दो साल में बीजेपी ने बना लिए सैकड़ों बहुमंज़िला दफ़्तर, मत पूछिए कैसे ?



 

रवीश कुमार

 

क्या आप किसी ऐसी पार्टी के बारे में जानते हैं जिसने दो साल से कम समय के भीतर सैंकड़ों नए कार्यालय बना लिए हों? भारत में एक राजनीतिक दल इन दो सालों के दौरान कई सौ बहुमंज़िला कार्यालय बना रहा था, इसकी न तो पर्याप्त ख़बरें हैं और न ही विश्लेषण। कई सौ मुख्यालय की तस्वीरें एक जगह रखकर देखिए, आपको राजनीति का नया नहीं वो चेहरा दिखेगा जिसके बारे में आप कम जानते हैं।

भारतीय जनता पार्टी 6 अप्रैल को यूपी में 51 नए दफ़्तरों का उद्घाटन करने जा रही है। वैसे सभी 71 ज़िलों में नया दफ्तर बन रहा है मगर उद्घाटन 51 का होगा। कुछ का उद्घाटन पहले भी हो चुका होगा। हमने प्राइम टाइम में फ़ैज़ाबाद, मथुरा, श्रावस्ती, बुलंदशहर, मेरठ, फिरोज़ाबाद के नए कार्यालयों की तस्वीर दिखाई। सभी नई ख़रीदी हुई ज़मीन पर बने हैं। इनकी रुपरेखा और रंग रोगन सब एक जैसे हैं। बीजेपी ने सादगी का ढोंग छोड़ दिया है। उसके कार्यालय मुख्यालय से लेकर ज़िला तक भव्य बन गए हैं।

इससे पता चलता है कि राजनीतिक दल के रूप में बीजेपी अपनी गतिविधियों को किस तरह से नियोजित कर रही है। संगठन को संसाधनों से लैस किया जा रहा है। कार्यकर्ताओं को कारपोरेट कल्चर के लिए तैयार किया जा रहा है। 2015 में लाइव मिंट की एक ख़बर है। बीजेपी दो साल के भीतर 630 ज़िलों में नए कार्यालय बनाएगी। 280 ज़िलों में ही उसके अपने मुख्यालय थे। बाकी किराये के कमरे में चल रहे थे या नहीं थे। दो साल के भीतर इस लक्ष्य को साकार कर दिखाया है।

दिल्ली में जब भाजपा का मुख्यालय बना तो कोई नहीं जान सका कि इसकी लागत कितनी आई। 2 एकड़ ज़मीन में 7 मंज़िला इमारत का दफ्तर बन कर तैयार हो गया और उसे भीतर से किसी ने देखा तक नहीं। मतलब मीडिया ने अंदर से उसकी भव्यता दर्शकों और बीजेपी के ही कार्यकर्ताओं को नहीं दिखाया। इस मुख्यालय में 3-3 मंज़िला इमारतों के दो और ब्लॉक हैं। आम तौर पर नया भवन बनता है तो उसकी रिपोर्टिंग हो जाती है। लेकिन किसी चैनल ने आज तक उसकी रिपोर्टिंग न की। इजाज़त भी नहीं मिली होगी। यही नहीं, अध्यक्ष के कमरे तक तो कार्यकर्ता से लेकर पत्रकार सब जाते होंगे मगर वहां की या गलियारे की कोई एक तस्वीर तक मेरी नज़र से नहीं गुज़री है।

दिल्ली मुख्यालय के अलावा बाकी जगहों पर मीडिया के लिए पाबंदी नहीं है। तभी तो हमने प्राइम टाइम में छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश के कई कार्यालयों को भीतर से भी दिखाया। इन सब में 200-400 लोगों के बैठने का काफ्रेंस रूम है। प्रेस के लिए अलग से कमरा है। ऊपरी मंज़िल पर कार्यकर्ताओं के लिए गेस्ट हाउस है। बाहरी बनावट में थोड़े बहुत बदलाव के साथ हर जगह डिज़ाइन एक सी है। इन सभी को एक नेटवर्क से जोड़ा गया है। जबलपुर और रायपुर का कार्यालय देखकर लगता है कि कोई फाइव स्टार होटल है। ऐसे ही सब हैं।

मध्य प्रदेश के 51 ज़िलों में से 42 में नए दफ़्तर बन कर तैयार हैं। बाकी बचे हुए ज़िलों में बन रहा है। छत्तीसगढ़ में 27 ज़िलों में नए कार्यालय बने हैं। सिर्फ तीन राज़्यों को जोड़ दें तो बहुमंज़िला कार्यालयों की गिनती सौ से अधिक हो जाती है। बीजेपी के भीतर एक किस्म की रियल स्टेट कंपनी चल रही है। यही सब बीजेपी के कार्यकर्ता और समर्थकों को जानना चाहिए। नोटबंदी के समय पटना से कशिश न्यूज़ के संतोष सिंह ने कई रिपोर्ट बनाई थी। नोटबंदी से ठीक पहले बीजेपी ने देश के कई ज़िलों में ज़मीन ख़रीदी थी। उनकी रिपोर्ट में था कि बिहार में कई ज़िलों में नगद पैसे देकर ज़मीनें ख़रीदी गईं थीं। कांग्रेस ने थोड़े समय के लिए मुद्दा बनाया मगर छोड़ दिया।

क्या यह नहीं जानना चाहिए कि बीजेपी के पास कहां से इतने पैसे आए? कई सौ इमारतों को बना देना आसान नहीं है। कई राज्यों और दिल्ली में मज़बूती से सरकार चलाने के बाद भाजपा न तो इतने अस्पताल बनवा सकी होगी और न ही इतने कालेज खोल पाई होगी। यूनिवर्सिटी की बात तो छोड़िए। मगर 600 से अधिक मुख्यालय बना लेना आसान बात नहीं है।

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स के अध्ययन के मुताबिक 2017-18 में बीजेपी ने अपनी आय 1027 करोड़ बताई है। 2016-17 में 1034 करोड़ आय थी। मीडिया रिपोर्ट में है कि अब जो भी चंदा राजनीतिक दलों को मिलता है उसका 80 से 90 फीसदी बीजेपी के हिस्से में जाता है। बीजेपी के पास पैसा आया है। सिर्फ एक पार्टी के पास ही अधिकतम चंदा पहुंच रहा है, यह भी बहुत कुछ कहता है।

चंदे के पैसे से तो कई सौ बहुमंज़िला कार्यालय नहीं बन सकता। बीजेपी की ज्ञात आय तो 1000 करोड़ है। इतने में दिल्ली से लेकर बहराइत तक ज़मीन खरीद कर अपार्टमेंट जैसा कार्यालय बनाना संभव नहीं जान पड़ता। वैसे भी बीजेपी पूरे ख़र्चे के साथ साल भर चुनावी और राजनीतिक सभाएं करती रहती हैं। आप अमित शाह की रैलियों की ही तस्वीर देखिए। शामियाने में सभा होने के दिन चले गए। उन सभी को देखकर भी लगता है कि कोई केंद्रीकृत व्यवस्था होगी। यही नहीं बीजेपी के विज्ञापन का खर्च का भी ध्यान रखें। उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने के लिए सबसे अधिक पैसा और संसाधन बीजेपी देती है। इन सबके बीच 600 से अधिक कार्यालय बने हैं।