दमित इतिहासबोध भी है भाजपा के जीत के पीछे



जितेन्‍द्र कुमार

उत्तर प्रदेश चुनाव परिणाम के बाद ईवीएम मशीन से छेड़छाड़ के आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच इस पर बात करने की जरूरत तो है ही कि आखिर बिना किसी लहर के बीजेपी को इतनी अप्रत्याशित जीत कैसे मिली है? लेकिन इसके इतर भी हमारे समाज में ऐसी राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियां पैदा हुई हैं जिस पर बात करने की जरूरत है क्योंकि यह देश में बुनियादी लोकतंत्र और व्यक्ति स्वतंत्रता को कायम रखने के लिए अनिवार्य है।

उत्तर प्रदेश चुनाव के तीसरे चरण में प्रधानमंत्री मोदी ने आम सभा को संबोधित करते हुए कहा कि मुसलमानों के लिए कब्रिस्तान हो तो हिन्दुओं के लिए भी श्मशान हो। प्रधानमंत्री मोदी की इस बात को सुनकर बहुत से चुनावी व राजनीतिक विश्लेषकों ने सोचा कि यह प्रधानमंत्री मोदी का हताशा में दिया गया वैसा ही बयान है जो उनकी पार्टी के नेताओं ने बिहार चुनाव के दूसरे चरण के बाद पाकिस्तान भेजने की बात कहकर कही थी।

और हमने भी मान लिया कि बीजेपी बिहार में चुनाव हार गई इसलिए अब वह इन मुद्दों को भविष्य में नहीं उठाएगी। लेकिन हकीकत यह है कि आरएसएस को उन गड़े मुर्दों को उखाड़ने में महारत हासिल है जो इस ‘सांस्कृतिक संगठन’ ने अपनी सुविधा के लिए गढ़े हैं। वे तब तक उन बातों को दुहराते रहते हैं जब तक अपने लक्ष्य को प्राप्त न कर लें।

प्रधानमंत्री मोदी के इस बयान ने दलितों और भूमिहीनों को बीजेपी के साथ लाने में महती भूमिका निभाई। अगर हम हिन्दुओं की दाह-संस्कार पद्धति को देखें तो इसमें ज्यादातर मामले में दाह-संस्कार हिन्दू अपनी जमीन में करते हैं या फिर नदी के किनारे करते हैं। विद्यमान जातीय व्यवस्था में दलितों को दाह-संस्कार करने में सबसे ज्यादा परेशानी होती है क्योंकि उनके पास निजी जमीन नहीं है। लेकिन प्रधानमंत्री ने इस मामले को इस तरह से ट्विस्ट किया जैसे कि मुसलमानों के लिए कब्र की व्यवस्था यह ‘सेकुलर’ सरकार कर रही है लेकिन हिन्दुओं (खासकर भूमिहीन हिन्दुओं और दलितों) के लिए श्मशान घाट की व्यवस्था करने में असफल रही है। जबकि हकीकत यह भी है कि कोई भी सरकार कब्रिस्तान नहीं बनवाती है बल्कि कब्रिस्तान पर कोई अतिक्रमण न कर ले, इसके लिए कभी-कभार चहारदीवारी की व्यवस्था जरूर करवा देती है। लेकिन जिस रूप में इस बात को रखा गया उससे दलितों को ‘मुसलमानपरस्त’ अखिलेश और मायावती के खिलाफ राय बनाने में मदद मिली। और दलितों और पिछड़ों के एक बड़े समूह ने बीजेपी को वोट दिया।

यह सही है कि एक प्रधानमंत्री के रूप में मोदी को यह बयान नहीं देना चाहिए था लेकिन क्या यह बात भी उतनी सही नहीं है कि वह आरएसएस का स्वयंसेवक भी है जिसकी बुनियाद मुसलमानों के खिलाफ धार्मिक धृणा है? यह भी सही है कि सार्वजनिक जीवन में लोगों को न सिर्फ सही होना चाहिए, बल्कि सही दिखना भी चाहिए। मोदी अपने इस बयान में तथ्यात्मक रूप से भले ही गलत हों, लेकिन लगभग पिछले सौ वर्षों से आरएसएस के तैयार किए गए नैरेटिव ने सामान्य हिन्दुओं को बीजेपी के पक्ष में लामबंद करने में मदद की।

देश के बृहतर हिंदुओं के मन में बहुत पहले से ही एक धारणा बैठा दी गई है कि उनके साथ यह ‘सेक्युलर’ राज्यसत्ता लगातार भेदभाव करती रही है और मुसलमान का समर्थन करती है। बचपन से हम सुनते आए हैं कि होली में पानी नहीं आता है जबकि रमज़ान में सुबह-सुबह पानी आ जाता है। उसी तरह, दिवाली पर बिजली कट जाया करती है, लेकिन ईद में बिजली अनिवार्यतः आती है। यह बात अस्सी के दशक के शुरूआती दिनों से हम सुनते आ रहे हैं जबकि उस समय बिहार के हमारे गांव में न बिजली थी और न ही नलके से आने वाला पानी। दरअसल उस समय भी हम चापाकल से पानी पीते थे और अधिकतर गांव में आज भी वही स्थिति है। यह बातें जब बताई जाती थी तो वह बिहार के दरभंगा और अन्य शहरों के बारे में की जाती थी। उन शहरों को उस समय तक अधिकांश लोगों ने देखा भी नहीं था जबकि यह बात पूरी तरह गलत थी क्योंकि बिजली के हालात तो आज भी ठीक नहीं हैं।

