‘लस्ट स्टोरीज’ के बहाने: ‘जितना अपनी पैंट खोलते हो, उतना ही दिमाग भी खोलो’!



प्रकाश के रे 

कुछ अरसे से देश में सेक्सुअलिटी को लेकर विचार और व्यवहार में हलचलें काफी तेज हुई हैं. दुर्भाग्य से इसमें मानीखेज बहस और अमल तकरीबन गायब ही है. इसका एक सिरा विकृति है, तो दूसरा सिरा अपराध. इस माहौल में ‘लस्ट स्टोरीज’ को कैसे पढ़ा जाये! ठीक इसी समय जब मैं चार फिल्मों के इस संकलन को समझने की कोशिश कर रहा हूं, दो खबरें मेरे सामने हैं- एक, देश की सबसे बड़ी अदालत अगले हफ्ते से समलैंगिकता के मसले पर सुनवाई शुरू करेगी, और दूसरी, हिंदी पट्टी के एक इलाके में पांच-सात युवा एक महिला को बलात्कार के इरादे से घसीटते हुए ले जा रहे हैं और इसकी मोबाइल रिकॉर्डिंग भी कर रहे हैं. दो साल पहले सरकारी आंकड़ों में बताया गया था कि बिहार में साल भर में 800 हत्याएं प्रेम और सेक्स से जुड़े संबंधों के कारण हुई थीं. ऐसे संबंधों से संबद्ध मसले अक्सर मीडिया में आते रहते हैं. कुछ महीने पहले राज्यसभा से सेवानिवृत्त होते हुए तेजतर्रार बौद्धिक नेता डीपी त्रिपाठी ने अपने आखिरी भाषण में कहा था कि हमारी संसद को सेक्स को लेकर भी मुखरता से बहस करनी चाहिए. उनकी बात बिल्कुल सही है. जिस लोकतांत्रिक देश में खाप पंचायतें इस मुद्दे पर आये दिन फतवे और फैसले देती रहती हों, वहां की सबसे बड़ी वैधानिक पंचायत में परहेज क्यों होना चाहिए! पर, वर्जनाओं से अभिशप्त देश की नियति यही है कि सत्तर साल की आजादी के बाद भी समलैंगिकता पर एक सामान्य समझ नहीं बन पायी है. इसी का दूसरा पहलू यह है कि ‘लस्ट स्टोरीज’ जैसी अभिव्यक्तियां उदारवादी उत्सव का कारण बन जाती हैं. यह उत्सव भी संकट का संकेत ही है, जो ऑर्गेज्म को समझने की कोशिश में फेक ऑर्गेज्म को सिलेब्रेट करने लगता है. वैसे फेकनेस के साये में पलती सभ्यता में ऐसा होना अचरज का सबब नहीं होना चाहिए.

बहरहाल, ‘लस्ट स्टोरीज’ पर तमाम समीक्षाएं आ चुकी हैं और उसे लेकर कई तरह की बहसें हो चुकी हैं, इसलिए समीक्षा जैसा कुछ लिखने का मतलब नहीं रह जाता है. परंतु, यह समीक्षाओं पर एक नजर डालते हुए ‘लस्ट स्टोरीज’ को सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों में पढ़ने की एक कोशिश जरूर है. ‘द हिंदुस्तान टाइम्स’ के रोहन नाहर का कहना है कि ये फिल्में ‘दमित सेक्सुअलिटी को उघाड़ती (अनड्रेस करती) है. ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में अलका साहनी ने लिखा है कि ”लस्ट स्टोरीज’ स्त्री के हृदय के रहस्यों पर रौशनी डालने की कोशिश है जिसे अक्सर छुपा दिया जाता है.’ मृदुला आर ‘द न्यूज मिनट’ में लिखती हैं कि यह ‘मानवीय इच्छाओं पर ईमानदार संकलन’ है. ‘स्क्रॉल’ में नंदिनी रामनाथ कहती हैं कि ऐसी चीजें- बिस्तर की चरमराहट, खुद को आनंद देना आदि- जिन्हें आम तौर पर बड़े परदे पर दिखाने की अनुमति नहीं होती, दिखायी गयी हैं. ‘फर्स्ट पोस्ट’ की श्वेता रामाकृष्णन के लिए यह फिल्म ‘बॉलीवुड की सेक्सुअल जागृति की दिशा में एक और कदम’ है. ‘क्विंट’ में सुकतारा घोष का कहना है कि दायरों को तोड़ती ‘लस्ट स्टोरीज’ एक सही कृति है. ‘द वायर’ के तनुल ठाकुर इस संकलन को नैतिकता और ताकत को उलट-पलट (सबवर्सिव) देने वाली कहानियां मानते हैं. बीबीसी हिंदी में लिखते हुए मिहिर पंड्या को ये ‘वासना में संवेदनशीलता तलाशती कहानियां’ नजर आती हैं.

