड़ा क्या है. ‘काला’ के निर्देशक पा रंजीत ने भी एक साक्षात्कार में बताया है कि रजनी सर के लिए फिल्म सिर्फ मनोरंजन और व्यवसाय है.  लेकिन ‘काला’ या ‘काला करिकालन’ की चर्चा के साथ नयी बात यह है कि यह फिल्म की कहानी, किरदारों और निर्देशक की राजनीति से जुड़ी हुई है. चाहे वह हिंदी सिनेमा हो या तमिल सिनेमा, राजनीति वैचारिकी को परदे पर उतारने की बात बहुत पुरानी हो चुकी है. इस कमी को ‘काला’ एक हद तक दूर करने की कोशिश के रूप में देखी जा सकती है.

कई लेखों में फिल्म को इस बात के लिए सराहा गया है कि रंजीत ने 2016 में आयी अपनी ‘कबाली’ की राजनीति को आगे बढ़ाया है. उसमें भी रजनीकांत ने मुख्य भूमिका निभायी थी. रंजीत ‘अट्टाकाथी’ और ‘मद्रास’ में भी दलित संस्कृति और चिंता को प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त कर चुके हैं. उनका यह मानना उचित ही है कि सिनेमा में दलितों की प्रस्तुति आम तौर पर गैर-दलितों द्वारा की गयी है जिसमें दलित दया के पात्र हैं तथा उनकी दुनिया उदास और बेरंग है. रंजीत अपने समाज को लेकर बनी इस समझ को बदलने के आकांक्षी हैं. ऐसा ही प्रयास ‘फैण्ड्री’ और ‘सैराट’ के नागराज मंजुले और ‘मसान’ के नीरज घेवन जैसे फिल्मकारों का भी है.

इसी प्रयास का परिणाम है कि रंजीत का काला हजारों सालों से श्रेष्ठता का छद्म ओढ़े आपराधिक धार्मिकता और भ्रष्टाचार से टकराते हुए विषमता के विरुद्ध आंबेडकरवादी वैचारिकी के आवरण में भीमजी से लेनिन जैसे चरित्रों के साथ समता और सहकार का महाआख्यान रचता है. काले, नीले और लाल का सिनेमाई रंगाचार दलित को बहुजन में बदल देता है जहां जाति और वर्ग को लेकर सचेत समझ आगे की राह बनाती है. यह हमारे सिनेमा को समृद्ध करने की दिशा में एक आवश्यक योगदान है. कला, शिल्प और विषय-वस्तु के लिहाज से रंजीत जैसे फिल्मकार संभावनाओं का व्यापकता को रेखांकित कर रहे हैं. लेकिन जब फिल्म और फिल्मकार की राजनीति बहस में होगी, तो उसके एक आयाम तक रूक जाना ठीक नहीं होगा. इसलिए ‘काला’ के कुछ और अहम पहलुओं को खंगालना जरूरी है.

कोई फिल्म या कहानी एक रचनात्मक प्रक्रिया से गढ़ी जाती है, पर उसका एक संदर्भ-बिंदु जरूर होता है. इसी में अनेक तत्वों को मिलाकर कथानक बनता है. तो, सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर यह करिश्माई ‘काला’ है कौन. यह किरदार धारावी या मुंबई के किस ‘डॉन’ से प्रेरित है या फिर किसकी कहानी है. किसी जमाने में धारावी की झोपड़पट्टी में अपनी धाक रखनेवाले व्यवसायी-डॉन तिरावियम नादर के बेटे-बेटी का आरोप है कि यह फिल्म उनके पिता की कहानी है. इस मसले तिरावियम नादर के पुत्र और वरिष्ठ पत्रकार जवाहर नादर फिल्म उद्योग और अदालत का दरवाजा भी खटखटा चुके हैं. पूर्व डॉन की बेटी विजयालक्ष्मी नादर ने भी लगातार इसे सोशल और मेनस्ट्रीम मीडिया में उठाया है. एक बयान में उन्होंने बताया है कि इस बाबत फिल्म की शूटिंग के दौरान उनकी बात निर्देशक से हुई थी और रंजीत ने कहा था कि यह फिल्म नादर की कहानी नहीं है. एक अन्य साक्षात्कार में निर्देशक ने कहा है कि रजनीकांत का किरदार उनके दादा से प्रभावित है जो गांव में कुछ इसी रुतबे से रहा करते थे.

तमिलनाडु के सूखा-प्रभावित तिरुनेलवेली जिले से पचास के दशक में मुंबई भागकर गये १६ वर्षीय तिरावियम नादर ने धारावी के एक इलाके में शरण ली थी. अपने साहस के बूते वे वहां बहुत जल्दी गरीब तमिल समुदाय में लोकप्रिय हो गये और उनकी छवि एक संरक्षक की बन गयी. धीरे-धीरे वे चीनी-गुड़ के बड़े व्यवसायी बन गये जिसके कारण उन्हें ‘गुड़वाला सेठ’ भी कहा जाता था. रूप-रंग की वजह से उन्हें ‘काला सेठ’ भी कहा गया. हाजी मस्तान और वरदराजन मुदलियार जैसे डॉनों की तरह किंवदंती बन चुके नादर ने धारावी के खाली पड़ी जमीनों को कब्जा कर अपने लोगों को बसाया तथा उनके रोजगार और शिक्षा मुहैया कराने के प्रयास किये.

फिल्म में जीप पर बैठे काला के एक दृश्य की खूब चर्चा है. जीप के नंबर में बीआर और 1956 है. इसे बाबासाहेब और 1956 में नागपुर में उनके धर्मांतरण से जोड़ कर देखा जा रहा है, पर विजयालक्ष्मी का कहना है कि यह वह साल है, जब उनके पिता मुंबई आये थे. नाना पाटेकर के चरित्र को वे शिव सेना नेता बाल ठाकरे से जोड़ कर देखती हैं. यह उल्लेखनीय है कि बाल ठाकरे ने दक्षिण भारतीयों को मुंबई छोड़ देने की धमकी दी थी और तमिलों के खिलाफ दंगे भी हुए थे. धारावी को इस धमकी से सुरक्षा नादर और मुदलियार ने ही दी थी.

अगर फिल्म नादर के जीवन पर आधारित है, तो कथानक में दलित राजनीति डालने का क्या मतलब है? फिल्म में काला की जातिगत पहचान स्पष्ट नहीं है, पर विभिन्न दृश्यों से यह साफ पता चलता है कि उसकी सामुदायिक पहचान क्या है. यह समझा जाना चाहिए कि नादर या मुदलियार या हाजी मस्तान या करीम लाला जैसे डॉन शहरी गरीबों के नायक बनकर उभरे थे. जिन लोगों को इनका संरक्षण मिला, वे किसी भी जाति या धर्म के हो सकते थे. उस दौर में जो सहभागिता बनती थी, उसमें ये कारक अहम नहीं होते थे. एक संतोष की बात है कि फिल्म के रिलीज होने के कुछ दिन बाद निर्देशक रंजीत ने माना है कि फिल्म दलित पहचान से अधिक गरीब शहरी आबादी की जद्दोजहद की कहानी है.

यह भी उल्लेखनीय है कि तिरावियम नादर पक्के कांग्रेस समर्थक थे. उन्हें कांग्रेस की ओर से सांसद का चुनाव लड़ने का ऑफर भी था. उनकी राजनीति का एक असर उनके बेटे-बेटी के नामकरण में देखा जा सकता है- जवाहर और विजयालक्ष्मी. उन्होंने अपने स्कूल का नाम भी कामराज पर रखा था. साल 1991 में जब पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या हुई, तो उन्हें इस बात की बेहद तकलीफ हुई थी कि यह हत्या तमिलों ने अंजाम दिया.

निर्देशक रंजीत ने यह भी कहा है कि उन्हें पांच-छह लोगों ने कहा है कि यह फिल्म इस या उस व्यक्ति पर आधारित है. नादर के बारे में कोई लिखित दस्तावेज नहीं है, उनके बारे में उनके नजदीकी और धारावी के लोगों से ही जाना जा सकता है. विजयालक्ष्मी नादर ने फिल्म और उनके पिता के जीवन की समानता पर विस्तार से लिखा है. उन्होंने कहा है कि उनके पिता को या तो नादर के रूप में दिखाना था, या फिर एक सेकुलर तमिल के रूप में. दलित पहलू डालना असली कहानी के साथ अन्याय है. उन्होंने यह भी याद दिलाया है कि रंजीत पहले खुद ही कह चुके हैं कि फिल्म मुंबई के एक तमिल डॉन की कहानी है, जो तमिलनाडु के तिरुनेलवेली जिले से हैं. नादर के अलावा और कौन डॉन इस जिले से हुआ था?

