उर्दू में शपथ पर एफ़आईआर ! तो क्या दूसरी राजभाषा का दर्जा छिनेगा यूपी में !



अलीगढ़ में एक नवनिर्वाचित बीएसपी पार्षद के ख़िलाफ़ इसलिए एफआईआर कराई गई है कि उन्होंने उर्दू में शपथ ली है।

शपथग्रहण के दौरान बीएसपी पार्षद मुशर्रफ हुसैन उर्दू में ही शपथ लेने के लिए अड़े हुए थे जबकि बीजेपी पार्षद इसे हिंदी का अपमान बताते हुए हंगामा कर रहे थे। आरोप है कि बीजेपी कार्यकर्ताओं ने उनकी पिटाई कर दी। हुसैन ने जान से मारने की साज़िश करने का आरोप लगाया है।

इस सिलसिले में छपी अख़बारों में भी इस बात को ख़ास तवज्जो नही दी गई कि उर्दू उत्तरप्रदेश की राजभाषा है और उर्दू में शपथ लेना किसी का संवैधानिक अधिकार है। मोदी और योगी कालीन बीजेपी में शायद इन चीज़ों का कोई मतलब नहीं रह गया है। सामने मुस्लिम खड़ा हो तो उसे शैतान साबित करने के लिए किसी भी तर्क का प्रयोग किया जा सकता है।

मुहब्बत और इन्क़लाब की ज़बान कही जाने वाली उर्दू से ये नफ़रत कोई नई नहीं है। उर्दू को 1982 में ही उत्तर प्रदेश की दूसरी राजभाषा घोषित किया गया था लेकिन इसके ख़िलाफ़ जमकर ताल ठोंकी गई। उत्तर प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन ने इसकी लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक लड़ी। आख़िरकार 2014 में सुप्रीम कोर्ट की पाँच सदस्यीय संविधान पीठ ने उर्दू को दूसरी राजभाषा को दर्जा देने वाले क़ानून को वैध ठहरा कर मामले को ख़त्म किया। 4 सितंबर, 2014 को मुख्य न्यायाधीश आर.एम.लोढ़ा, न्यायमूर्ति दीपक मिश्र, न्यायमूर्ति मदन बी.लोकुर, न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ़ और न्यायमूर्ति एस.ए.बोबडे ने राजभाषा से संबंधित संविधान के अनुच्छेद 345 और 347 की व्याख्या करते हुए यह फ़ैसला किया कि उर्दू को दूसरी राजभाषा घोषित किया जाना संवैधानिक था।

उत्तरप्रदेश सरकार ने पहले 7 अप्रैल 1982 को एक अध्यादेश जारी करके और फिर उत्तर प्रदेश शासकीय भाषा संशोधन अधिनियम, 1989 द्वारा उत्तर प्रदेश के शासकीय कार्यों के लिए उर्दू को दूसरी राजभाषा घोषित किया था। लेकिन उत्तर प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन ने अध्यादेश और अधिनियम दोनों को इस आधार पर इलाहाबाद उच्च न्यायलय में चुनौती दी कि राज्य में हिंदी राजभाषा के रूप में 1951 से ही मान्यता प्राप्त है। इसलिए उर्दू को दूसरी राजभाषा घोषित नहीं किया जा सकता।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 16 अगस्त 1996 को साहित्य सम्मेलन की यह याचिका निरस्त कर दी थी, जिसके ख़िलाफ़ 1997 में सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई। सुप्रीम कोर्ट ने पहले एक खंडपीठ (दो-सदस्यीय पीठ) ने मामला पूर्णपीठ को सौंप दिया और बाद में पूर्णपीठ (तीन-सदस्यीय पीठ) ने भी मामले को 29 अक्टूबर, 2003 को संविधान पीठ को भेज दिया।

संविधान पीठ ने निर्णय दिया है कि उत्तर प्रदेश सरकार का अधिनियम संविधान की मंशा (आशय) के अनुरूप है और वैध तथा संविधानिक है। संविधान में (अनुच्छेद 345) ऐसा कुछ नहीं है जो राज्य में हिंदी के अतिरिक्त एक या अधिक भाषा को शासकीय भाषा के रूप में प्रयोग किए जाने की घोषणा करने से रोकता हो।

सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले में यह भी कहा गया कि देश के अनेक राज्यों जैसे- बिहार, हरियाणा, झारखंड, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड ने राज्य में हिंदी के अतिरिक्त अन्य स्थानीय भाषाओं, जो आम जनता के द्वारा अधिक प्रयोग की जाती हैं, को शासकीय भाषा के रूप में मान्यता दी है।

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया है कि अनुच्छेद 345 में प्रयोग की गई शब्दावली ‘‘उस राज्य में प्रयोग होने वाली भाषाओं में से किसी एक या अधिक भाषाओं को ‘या हिंदी को ’ का तात्पर्य यह नहीं है कि ‘हिंदी’ को ‘राजभाषा’ घोषित करने के बाद किसी अन्य भाषा को ‘राजभाषा’ घोषित नहीं किया जा सकता है, बल्कि इसका तात्पर्य यह है कि ‘हिंदी’ को ‘राजभाषा’ घोषित किए जाने के बाद भी राज्य का विधानमंडल उस राज्य में प्रयोग होने वाली अन्य भाषाओं में से एक या अधिक को राजभाषा घोषित कर सकता है।

लेकिन उर्दू का नाम आते ही भगवा पार्टी के लोगों को पता नही क्यों परेशानी होती है। उन्हें ये भी नहीं पता कि उर्दू लफ़्जों के बिना वे एक वाक्य भी उस भाषा का नहीं बोलते हैं जिसे वे शुद्ध हिंदी समझते हैं।

उर्दू को पिछले दिनों तेलंगाना में भी दूसरी राजभाषा का दर्जा दिया गया । दिल्ली जैसे राज्य में तो पंजाबी और उर्दू दोनों को दूसरी राजभाषा का दर्जा हासिल है। यानी सरकारी कामकाज हिंदी के अलावा इन भाषाओं में भी हो सकता है।

बहरहला, अलीगढ़ की घटना सामान्य नहीं है, इसके निहितार्थ बहुत स्पष्ट हैं। ऐसा लगता है कि तमाम विभाजनकारी मुद्दों के अलावा सांप्रदायिक शक्तियों के तरकश में उर्दू विरोध का तीर अब भी पड़ा है और वे सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बावजूद उर्दू को बरदाश्त करने को तैयार नहीं हैं।

वैसे बीजेपी के पास उत्तर प्रदेश विधानसभा में भीषण बहुमत है। तीन सौ से ज़्यादा विधायकों के रहते उर्दू को दूसरी राजभाषा की हैसियत से गिराने की कोशिश करना बहुत मुश्किल भी नहीं है। योगी आदित्यनाथ अगर मुख्यमंत्री हैं तो ऐसे क़दमों की आशंका से इनकार भी नहीं करना चाहिए।

बर्बरीक