नेटफ्लिक्स पर फिल्में देखने का अनुभव थियेटर या डीवीडी पर फिल्में देखने से अलहदा है. मोबाइल या टैबलेट पर या टीवी पर स्ट्रीम करके देखते हुए अक्सर डिस्ट्रैक्शन- फोन आना, सोशल मीडिया के नोटिफिकेशन आना, पॉज करना, आरामकुर्सी, बिस्तर या सोफे पर करवट बदलना, बीच-बीच में चाय-सिगरेट का ब्रेक लेना, आदि के चलते ‘ओवर द टॉप’ (ओटीटी) प्लेटफॉर्म पर फिल्म देखना एक लेज़ी (साधारण अनुवाद- आलसी) अनुभव है. ये सभी टिप्पणीकार भी कमोबेश इस अनुभव से गुजरे होंगे, पर जब वे संकलन पर लिखने बैठे, तो उस अनुभव और अनुभव के दौरान आते बिखरे हुए विचारों को हाशिये पर रखकर टिप्पणी को एक बड़े आयाम- मेटानैरेटिव- में स्थापित करने लगते हैं. यह भी एक तरह की लापरवाही है.

‘इंडिया टुडे’ के सुकांत दीपक को दिये एक हालिया इंटरव्यू में फिल्मकार अनुराग कश्यप ने बताया है कि इन चार फिल्मकारों ने रिकॉर्ड समय में ‘लस्ट स्टोरीज’ को पूरा किया है. इसी इंटरव्यू में यदि फिल्मकार के कहे इस बात का संज्ञान लिया जाये कि ये चारों फिल्मों को कई सतहों पर देखा-समझा जाना चाहिए, तो फिर इस रिकॉर्ड समय को जल्दबाजी की संज्ञा भी दी जा सकती है. मेटानैरेटिव का विखंडन या उसे संदर्भित करना एक प्रक्रिया के तहत घटित होनी चाहिए. दो टिप्पणीकारों ने कुछ हद तक ऐसा करने की कोशिश की है. अपने चिर-परिचित खिलंदड़ अंदाज में ‘न्यूजलॉण्ड्री’ के अभिनंदन सेखरी कहते हैं- ‘या तो निर्देशकों को यह निर्देश समझ नहीं आया कि यह लस्ट स्टोरीज है, या फिर उन्होंने चार फिल्में, या इसे जो भी नाम दें आप, बनायीं और नेटफ्लिक्स ने कहा कि इनको एक साथ रख लेते हैं और इसका नाम लस्ट स्टोरीज रख देते हैं. यदि आप किसी चीज को लस्ट स्टोरीज कहते हैं, तो फिर आपको लस्ट को विश्लेषित भी करना चाहिए.’ ‘न्यूज18 हिंदी’ में मनीषा पांडे ने महत्वपूर्ण बात कही है- ‘लस्ट मतलब वासना, मुझे यह शब्द पसंद नहीं. कामना ज्यादा बेहतर शब्द लगता है क्योंकि सभ्यता ने इसे शर्मसार नहीं किया, बस देह से उसका ताल्लुक नहीं जमने दिया… तो ये कहानियां देह में बसी कामनाओं की कहानियां हैं.’

यदि यह कहा जा रहा है कि ‘लस्ट स्टोरीज’ वर्जनाओं को तोड़ती, उघाड़ती या रेखांकित करती है, तो कहनेवाले न तो मुख्यधारा की फिल्मों से परिचित हैं और न ही इंटरनेट पर आती लघु फिल्मों से. ‘लस्ट स्टोरीज’ की किसी भी कहानी को ले लीजिये, उस पर फिल्में बन चुकी हैं. यूट्यूब पर ऐसे हजारों की संख्या में वीडियो हैं जो सेक्सुअल रिश्तों के अलग-अलग पहलुओं पर आधारित हैं. ये वीडियो हिंदी समेत तमाम भारतीय भाषाओं में हैं. इरोटिक कहानियों का रेला है इंटरनेट पर. रही बात बड़े परदे की, तो ‘मैं रात भर ना सोई, डंडा पकड़ के रोई’ से लेकर ‘खटिया बोले चूंचूंचूं’ और ‘खेत गये बाबा, बाजार गयी मां, अकेली हूँ घर में तू आ जा बालमा’ तक अनगिनत उदाहरण हैं. शादी से पहले सेक्स, विवाहेतर संबंध, फ्लर्टिंग, लिव-इन, बिनब्याही मां- कौन-सा विषय है जिस पर फिल्में नहीं बनीं! और ये शुरू से हो रहा है. माया गोविंद, सपना अवस्थी, अनु मलिक, पंकज निहलानी, डेविड धवन ने तो वर्जनाओं को लुगदी में बदल दिया. ऐसे में ‘लस्ट स्टोरीज’ को लेकर समीक्षकों का यह उत्साह समझ से परे है.

