आर्थिक मंदी: क्या भारत में 1930 जैसे हालात बन रहे हैं ?



1930 की वैश्विक महामंदी का अमेरिकी जनता पर  इतना मनोवैज्ञानिक असर पड़ा कि वहां के लोगों ने अपने खर्चो में दस फीसदी तक की कमी कर दी जिससे मांग प्रभावित हुई’. क्या ठीक यही परिस्थिति हम यहाँ बनते नही देख रहे हैं? भारत में आम आदमी ने अपने खर्चो में  दस फीसदी से भी ज्यादा कटौती करना शुरू कर दी है और इसका असर मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर पर देखने को मिल रहा है. 2019- 20 की पहली छमाही में कोर सेक्टर की वृद्धि दर महज 1.3 फीसदी रही है जबकि पिछले वित्त वर्ष की समान अवधि में इसमें 5.5 फीसदी का इजाफा हुआ था. अगस्त में IIP इंडेक्स भी सिकुड़कर 1.1 प्रतिशत रह गया, जो 81 महीनों की सबसे तेज गिरावट है.

भारतीय अर्थव्यवस्था गहरी मंदी की चपेट में है और आंकड़े दर्शा रहे हैं कि निकट भविष्य में तेजी से सुधार होने की कोई संभावना नहीं है. सरकार के आंतरिक अनुमानों के मुताबिक दूसरी तिमाही (जुलाई – सितंबर) में GDP की वृद्धि दर पहली तिमाही (अप्रैल-जून) 5 प्रतिशत से भी नीचे रह सकती है. इसका यह है कि 2012-13 की जनवरी-मार्च तिमाही के बाद पहली बार जीडीपी वृद्धि दर 5 प्रतिशत अंक के नीचे जाने की संभावना है.

न्यूनतम 10 करोड़ रुपये से अधिक कारोबार वाली जिन 316 कंपनियों ने अब तक अपनी बिक्री के आंकड़े जारी किए हैं उन कम्पनियों की अन्य आय समेत इनकी बिक्री और कुल राजस्व तीन वर्ष की न्यूनतम गति से बढ़ा है. वित्तीय क्षेत्र से परे और रिलायंस इंडस्ट्रीज को हटाकर देखें तो राजस्व 3 फीसदी से भी कम दर से बढ़ा है. IT सेक्टर की बिक्री और मुनाफा छह तिमाही में सबसे नीचे रहा हैं. इस क्षेत्र की बड़ी कंपनियों ने चेतावनी जारी की है कि मंदी के कारण इन सेवाओं की वैश्विक मांग भी घट रही है. ऑटोमोबाइल क्षेत्र की जिन बड़ी कंपनियों ने नतीजे घोषित किए उनमें केवल बजाज ऑटो को छोड़ दिया जाए तो बाकी तमाम कंपनियों की बिक्री कम होती दिख रही है.

पिछले कई महीनों से खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में क्रय-शक्ति के खतरनाक रूप से घटने का संकेत दे रही है. वहां न सिर्फ उपभोक्ता सामग्रियों (FMCG) की मांग में भारी कमी दिखी है. वाहनों की बिक्री लगभग ठप हो गई है.

इस मंदी का सबसे बड़ा कारण जो है उस पर कोई बात नही कर रहा है कि पिछले कई वर्षों से ग्रामीण मजदूरी वृद्धि पांच प्रतिशत से भी कम देखी जा रही है. इसने ग्रामीण मांग पर असर डालते हुए उन व्यवसायों का प्रदर्शन भी धीमा कर दिया है, जो स्वस्थ ग्रामीण मांग पर निर्भर होते है. इसका सीधा असर इनमें तेजी से बिकने वाली उपभोक्ता वस्तुएं (एफएमसीजी) पर पड़ा है. इन कंपनियों की आय वृद्धि दर पिछले दो वर्षों में सबसे नीचे आ चुकी है. FMCG का बाजार जुलाई-सितंबर यानी चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में पांच तिमाही के निचले स्तर पर आ गया हैं. द हिंदुस्तान यूनिलीवर (एचयूएल) के चेयरमैन एवं प्रबंध निदेशक संजीव मेहता ने स्वीकार किया कि बाजार में मांग जोर नहीं पकड़ पाई है और ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की वजह से नरमी बढ़ी है.

1930 में अमेरिका में आर्थिक मंदी के दौरान

मेहता ने कहा, ‘पहले ग्रामीण क्षेत्रों की वृद्धि शहरी क्षेत्र से करीब 1.3 गुना अधिक थी, जो अब घटकर महज 0.5 गुना रह गई है.’ विश्लेषक, कंपनियां और स्वतंत्र विशेषज्ञ कुछ समय से ग्रामीण क्षेत्रों में मांग में कमी का संकेत दे रहे थे.

बायोकॉन की चेयरपर्सन एवं प्रबंधन निदेशक किरण मजूमदार शॉ ने कुछ महीने पहले बेंगलूरु में एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कहा था कि ‘5 फीसदी की जीडीपी वृद्धि ‘आर्थिक आपातकाल’ को दर्शाती है’. अगर दूसरी तिमाही में अब यह 5 प्रतिशत से भी नीचे उतर रही हैं तो आप खुद समझ जाइये कि हालात किस हद तक खराब होने वाले हैं.

एक बात और, 1930 की आर्थिक महामंदी जब चरम पर पहुंच गयी थी तब लोगों ने बैंकों के कर्ज पटाने बंद कर दिए थे जिससे बैंकिंग ढांचा चरमरा गया, कर्ज मिलने बंद हो गए, लोगों ने बैंकों में जमा पैसा निकालना शुरू कर दिया. इससे कई बैंक दिवालिया होकर बंद हो गए थे. क्या वैसा ही कुछ भारत मे भी होने जा रहा है?


लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं