राफेल पर सुप्रीम कोर्ट की कथित ‘क्लीन चिट’ और अनुत्तरित सवाल


सुप्रीम कोर्ट फैसला उन सवालों के लिए ज्यादा याद किया जाएगा जिनका फैसला अदालत ने नहीं किया, बजाय इसके जिन पर फैसला दिया गया।”





पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम का कॉलम इस बार राफेल मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर है। वे कहते हैं, “ …. सुप्रीम कोर्ट ने 14 दिसंबर, 2018 को जो फैसला दिया, वह उन सवालों के लिए ज्यादा याद किया जाएगा जिनका फैसला अदालत ने नहीं किया, बजाय इसके जिन पर फैसला दिया गया।”

एक जगह उन्होंने लिखा है, “ …. इन बयानों और दावों में एक भी सही नहीं है, और सीमित क्षेत्राधिकार की बात कहते हुए अदालत ने इनकी सच्चाई की भी जांच नहीं की। तो फिर कौन कर सकता है? स्वाभाविक रूप से इसका जवाब यही है कि सिर्फ संसदीय जांच ही इन बयानों / दावों के झूठ का पर्दाफाश कर सच्चाई को सामने ला सकती है।”

आगे उन्होंने यह भी कहा है, “ …. कम से कम तीन ऐसे बड़े सवाल हैं जिनका जवाब सिर्फ संसदीय जांच से ही मिल सकता है।” लेकिन भक्त हैं कि राहुल गांधी से माफी मांगने के लिए कह रहे हैं।

पढ़िए पी चिदंबरम की टिप्पणी। खास बात यह है कि मौजूदा वित्त मंत्री कानून के जानकार हैं तो पूर्व वित्त मंत्री कानून के साथ-साथ अर्थशास्त्री भी हैं और गृहमंत्रालय भी संभाल चुके हैं। उनकी यह टिप्पणी मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी गई थी। हिन्दी अनुवाद जनसत्ता के सौजन्य से।

संसदीय जांच से उजागर होगा सच

किसी भी फैसले से जो तय किया जाता है वह उसी के लिए अधिकृत होता है, उसके लिए नहीं जो तर्कसंगत रूप से निर्णय के अनुकूल लगे। न्याय का यह स्थापित नियम है।

मनोहर लाल शर्मा बनाम नरेंद्र दामोदर दास मोदी व अन्य (राफेल सौदा) के मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने 14 दिसंबर, 2018 को जो फैसला दिया, वह उन सवालों के लिए ज्यादा याद किया जाएगा जिनका फैसला अदालत ने नहीं किया, बजाय इसके जिन पर फैसला दिया गया।

अदालत का रुख एकदम सामान्य और स्पष्ट था – रक्षा उत्पादन व खरीद संबंधी मामलों की जांच में अदालत के क्षेत्राधिकार की काफी सीमाएं हैं। यह बात आम पाठक से छूट न जाए, इसलिए अदालत ने इन शब्दों के साथ अपना फैसला पूरा किया – हम हालांकि यह स्पष्ट करते हैं कि ऊपर दिए गए हमारे विचार भारतीय संविधान की धारा 32 के तहत क्षेत्राधिकार के उपयोग के नजरिए से हैं जिन्हें मौजूदा मामले में लागू किया गया है।

क्षेत्राधिकार की सीमाएं

इससे स्पष्ट है- याचिकाकर्ताओं ने संविधान की धारा 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट के क्षेत्राधिकार की बात करके गलती की। विवाद में जांच या मुख्य मुद्द तय करने से इंकार करने का व्यावहारिक रूप से हर निष्कर्ष अदालत के क्षेत्राधिकार के दायरे से जुड़ा है।

‘यह भी पहले से स्पष्ट कर दिया गया था कि दाम का मुद्दा या उपकरण के तकनीकी पक्ष और औचित्य से जुड़े मामलों पर अदालत द्वारा सुनवाई नहीं की जाएगी।’ (पैरा 12)

‘हम इससे संतुष्ट हैं कि प्रक्रिया पर संदेह करने का कोई कारण नहीं है, और अगर कोई छोटी-मोटी खामी पाई भी जाती है तो उससे न तो सौदा रद्द होगा और न ही अदालत को इसकी विस्तृत जांच की जरूरत है।’ (पैरा 22)

‘हम 136 के बजाय 36 विमानों की खरीदे के फैसले के विवेक पर फैसला नहीं दे सकते।’ (पैरा 22)

‘इस तरह के मामलों में कीमतों की तुलना करना निश्चित रूप से अदालत का काम नहीं है।’ (पैरा 26)

‘अदालत के लिए न तो यह उचित ही होगा, न ही इसके दायरे में है कि वह इस मामले की तह में जाकर जांच करे कि तकनीकी रूप से क्या सही है, क्या नहीं।’ (पैरा 33)

