चुनावों से ठीक पहले माओवादी नेतृत्‍व में परिवर्तन और ‘भाजपा हटाओ’ का नारा क्‍या कहता है?



रायपुर प्रतिनिधि

भारत की माओवादी पार्टी के नेतृत्‍व में बदलाव को लेकर कोई साल भर से जारी अटकलों को ऐसा लगता है कि विराम मिल गया है। अब तक सीपीआइ(माओवादी) ने कोई आधिकारिक बयान तो जारी नहीं किया है लेकिन पिछले दो दिनों से चल रही खबरों की मानें तो पार्टी के महसचिव गणपति अपने पद से हट गए हैं और दूसरी कमान के नेता बासवराज को पार्टी चलाने की जिम्‍मेदारी सौंपी गई है। बासवराज के नाम से चर्चित नम्‍बाला केसव राव लंबे समय से पार्टी की सैन्‍य इकाई के मुखिया रहे हैं।

पिछले दिनों तेलंगाना में अराकू के विधायक की हत्‍या सहित छत्‍तीसगढ़ में सुरक्षाबलों पर हमले में इस नेतृत्‍व परिवर्तन की आहट साफ़ सुनी जा सकती है। बासवराज सैन्‍य विभाग के प्रमुख रहने के नाते हमलों पर केंद्रित रणनीति के पैरोकार रहे हैं। माना जाता है कि गणपति इनके मुकाबले विचारधारा और लाइन को लेकर ज्‍यादा कठोर थे। पीपुल्‍स वॉर और एमसीसी के विलय के चौदह साल बाद नेतृत्‍व में आने वाले इस परिवर्तन के कई आयाम हो सकते हैं।

पिछली पार्टी कांग्रेस में यह बात जोर शोर से उठायी गई थी कि अब बजुर्ग हो चुके नेताओं को नेतृत्‍वकारी पदों से हटाकर सुरक्षित जगहों पर मार्गदर्शक की स्थिति में लाया जाए ताकि पार्टी को युवा ऊर्जा मिल सके। बासवराज भी कोई खास युवा नहीं हैं। वे साठ पार हैं और गणपति से महज दस साल छोटे हैं लेकिन इसका एक सांकेतिक और रणनीतिक महत्‍व अवश्‍य है।

सीपीआइ(माओवादी) के अस्तित्‍व में आने के बाद से ही पार्टी की कोशिश रही कि शहरी मध्‍यवर्ग और महानगरों को घेरने वाले छोटे शहरों-कस्‍बों में वैचारिक समानता वाले धड़ों के साथ एक कार्यगत एकता कायम की जाए। यह मुपल्‍ला लक्ष्‍मण राव उर्फ गणपति के वैचारिक आग्रह की ही देन थी कि शुरुआती वर्षों में माओवादियों के समर्थन वाले जनसंगठनों का शहरों और कस्‍बों में काफी तेजी से उभार हुआ और कोई 2010 तक तमाम छोटे-बड़े वामपंथी समूहों के काडरों का बड़े पैमाने पर सीपीआइ(माओवादी) के जनसंगठनों में पलायन हुआ।

एक ओर जंगलों में पुलिस व सुरक्षाबलों पर हमले की रणनीति अपनायी गई तो दूसरी ओर शहरों-कस्‍बों और परिसरों के भीतर अलग-अलग मंचों के माध्‍यम से विचारधारा को विस्‍तार देने का काम चलता रहा। इस वैचारिक अभियान के विस्‍तार में हालांकि एक बड़ी चूक यह हुई कि पार्टी के केंद्रीय कमान की ओर से इस पर कोई निगरानी प्रक्रिया जैसी चीज़ नहीं रह गई। विस्‍तार हुआ तो विचलन भी हुआ। शहरों में केंद्रीकृत कमान के चलते समर्थक तत्‍वों की पहचान आसान हो गई।

यूपीए-2 के दौर में जिस तरह का गिरफ्तारी अभियान पूरे देश में चलाया गया, उसने संगठन को जंगलों के बाहर संकुचित होने पर विवश कर दिया। पार्टी का समर्थन आधार कमजोर पड़ने लगा। 2014 में भाजपा सरकार के आने के बाद शिनाख्‍त की प्रक्रिया तेज हुई और शहरी नक्‍सल के नाम पर जिस तरीके से पिछले दिनों बुद्धिजीवियों की धरपकड़ की गई और जंगलों में हमले किए गए, उसने माओवादी आंदोलन को दीवार से सटा दिया।

कह सकते हैं कि गणपति के महासचिव काल में पार्टी ने जितनी तेजी से विस्‍तार किया उससे कहीं ज्‍यादा तेज़ी से अपना समर्थन और आधार गंवा दिया। आज माओवादी पार्टी अपने सबसे बुरे दिनों से गुज़र रही है। काडर आत्‍मसमर्पण कर रहे हैं और जंगलों के बाहर उनकी ताकत तकरीबन खत्‍म हो चुकी है। ऐसे में सैन्‍य प्रमुख का महासचिव बनना और विचाधारात्‍मक नेतृत्‍व का दरकिनार होना पार्टी की ताकत को वापस हासिल करने की दिशा में एक अहम कदम समझा जाना चाहिए।

दूसरी ओर पार्टी से एक समय में जुड़े रहे चर्चित लोकगायक गदर का तेलंगाना विधानसभा चुनाव में परचा भरना भी एक दिलचस्‍प घटनाक्रम है। कुछ दिन पहले गदर दिल्‍ली में राहुल गांधी से मिलने आए थे। गदर का पाटी से बहुत पहले मोहभंग हो चुका था। बताया जाता है कि उनके पार्टी के साथ कुछ वैचारिक मतभेद थे। पिछले दिनों उन्‍हें मंदिरों के चक्‍कर लगाते देखा गया। अब राहुल गांधी से मुलाकात के बाद चुनाव में मुख्‍यमंत्री केसीआर के खिलाफ स्‍वतंत्र प्रत्‍याशी के बतौर खड़ा होने का फैसला दिखाता है कि पार्टी के पुराने दिग्‍गजों के दिमाग में क्‍या चल रहा है। अभी यह तय नहीं है कि गदर किसी पार्टी से टिकट लेंगे या अकेले लड़ेंगे, लेकिन स्‍वतंत्र प्रत्‍याशियों का एक मोर्चा बनाकर उन्‍होंने आगामी चुनावी राजनीति में एक नया आयाम जरूर खोल दिया है।

उधर माओवादी पार्टी ने आगामी विधानसभा चुनावों का हमेशा की तरह बहिष्‍कार करने की बात कही है, लेकिन इस बार खास बात यह है कि छत्‍तीसगढ़ के कुछ इलाकों में माओवादियों ने खुलकर बीजेपी को वोट न देने का आह्वान किया है। यह इत्‍तेफ़ाक ही है कि छत्‍तीसगढ़ में सीपीएम यानी मार्क्‍सवादी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी ने भी ऐसे प्रत्‍याशी को वोट देने की अपील की है जो भाजपा को हराने की क्षमता रखता हो। इस लिहाज से माओवादियों की ओर से अलग से भाजपा का विरोध एक नई बात है।

जानकार मानते हैं कि बहुत मुमकिन है कि इस बार तेलंगाना और छत्‍तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव खूनखराबे के लिए याद रखे जाएंगे। चुनाव से पहले जिस तरह माओवादी हमलों में तेज़ी आई है, अगले एक महीने के दौरान इसके तेज़ होने से इनकार नहीं किया जा सकता।