चारों फिल्मों में महज एक सीन है, जिसे ऑरिजिनल या क्रियेटिव कहा जा सकता है, जो करण जौहर के सेग्मेंट में है- दादी सास के हाथ में वाइब्रेटर का रिमोट और बहु का लिविंग एरिया में ऑर्गेज्म महसूस करना. किसी भी कहानी के किसी भी किरदार में सेक्स, वासना या कामना से पैदा हुआ तनाव नहीं दिखता. अनुराग कश्यप की टीचर नायिका में बेचैनी दिखती है, पर वह सेक्स से कम, कई कारणों से पैदा अवसाद का चिन्ह है. वह जैसे लड़के और उसकी क्लासमेट के रिश्ते पर रियेक्ट करती है, वह किसी और शहर में रह रहे अपने पति के हिसाब-किताब को कैसी पचा पाती होगी! यह भी कुछ अजीब ही है कि ‘लस्ट स्टोरीज’ की महिलाओं में ही कूट-कूट के लस्ट भरा है, मर्दों में संयम है. ऐसे चित्रण को देखकर तो फ्रायड और जुंग भी एकबारगी परेशान हो जायें.

वर्जना से बाहर जहां भी सेक्स होगा, तो उसका मनोवैज्ञानिक परेशानी में बदलना लाजिमी है. लेकिन यहां सब निश्चिंत हैं. यह भी हो सकता है कि लघु फिल्म को लेकर निर्देशकों और कलाकारों में एक लापरवाही का भाव रहा हो. जौहर का ऑर्गेज्म वाला दृश्य तो सीधे किसी पोर्नोग्राफिक सीन से उठाया गया है, जहां फेक ऑर्गेज्म दिखाया जाता है. कुल मिलाकर क्लिक्बैट अल्गोरिद्म के जमाने में हिंदी सिनेमा के चार प्रतिभावान फिल्मकारों ने यही साबित किया है कि सेक्स से पैदा हुई कुंठा को कुछ सहलाओ और माल बनाओ. यह ‘AIB’ का ही एक संस्करण लगता है क्योंकि कहानियों का ट्रीटमेंट हंसी-मजाक का ही है.

सेक्सुअलिटी की इस तरह की सतही समझ से दमित सेक्सुअलिटी को कुछ होना होता, तो दादा कोंड़के से लेकर भोजपुरी सिनेमा के भौंड़ेपन ने अब तक क्रांति कर दी होती- अंधेरी रात में दिया तेरे हाथ का विमर्श, लौंडे के हाथ में लहंगे का रिमोट, लूलिया का लमहर भतार मांगना… गिनते जाइये.

लेकिन, यह भी है कि क्रांति तो हो रही है, भले ही उसका हिसाब और हो. गांवों-कस्बों में सांस्कृतिक आयोजन के नाम पर नाच-गाना के जो प्रोग्राम हो रहे हैं और उन्हें वीडियो के रूप में सोशल मीडिया और यूट्यूब पर धड़ल्ले से डाला जा रहा है. यह पूरे देश में हो रहा है. पॉर्न साइटों पर देशी वीडियो खूब चल रहे हैं. अंग्रेजी, हिंदी और अन्य भाषाओं में किशोर रोमांस से लेकर शारीरिक संबंधों पर आधारित किताबें खूब छप रही हैं. किसी भी स्तर पर ‘लस्ट स्टोरीज’ इनसे कैसे अलग है!

इस संदर्भ में सेक्सुअल क्रांतियों के बारे में कुछ उल्लेख शायद मतलब का हो सकता है. पचास साल पहले 1968 में फ्रांस में छात्रों के विद्रोह को बीसवीं सदी की महान घटनाओं में गिना जाता है. उसकी शुरुआत मार्च, 1968 में पेरिस के एक विश्वविद्यालय के छात्रों की इस मांग से हुई थी कि किशोर और युवा छात्र-छात्राओं के एक साथ सोने की आजादी मिले. बहुत जल्दी यह आंदोलन पितृसत्ता के खिलाफ आंदोलन में बदल गया. मई और जून के महीने तो फ्रांसीसी सरकार के लिए बेहद खतरनाक थे. छात्रों के आंदोलन ने मजदूरों को भी उकसा दिया था. मजदूरों की माँगें तो सीधी और साफ थीं, पर छात्रों के नारे राजनीतिक कम, दार्शनिक अधिक थे- मार्क्सवादी- पर ग्रुचो की सोच जैसी (ग्रुचो मार्क्स एक कॉमेडियन थे), वास्तविक बनो- असंभव मांगो, इच्छाओं को हकीकत बनाओ, जितनी अपनी पैंट खोलते हो- उतना ही दिमाग भी खोलो- ये सब नारे हुआ करते थे. एक मांग यह भी थी कि भूरे रंग की पैंट की जगह बैंगनी रंग की पैंट पहनने की अनुमति मिले.

उसी दौर में यूरोप के अन्य देशों और अमेरिका में भी इसी तरह विद्रोही स्वर गूंज रहे थे. इन सबको स्पिरिट ऑफ 1968 की संज्ञा दी जाती है. फ्रांस के इस आंदोलन के असर और अहमियत पर बहुत कुछ कहा गया है. और, यह सिलसिला अब भी जारी है. इस संदर्भ में एक कहानी याद आ रही है. किसी यूरोपीय पत्रकार ने चेयरमैन माओ से फ्रांसीसी क्रांति के डेढ़ सौ साल पूरे होने के मौके पर उसका मूल्यांकन पूछा. इस पर माओ ने कहा कि अभी इस पर कुछ कहना जल्दबाजी है. यही हाल 1968 के साथ भी है. अनेक विश्लेषक मानते हैं कि 1950 के दशक के सामाजिक और सेक्सुअल दमन से 1970 के दशक और बाद के सामाजिक और सेक्सुअल स्वतंत्रता, और भ्रम के लिए यह विद्रोह बड़ा कारक है. बाद के समय की सहिष्णुता, व्यक्तिवाद, स्वतंत्र सोच और उपभोक्तावाद लाने में इसका ही परिणाम था.

आलोचनाएं भी कम नहीं हुई हैं. साल 2007 में निकोलस सारकोजी ने राष्ट्रपति पद के अपने प्रचार अभियान में वादा किया था कि वे 1968 की विरासत को समाप्त कर देंगे जिसकी वजह से स्कूलों के नतीजे खराब हो रहे हैं, अपराध बढ़ रहे हैं और देशभक्ति की पुरानी परंपरा कमजोर हो रही है. यह और बात है कि सारकोजी 1968 के मूल्यों के लाभार्थी रहे हैं- शादियां, तलाक और लिव-इन, साथ में भ्रष्टाचार भी. उस आंदोलन में भागीदार रहे दार्शनिक रेजिस डेब्रे ने बाद में लिखा कि इस आंदोलन से व्यक्तिवाद और 1980 और 1990 के दशकों के अति-पूंजीवाद को आधार मिला.

पश्चिमी दुनिया में 1960 से 1980 के बीच हेटेरोसेक्सुअल (स्त्री-पुरुष के बीच सेक्स संबंध), मोनोगेमी (एक साथी से संबंध), शादी, गर्भ-निरोधक गोलियां, कंडोम, सार्वजनिक नग्नता, पोर्नोग्राफी, शादी से पहले सहवास, समलैंगिकता, वैकल्पिक सेक्सुअलिटी, गर्भपात जैसे मामलों पर बहुत बहसें और आंदोलन हुए तथा कायदे-कानून बदले गये.

यह सब कहने का मतलब यह है कि सांस्कृतिक बदलाव शून्य में घटित नहीं होते. उनका सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संदर्भ होता है. अधकचरी और अगंभीर कलात्मक अभिव्यक्तियों से यह होना होता, तो संस्कृत काव्य से लेकर कोकशास्त्र की परपंरा में सेक्सुअल वर्जनाओं को अब तक बह जाना चाहिए था. एक साथी के साथ सेक्स को ही अगर समझना था, तो ‘लस्ट स्टोरीज’ के निर्देशकों को कम-से-कम नेटफ्लिक्स पर ही वोक्स की डॉक्यूमेंट्री देख लेनी चाहिए थी.

आखिर में दो बातें और. दिल्ली में 1857 के गदर के दौरान चार महीने विद्रोहियों का कब्जा रहा था. उस समय अदालत में एक आदमी ने मुकदमा दायर किया कि उसकी बीवी किसी दूसरे मर्द के साथ है. औरत से जब पूछा गया तो उसने जवाब दिया कि उसका पति उसे शारीरिक रूप से तुष्ट नहीं कर पाता है, इसलिए वह उसके साथ नहीं रहना चाहती. उसे अदालत ने रोका नहीं. करीब डेढ़ दशक पहले किसी बतकही में एक सेक्सवर्कर की टिप्पणी थी कि इस शहर में दो काम कभी नहीं रुक सकते- खुदाई और …!


लेखक सिनेमा पर शोध प्रबंध लिख चुके हैं