कोलंबिया युनिवर्सिटी में पढ़ाई जाती है डॉ.आंबेडकर की आत्मकथा, भारत में क्यों नहीं?



 

सिद्धार्थ रामू

 

डॉ.आंबेडकर की आत्मकथा अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय में पढ़ाई जाती है। हिंदी भाषा-भाषी समाज का मेरा सीमित अनुभव बताता है कि अधिकांश लोगों ने आंबेडकर आत्मकथा नहीं पढ़ी है, यहां तक की परिचित भी नहीं हैं, जबकि आंबेडकर की आत्मकथा अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय में पढ़ाई जाती है। इस आत्मकथा का नाम है, ‘वेटिंग फॉर वीजा’। इसके कई हिंदी अनुवाद भी हो चुके हैं। इसमें आंबेडकर ने अपने बचपन से लेकर 1934-35 तक के अपने अपमानों का बयान किया है, जो अपमान उन्हें ‘अछूत’ जाति में पैदा होने के चलते झेलना पड़ा।कितनी बार इन अपमानों के चलते वे रोेये, जीवन से वितृष्णा पैदा हुई, सबकुछ इसमें आंबेडकर ने कहा हैं।यह अपमान न केवल हिंदू धर्म के अनुयायियों ने नहीं किया, पारसियों और इसाईयों ने भी किया। भारत में मुस्लिम, पारसी और क्रिश्चियन किस कदर जातिवादी है, इसका पता किसी को भी आंबेडकर की यह आत्मकथा पढ़ कर चल सकता है। प्रश्न यह उठता है कि आखिर क्यों आंबेडकर की आत्मकथा उपेक्षा का शिकार रही, अभी भी है, जबकि गांधी की आत्मकथा के करीब हर पढ़ा लिखा भारतीय जानता है?

हम सभी जानते हैं कि कुल मिलाकर गांधी और उनकी कांग्रेस उच्च जातीय और उच्च वर्गीय भारतीयों हितों के लिए संघर्ष कर रही थी, जब आंबेडकर उन लोंगों के लिए संघर्ष कर रहे थे, जिन्हें इस देश में इंसान का भी दर्जा प्राप्त नहीं था। गांधी उन उच्च जातियों और उनकी संस्कृति के पक्ष में खड़े थे, जिन्होंन हजारों वर्षो से शूूद्रों-अतिशूद्रों को गुलाम बना रखा था। जैसे इस देश की वैचारिकी और ज्ञान पर नियंत्रण करने वालों ने गांधी को ‘महान’ बनाया, उसी तरह उनकी आत्मकथा को भी, जबकि आंबेडकर निरंतर उच्च जातियों की उपेक्षा के शिकार बने रहे और उनकी आत्मकथा भी।

आंबेडकर का सबसे बड़ा अपराध यह था कि उन्होंने उस भारतीय संस्कृति को चुनौती दिया, निकृष्ट ठहराया जिस पर अधिकांश भारतीय गर्व करते हैं। हिंदुओं की नजर में महान ग्रंथों को आंबेडकर ने मनुष्य विरोधी ठहराया। उनके आदर्शों को निकृष्ट आदर्श ठहराया।

इसके साथ ही आंबेडकर अपनी आत्मकथा भी तो यही बताते हैं कि हिंदू लोग कितने बीमार लोग हैं, कैसे इन लोगों इस देश के अन्य धर्मानुयायियों को बीमार बना दिया है।

इस पूरे प्रसंग में वामपंथियों की भूमिका को भी कमोवेश उच्च जातियों के अन्य विद्वानों और पाठकों की तरह ही रही है। जो वामपंथी दुनिया भर की आत्मकथाएं पढ़ते रहते हैं, गांधी की अात्मकथा से भी ठीक-ठाक परिचित है, उनमें से भी अधिकांश को इस बात की भनक भी नहीं है, कि आंबेडकर की कोई आत्मकथा भी है। वैसे भी आंबेडकर और उनके लेखन के प्रति इनका उपेक्षा भरा नजरिया रहा है। उनकी नजर में जो कुछ अच्छा लिखा गया है, वह यूरोप या रूस में ही लिखा गया है। यूरोप या रूस के ज्ञान से आत्ममुग्ध वामपंथी कम ही भारतीय साहित्य की ओर नजर डालते रहे हैं। उसमें भी आंबेडकर ‘ना-ना’।

लेकिन उससे भी दुखद है, जो अपने को आंबेडकर का अनुयायी या उनके विचारों का समर्थक मानते हैं, मेरी जानकारी के अनुसार उनमें से भी अधिकांश इस आत्मकथा के नाम से भी परिचित नहीं, आखिर ऐसा क्यों है? पहला कारण तो यह है कि उनकी औपचारिक शिक्षा में आंबेडकर को पढाया ही नहीं गया, दूसरा उच्च जातियों द्वारा महान ठहराया गया साहित्य ही उनके दिमाग में भरा पड़ा रहा।

मैं फिर एक बार इस बात को दुहरा रहा हूं कोई भी व्यक्ति जो भारत को समझना चाहता है,उसे बदलना चाहता है,उसे एक समता, स्वतंत्रता, बंधुता आधारित न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक भारत बनाना चाहता है, उसे 1934 या 1935 में लिखी आंबेडकर की यह आत्मकथा जरूर पढ़ना चाहिए।

मेरी जानकारी के अनुसार आंबेडकर की अंग्रेजी में लिखी इस आत्मकथा का अनुवाद कंवल भारती सर ने किया है, जो साहित्य उपक्रम से प्रकाशित हुई है। इसके अलावा फारवर्ड प्रेस ने आंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस ( 6 दिसंबर 2017 ) पर इसे अपने वेबसाइट पर प्रकाशित किया है। इसका अनुवाद सविता पाठक ने किया है। आप इसे यहाँ पढ़ सकते है।

 

सिद्धार्थ रामू फॉरवर्ड प्रेस (हिंदी) के संपादक हैं। यह लेख उनकी फ़ेसबुक पोस्ट का अंश है। साभार  प्रकाशित।