जवाहर और विजयालक्ष्मी नादर तथा रंजीत की बातें सही या गलत हो सकती हैं, परंतु अगर कहानी को अगर हम सिर्फ एक रचना या कल्पना मान लें, तो फिर हमें यह भी मानना होगा कि फिल्म दलित-बहुजन राजनीति की आड़ लेकर एक फंतासी ही बुनती है, जिसका उद्देश्य मनोरंजन भर करना है. ऐसे में यह पहले बन चुकी अनेक फिल्मों की नकल भर ही रह जाती है. अंतर बस यह है कि दीवारों पर टंगे चित्रों के चेहरे बदल गये हैं. नयी राजनीति और संस्कृति को अपनी दावेदारी करनी है, तो उसे अपने नायक भी खोजने और गढ़ने होंगे. दलित-बहुजन नायक-नायिकाओं की कमी नहीं है, ऐसे में किसी ‘दीवार’ या ‘नायकन’ की नकल करने का कोई मतलब नहीं है.

‘कबाली’ और ‘काला’ के बीच रजनीकांत के राजनीति में जाने के ऐलान तथा ‘काला’ के अभिनेता और रजनीकांत के दामाद धनुष द्वारा निर्मित होने के मामले के साथ अगर तमिलनाडु की रजनीति को देखें, तो फिल्म को देखने की एक खिड़की और खुलती है. खुद रजनीकांत कह चुके हैं कि सिर्फ स्टारडम, लोकप्रियता और संसाधनों से राजनीति में कामयाबी नहीं पायी जा सकती है. जिस तमिलनाडु में सिनेमा का सियासत से बेहद करीबी रिश्ता रहा हो, वहां रजनीकांत कामयाबी के लिए अन्य जरूरी किन चीजों की ओर इशारा कर रहे हैं? सभी जानते हैं कि चो रामास्वामी और एस गुरुमूर्ति जैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े लोगों से रजनीकांत की घनिष्ठता रही है. राजनीति में आने की घोषणा करते हुए उन्होंने कहा था कि वे ‘आध्यात्मिक राजनीति’ करना चाहते हैं. कुछ दिन पहले वेदांता संयंत्र से फैलते प्रदूषण का विरोध कर रहे नागरिकों के पुलिस द्वारा मारे जाने के बाद उनका बयान आया कि असामाजिक तत्वों की वजह से यह घटना हुई. उनका पूरा बयान सरकार और पुलिस की हिमायत में था. रजनीकांत को कभी भी मोदी सरकार या हिंदुत्व की राजनीति के विरुद्ध बोलते नहीं सुना गया है. द्रमुक के नेता करुणानिधि अब सक्रिय नहीं हैं और उनके परिवार में फूट है. जयललिता के निधन के बाद अन्नाद्रमुक में भी गहरी दरारें पड़ चुकी हैं. ऐसे में एक करिश्माई व्यक्ति तीसरे विकल्प के रूप में अपनी जगह बना सकता है, परंतु इसके लिए उसे ऐसे राजनीतिक मुहावरों की अपनाना होगा जो भाजपा से अलग दिखने में उसकी मदद करे और वोट जुटाये. तनोज मेश्राम ने एक तार्किक लेख में इस तथ्य को रेखांकित किया है कि तमिलनाडु में दलित आबादी करीब बीस फीसदी है और इस समुदाय में अपनी पैठ बनाने की कोशिश भाजपा इस राज्य के साथ देशभर में कर रही है. उन्होंने तमिल दलितों में द्रविड़ पार्टियों से बढ़ती नाराजगी की ओर भी संकेत किया है. कुछ दलित ऐसे भी हैं, जो पेरियार के विचारों से सहमति नहीं रखते. बकौल मेश्राम, पा रंजीत भी ऐसे लोगों में से हैं. ‘कबाली’ में रंजीत ने पेरियार की तस्वीर नहीं दिखायी थी. इस पर बवाल होने के बाद उन्होंने माफी मांगी थी.

मेश्राम का एक मजबूत तर्क यह भी है कि रजनीकांत की फिल्में काफी समय से अच्छा कमाई नहीं कर पा रही हैं. ऐसे में एक नये तेवर में रंजीत द्वारा परदे पर लाना उन्हें जरूर भला लगा होगा, खासकर तब जब इससे राजनीति में भी मदद मिलती हो. यह सवाल भी अहम है कि पहले कब रजनीकांत ने एक मुद्दे पर एक निर्देशक के साथ भारी बजट की फिल्में लगातार की हैं. खैर, यह तो वक्त ही बतायेगा कि जातिवाद के खिलाफ लड़ने की बात कर रहा युवा निर्देशक एक दक्षिणपंथी थकते स्टार को सियासत में खड़ा करने में योगदान दे रहा है या मामला बस मनोरंजन और व्यवसाय का है, जैसा कि रंजीत के रजनी सर मानते हैं.

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।