दूसरी बात, अगर तार्किक ढ़ंग से सोचें तो यह बात अटपटी होने के मुकाबले झूठी ज्‍यादा है क्योंकि हम जानते हैं रमजान में इतने पानी की जरूरत नहीं होती है जितनी होली में क्योंकि होली में रंग खेलने और रंग धोने के लिए भी पानी चाहिए। लेकिन इस तरह की बातें हमारे दिलो-दिमाग में काफी गहराई से बैठा दी गई हैं जिसका कोई तर्क नहीं है। हां, लेकिन एक बड़ी सच्चाई यह भी है कि धारणाओं के लिए तर्क की नहीं भावना की जरूरत पड़ती है और दुर्भाग्य से वो भावनाएं हमारे समाज में व्याप्त हैं।

हिंदुओं को बीच-बीच में यह भाव भरकर उकसाया जाता है कि उनके साथ पिछले साढ़े चार सौ वर्षों से शासकों द्वारा भेदभाव होता रहा है- पहले मुसलमानों ने, बाद में मुसलमानपरस्त अंग्रेजों ने और बाद में सेकुलर सरकारों ने। अपनी स्थापना के शुरू से ही आरएसएस मुसलमानों के खिलाफ गोलबंदी का काम करता रहा है। बिहार के चुनाव में भी प्रधानमंत्री मोदी ने यह कहा था कि अतिपिछड़ों का आरक्षण एक ‘विशेष’ धर्म के लोगों को दे दिया जाता है। वहां मोदी को अपनी उस बात का लाभ इसलिए नहीं मिल पाया क्योंकि वहां लालू यादव जैसा व्यक्ति था जिन्होंने आरक्षण विरोध के लिए सीधे तौर पर बीजेपी और आरएसएस को कठघरे में उससे पहले ही खड़ा कर रखा था।

हम सुशासन या ‘सबका साथ सबका विकास’ के जुमले के साथ ही मान लेते हैं कि बीजेपी भाजपा राम मंदिर का निर्माण, समान आचार संहिता, धारा 370 या फिर हिन्दू राष्ट्र की बात नहीं उठाएगी, लेकिन संघ इन बातों को व्यवहारिक रूप से उठाने में कभी परहेज नहीं करता है। इसलिए जहां कहीं भी चुनाव होता है और घोषणा पत्र में ये मसले रहते हों या नहीं रहते हों, ये सारे मसले चुनाव के दौरान ‘हमारे हिन्दू मन’ को झकझोरते हैं जो चुनाव को गहरे प्रभावित करता है। बृहत हिन्दुओं को ‘लव जेहाद’ का मसला भी काफी गहरे मथता है। आरएसएस ने इस झूठ को बहुत ही शिद्दत से हिन्दुओं के मन में बिठा दिया है कि हिन्दू लड़कियों से मुसलमान जोर-जबर्दस्ती शादी कर रहे हैं। चूंकि उत्तर भारतीय ग्रामीण इलाकों में हिन्दुओं की मुसलमानों से मिली-जुली आबादी है, इसलिए दो लड़के-लड़कियों के बीच हुए प्रेम संबंध और शादी लव जिहाद हो जाता है क्योंकि लड़का मुसलमान है। जबकि लोहिया ने जाति तोड़ने का सबसे असरकारी औजार अंतरजातीय विवाह बताया था जिस पर सोशलिस्ट पार्टी के लोग विश्वास करते थे, लेकिन अभी का हाल देखिए कि पिछले कई वर्षों से सत्ता में रहे लोहिया के राजनीतिक वारिस के समय में लव जेहाद की सबसे अधिक घटनाओं को प्रचारित किया गया और सत्ताधारी पार्टी इसका ठीक से वैचारिक विरोध तक नहीं कर पाई। इसलिए कभी भी और कहीं भी संघ या उसके सहयोगी संगठन इसे अपने एजेंडे से ओझल नहीं होने देते हैं।

दुखद यह है कि हम बहुत ही असामान्य दौर में जी रहे हैं। देश के सभी राजनीतिक दल हिन्दू तुष्टीकरण में लगे हुए हैं क्योंकि पार्टियों में हिन्दुओं का डर समा गया है।


जितेन्‍द्र कुमार वरिष्‍ठ पत्रकार हैं। दो दशक से ज्‍यादा समय मुख्‍यधारा के मीडिया में बिता चुके हैं। सामाजिक न्‍याय के संबंधित विषयों पर ग‍हरी पकड़ रखते हैं। इनके और लेख पढ़ने के लिए यहां जाएं।