सुप्रीम कोर्ट ने जो ये सही-सही कारण गिनाए हैं, उन्हें देखते हुए तो सुप्रीम कोर्ट को अपने दरवाजे से ही याचिकाकर्ताओं को लौटा देना चाहिए था।

दोहरे दावे / बयान

फैसले का जो दूसरा पक्ष है, वह हैरत में डालने वाला है। लगता है सरकार ने सील बंद लिफाफे में जो कुछ दिया या जो जुबानी तर्क दिए, उन्हें अदालत ने ‘स्वीकार’ कर लिया। जैसे उदाहरण देखिए- कि मूल आरएफपी (खरीद के लिए अनुरोध) को मार्च 2015 में वापसे लेने की प्रक्रिया शुरू हो गई थी; कि अनसुलझे मुद्दे की वजह से दासो और हिंदुस्तान एअरोनॉटिक्स के बीच अनुंबध वार्ता सिरे नहीं चढ़ पाई; कि बातचीत करने वाला भारतीय दल कीमतों, डिलीवरी और रखरखाव को लेकर बेहतर शर्तों तक पहुंच चुका था; प्रक्रियाएं शुरू हो चुकी थीं; कि कैग की संशोधित रिपोर्ट संसद के समक्ष रखी गई थी और कैग की रिपोर्ट को पीएसी ने देख लिया था; कि कीमतों के ब्योरे के खुलासे को लेकर वायुसेना अध्यक्ष ने अपनी आपत्ति जाहिर की थी; दोनों देशों की सरकारों के बीच आइजीए (अंतर-सरकारी समझौते) की धारा 10 के तहत कीमतों के ब्योरे को गोपनीय रखा गया है; कि 36 राफेल विमानों की खरीद में व्यावसायिक लाभ है; रखरखाव और हथियार पैकेज के रूप में आइजीए में ज्यादा बेहतर शर्तें थीं; एचएएल द्वारा अनुबंध शर्तों को पूरा करने को लेकर दासो काफी सतर्क थी; कि दासो ने कई कंपनियों के साथ भागीदारी का समझौता किया है और सौ से ज्यादा कंपनियों के साथ बात कर रही है; कि रिलायंस कंपनी और दासो के बीच संभावित समझौते की शुरुआत 2012 में ही हो गई थी और कि फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति ओलांद ने जो इंटरव्यू दिया, उससे दोनों पक्षों ने इंकार कर दिया। इन बयानों और दावों में एक भी सही नहीं है, और सीमित क्षेत्राधिकार की बात कहते हुए अदालत ने इनकी सच्चाई की भी जांच नहीं की। तो फिर कौन कर सकता है? स्वाभाविक रूप से इसका जवाब यही है कि सिर्फ संसदीय जांच ही इन बयानों / दावों के झूठ का पर्दाफाश कर सच्चाई को सामने ला सकती है।

अदालत ने आगे चल कर जिस तरह की दरियादिली दिखाई है, उसने अदालत को भारी गलती करने के रास्ते पर चला दिया है। अभी तक सीएजी की कोई रिपोर्ट, न संशोधित और न ही अन्य संस्करण, संसद में रखी गई है, न ही इस रिपोर्ट को पीएसी के समक्ष रखा गया है, न ही पीएसी ने इसकी जांच की है। अदालत को गुमराह करने के बाद सरकार ने बड़ी ही आसानी से अदालत पर अपने नोट में ‘गलत व्याख्या’ का आरोप लगा दिया! सरकार ने अदालत को अंग्रेजी व्याकरण भी समझा दिया! ‘सील बंद लिफाफा’ स्वीकार करने के ये जोखिम होते हैं।

अनुत्तरित सवाल

कम से कम तीन ऐसे बड़े सवाल हैं जिनका जवाब सिर्फ संसदीय जांच से ही मिल सकता है।

– सरकार ने दासो और एचएएल के बीच हुए तकनीकी हस्तांतरण समझौते और कार्य साझेदारी समझौते (13 मार्च, 2014) को क्यों रद्द किया, जबकि दोनों के बीच (दासो के सीईओ 28 मार्च, 2015 और विदेश सचिव 8 अप्रैल, 2015) 95 फीसद बातचीत हो चुकी थी? 

– अगर नई कीमत नौ से पंद्रह फीसद कम है, तो सरकार ने 126 विमानों की खरीद का दासो का प्रस्ताव क्यों नहीं माना, जबकि वायु सेना को इन लड़ाकू विमानों की सख्त जरूरत है?
सरकार ने संपूर्ण या आंशिक ऑफसेट अनुबंधों के लिए एचएएल के मामले को क्यों नहीं आगे बढ़ाया, जो कि भारत में विमान बनाने वाली एकमात्र कंपनी है?

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद कई असत्यापित दावे और अनुत्तरित सवाल हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने संसदीय जांच को अपरिहार्य बना दिया है, जो वैसे भी होना ही था। इसे जनता की अदालत में भेज दिया है।

वरिष्ठ पत्रकार   संजय कुमार सिंह   की फ़ेसबुक वॉल से।