BHU: कुलपति त्रिपाठी की राजनीतिक महत्‍वाकांक्षा के चश्‍मे से देखें तो कहानी और साफ़ समझ आती है!



शिव दास

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से उनका जुड़ाव और इलाहाबाद विश्वविद्यालय शिक्षक संघ की राजनीति इसमें उनकी मदद भी कर रही है। हालांकि भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इच्छा के बिना यह पूर्ण रूप से संभव नहीं है। जरूरी है कि कुलपति महोदय अपनी ओर उनका ध्यान खींचे और पार्टी के प्रति अपनी निष्ठा साबित कर सकें। लेकिन, कैसे? यही उनके लिए चुनौती थी…

 

यही वह अवधि थी जब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों में नियुक्तियों और पदोन्नतियों के लिए साक्षात्कार चल रहा था। विश्वविद्यालय प्रशासन पर नियुक्तियों में धांधली का आरोप भी लगे रहे थे। वंचित समुदाय के छात्र मनमाने ढंग से की जा रही नियुक्तियों को लेकर पिछले दो महीने से विरोध-प्रदर्शन कर विभिन्न संवैधानिक प्रावधानों के तहत प्रतिनिधित्व का अधिकार मांग रहे थे और विश्वविद्यालय प्रशासन की गतिविधियों पर नजर बनाए हुए थे। मानव संसाधन विकास मंत्रालय समेत राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग और राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग ने भी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय प्रशासन की कार्यशैली पर सवाल उठाते हुए उससे जवाब मांगा था। संसद की पिछड़ा वर्ग समिति ने भी विश्वविद्यालय प्रशासन से नियुक्तियों में धांधली और प्रतिनिधित्व के संवैधानिक अधिकार पर जवाब तलब किया था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसी एक सप्ताह की अवधि के दौरान विश्वविद्यालय के कुलपति गिरीश चंद्र त्रिपाठी का प्रशासनिक और वित्तीय अधिकार छिनने वाला था और दूसरे कार्यकाल के लिए उनकी कोशिश नाकाम हो चुकी थी।

केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय गत 1 अगस्त को विश्वविद्यालय के कुल-सचिव को पत्र लिखकर कुलपति की नियुक्ति के लिए विज्ञापन जारी करने का निर्देश जारी कर स्पष्ट कर चुका था कि कुलपति गिरीश चंद्र त्रिपाठी को दूसरे कार्यकाल के लिए विस्तार नहीं मिलने वाला है, हालांकि उन्होंने मंत्रालय के इस पत्र के निर्देशों के अनुपालन को अभी तक सुनिश्चित नहीं होने दिया है। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय की आधिकारिक वेबसाइट पर मौजूद दस्तावेजों से पता चलता है कि वर्ष 2014 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति की नियुक्ति के लिए अगस्त महीने में विज्ञापन प्रकाशित हुआ था और आवेदन करने की अंतिम तारीख 30 सितंबर 2014 निर्धारित थी। इस प्रक्रिया के तीन साल पूरे होने को हैं लेकिन अभी तक कुलपति की नियुक्ति के लिए विज्ञापन प्रकाशित नहीं हुआ है।

आरोपों की मानें तो कुलपति के दबाव में कुल-सचिव ने जान-बूझकर अभी तक कुलपति की नियुक्ति के लिए विज्ञापन जारी नहीं किया है ताकि प्रोफेसर गिरीश चंद्र त्रिपाठी कार्यकाल खत्म होने के बाद भी ज्यादा से ज्यादा समय तक विश्वविद्यालय के कुलपति बने रहें और इस पद का उपयोग अपने एजेंडा सेटिंग में कर सकें। इस एजेंडे में उनकी राजनीतिक इच्छाशक्ति भी है। बता दें कि कुलपति गिरीश चंद्र त्रिपाठी ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष पद के लिए लामबंदी की थी लेकिन इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। सूत्रों की मानें तो वे इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नो) के कुलपति पद की लामबंदी में भी जुटे हैं लेकिन उन्हें यह भी मौका मिलने वाला नहीं है। आलाकमान की ओर से उन्हें ये संकेत मिल चुका है। इन हालात में प्रोफेसर गिरीश चंद्र त्रिपाठी के सामने नवंबर महीने के बाद किसी शक्तिशाली पद पर बने रहने का संकट गहरा गया है और अब वे पूरी तरह से राजनीतिक क्षेत्र में उतरना चाह रहे हैं।

विश्वविद्यालय प्रशासन में उनके एक करीबी सूत्र पर भरोसा करें तो वे किसी राज्य का राज्यपाल अथवा सांसद बनने की जुगत में हैं। ऐसी स्थिति में वे भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो सकते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से उनका जुड़ाव और इलाहाबाद विश्वविद्यालय शिक्षक संघ की राजनीति इसमें उनकी मदद भी कर रही है। भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इच्छा के बिना यह पूर्ण रूप से संभव नहीं है। जरूरी है कि कुलपति महोदय अपनी ओर उनका ध्यान खींचे और पार्टी के प्रति अपनी निष्ठा साबित कर सकें। लेकिन, कैसे? यही उनके लिए चुनौती थी।

विश्वविद्यालय में दृश्‍य कला संकाय की छात्रा से छेड़खानी और उसके बाद सिंहद्वार पर सैकड़ों की संख्या में छात्राओं के धरने ने उन्हें यह मौका दे दिया। हालात बताते हैं कि उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने के लिए इसका बखूबी इस्तेमाल किया। पहले उन्होंने छात्राओं की मांग को दरकिनार किया और अपने लड़कों (जैसा कि उन्होंने वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई के संबंध में मीडिया को दिये बयान में कहा था) की मदद से उनके आंदोलन को तोड़ने की कोशिश की। आंदोलनकारी छात्राओं की सूझ-बूझ की वजह से 22 सितंबर की शाम तक इसमें वे सफल नहीं हो पाए। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के दौरे की वजह से छात्राओं का यह धरना राष्ट्रीय मीडिया में जगह नहीं बना पाया। अगर कुलपति महोदय उस समय छात्राओं की मांग स्वीकार कर भी लेते और धरना खत्म हो जाता तो उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर यह पहचान नहीं मिलती जो अब मिल रही है। दोनों नेताओं के जाने के बाद भी छात्राओं का धरना राष्ट्रीय स्तर के टीवी चैनलों की प्रमुख खबर नहीं बन सका। इससे जिला प्रशासन छात्राओं के धरने के दबाव से राहत महसूस कर रहा था लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन की मुश्किलें बढ़ रही थीं।

विश्वविद्यालय प्रशासन के विश्वसनीय सूत्रों से मिली जानकारियों समेत अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) से जुड़े छात्र-छात्राओं की गतिविधियों पर गौर करें तो प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के जाने के बाद छात्राओं के धरने का समर्थन करने वाले छात्रों से मारपीट करने की कोशिश की गई ताकि माहौल खराब हो सके और यह मीडिया में प्रमुख खबर बन सके। उनकी इस कोशिश में प्रॉक्टोरियल बोर्ड के साथ-साथ उनके संरक्षण में विश्वविद्यालय में आए दिन मारपीट करने वाले कुछ बाहरी लड़के भी लगे थे। इसका प्रमाण छात्राओं पर लाठीचार्ज के बाद कुलपति और विश्वविद्यालय के समर्थन में प्रदर्शन करने वाले लड़कों का यह वीडियो है जिसमें अधिकतर विश्वविद्यालय के छात्र नहीं हैं लेकिन ये विश्वविद्यालय परिसर के अंदर अक्सर घूमते देखे जा सकते हैं। इनमें कई बिड़ला छात्रावास में छापेमारी के दौरान पकड़े भी गए हैं।

त्रिपाठी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में घटनाओं के समय और उनकी मीडिया कवरेज से अच्छी तरह वाकिफ थे। वर्ष 2014 में कुलपति पद पर उनकी नियुक्ति काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में ऐसी घटनाओं की तपिश की ही उपज थी। उस समय उनकी नियुक्ति भी ऐसे हालात में हुई थी जब विश्वविद्यालय का माहौल सामान्य नहीं था।

गत 23 सितंबर की रात करीब साढ़े नौ बजे के बाद की घटी घटनाओं पर गौर करें तो इसमें एक सोची समझी साजिश की बू आती है। धरनारत छात्राओं के बीच कुछ लोगों द्वारा यह भ्रामक सूचना फैलाई जाती है कि कुलपति महिला महाविद्यालय स्थित छात्रावास में वार्ता के लिए आ रहे हैं और वहां से धरनारत छात्राओं का एक हिस्सा छात्रावास की ओर जाता है। सूत्रों की मानें तो इसका नेतृत्व अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़ी एक छात्रा कर रही थी। कुलपति वहां छात्राओं से मिलने नहीं आते हैं। फिर छात्राएं करीब 30 की संख्या में कुलपति से मिलने उनके आवास पर जाती हैं जहां प्रॉक्टोरियल बोर्ड के अधिकारी और सुरक्षाकर्मी उन्हें रोक लेते हैं। छात्राएं वहां धरने पर बैठ जाती हैं और नारेबाजी करने लगती हैं। इसी दौरान प्रॉक्टोरियल बोर्ड के एक अधिकारी से एक छात्रा की बहस हो जाती है और वह उसे चांटा मार देते हैं। इसके बाद सुरक्षाकर्मी छात्राओं और उनका समर्थन कर रहे छात्रों पर टूट पड़ते हैं। थोड़ी देर में यह सूचना छात्रों और छात्राओं के छात्रावासों में पहुंचती है और वे भारी संख्या में कुलपति आवास, महिला महाविद्यालय और सिंहद्वार के सामने इकट्ठा होकर प्रदर्शन करने लगते हैं। जल्द ही यह राष्ट्रीय टीवी चैनलों के साथ सोशल मीडिया की बड़ी खबर बन जाती है।

कुलपति आवास के सामने छात्रों और सुरक्षाकर्मियों के बीच संघर्ष छिड़ जाता है। इसके बाद लंका चौराहे पर खड़ी फोर्स वहां पहुंचकर मोर्चा संभालती है। थोड़ी देर में जिलाधिकारी और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक मय फोर्स सिंहद्वार पहुंचते हैं और धरनारत छात्राओं और छात्रों समेत पत्रकारों पर हमला कर देते हैं। सिंहद्वार खाली कराने के बाद वे महिला महाविद्यालय पहुंचते हैं। वहां प्रदर्शन कर रही छात्राओं पर फोर्स लाठीचार्ज करती है जिसमें कई छात्राएं घायल हो जाती हैं। फिर फोर्स बिड़ला छात्रावास की ओर बढ़ती है और मोर्चा संभालती है। बीच-बीच में छात्रों और पुलिस फोर्स के बीच पत्थरबाजी होती रहती है। करीब डेढ़ बजे लंका चौराहे पर तीन मोटरसाइकिलें फूंक दी जाती हैं जबकि वहां एक भी छात्रा मौजूद नहीं थी, हालांकि वहां से करीब 25 मीटर की दूरी पर बीएचयू अस्पताल के छोटे गेट के पास 15 लड़को का एक गुट बैठा हुआ दिखता है, लेकिन पुलिस वहां नहीं जाती है।

अब इन घटनाक्रमों पर गौर करें तो एक बात साफ है कि विश्वविद्यालय के सुरक्षाकर्मियों द्वारा छात्राओं पर लाठीचार्ज की गई जो एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा हो सकता है। इसके बाद पुलिस प्रशासन को बुलाया गया। कुलपति लॉज के सामने प्रदर्शन कर रही छात्राओं और छात्रों की संख्या बहुत कम थी। उससे ज्यादा वहां सुरक्षाकर्मी थे। इसके बावजूद छात्राओं पर लाठीचार्ज किया गया। प्रॉक्टोरियल बोर्ड चाहता तो उस समय सिंहद्वार पर मौजूद पुलिस फोर्स को बुला सकता था लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। उसने पुलिस फोर्स को उस समय सूचना दी जब वे छात्राओं और छात्रों पर लाठीचार्ज कर माहौल को हिंसक बना चुके थे।

खैर, ये बात रही छात्राओं पर लाठीचार्ज की। अब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति गिरीश चंद्र त्रिपाठी की गतिविधियों पर गौर करें। छेड़खानी की घटना पर तीन दिनों तक मीडिया से दूरी बनाये रखने वाले कुलपति लाठीचार्ज वाली घटना के बाद अचानक मीडिया में अवतरित हो जाते हैं। मीडिया में वे केवल गैर-जिम्मेदाराना बयान ही नहीं देते हैं, बल्कि छात्राओं और छात्रों पर लाठीचार्ज की घटना से इंकार भी करते हैं। मीडिया के सामने छात्राओं से वार्ता के लिए इंकार करने वाले कुलपति गिरीश चंद्र त्रिपाठी का मीडिया प्रेम इस कदर जाग जाता है कि वे एनडीटीवी पर रवीश कुमार के प्राइम टाइम शो में भी आने से नहीं हिचकिचाते जबकि आरएसएस और भाजपा एनडीटीवी और रवीश कुमार को अपना धुर विरोधी मानते हैं। संघी ताल्लुकात रखने वाले कुलपति महोदय भी इससे बकायदा वाकिफ भी थे। इसके बावजूद वह इस कार्यक्रम में केवल शामिल ही नहीं हुए, बल्कि लाठीचार्ज का वीडियो मौजूद होने के बावजूद लाठीचार्ज की घटना से इंकार करते रहे।

विभिन्न अखबारों और मीडिया संस्थाओं के पत्रकारों को दिये साक्षात्कार में कुलपति गिरीश चंद्र त्रिपाठी ने जिस प्रकार से तथ्यों और सुबूतों को नज़रअंदाज कर लाठीचार्ज, आगजनी और हिंसा का ठींकरा बाहरी लोगों पर फोड़ा है, उससे उनकी सोची-समझी रणनीति साफ झलकती है। मीडिया में उनकी बयानबाजी से साफ झलकता है कि वे विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में नहीं एक राजनीतिक पार्टी के प्रवक्ता के रूप में अपना बयान दे रहे हैं। खुद की कमियों को छिपाने के लिए विपक्षी पार्टियों और सामाजिक संगठनों के साथ-साथ विश्वविद्यालय के छात्रों को दोषी ठहरा रहे हैं जबकि वे इनका एक भी सुबूत मीडिया या प्रशासन को मुहैया नहीं करा रहे हैं। उन्होंने उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से नियुक्त जांच अधिकारी और मंडलायुक्त की प्राथमिक रिपोर्ट को भी झूठा करार दे दिया है जिसमें आगजनी, हिंसा और लाठीचार्ज के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन को जिम्मेदार ठहराया गया है।

विश्वविद्यालय के कुल-सचिव ने गत 25 सितंबर को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, काशी प्रांत के विभाग संयोजक चक्रपाणि ओझा को पत्र लिखकर छात्राओं की सुरक्षा के संबंध में विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा उठाये कदमों की जानकारी दी है। साथ ही उसने 23 अगस्त की रात लाठीचार्ज की घटना के संबंध में अवगत कराया है कि उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त्‍त न्यायमूर्ति की अध्यक्षता में जांच कमेटी गठित की गई है। गौर करने वाली बात है कि यह पत्र चक्रपाणि ओझा के गत 8 सितंबर के पत्र के जवाब में लिखा गया है। अब सवाल उठता है कि जब लाठीचार्ज की घटना ही नहीं घटी थी तो फिर एबीवीपी के विभाग संयोजक ने विश्वविद्यालय से सूचना कैसे मांग ली।

एक अहम सवाल यह भी है कि कुलपति ने आखिर विश्‍वविद्यालय की छात्राओं के मांगों पर कोई लिखित जवाब देना ज़रूरी क्‍यों नहीं समझा जबकि एबीवीपी के सवालों का बाकायदा लिखित जवाब जारी किया गया। दरअसल, विश्वविद्यालय प्रशासन छात्राओं के स्वतःस्फूर्त आंदोलन का श्रेय आंदोलन को विफल करने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को देना चाहता है। विश्वविद्यालय प्रशासन के इस कदम से भी एक साजिश की बू आ रही है।

गत 22 सितंबर की सुबह छात्राओं के धरने से लेकर 23 सितंबर की रात ढाई बजे तक की घटनाओं की कवरेज के अनुभवों और कुलपति के बयानों से निकलती कड़ियां एक नए अंदेशे को मजबूती प्रदान करती हैं। यह इस ओर इशारा करती हैं कि छात्राओं पर लाठीचार्ज और आगजनी की घटनाओं में विश्वविद्यालय के कुलपति, प्राक्टोरियल बोर्ड और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का गठजोड़ काम कर रहा था। हालांकि इसमें कितनी सच्चाई है, यह निष्पक्ष जांच का विषय है जो अभी दिखाई नहीं दे रहा लेकिन एक बात साफ है कि छात्राओं के धरने पर कुलपति गिरीश चंद्र त्रिपाठी का अड़ियल रवैया अनायास नहीं था। उपरोक्त संभावनाओं की तस्वीरें भविष्य में प्रो. गिरीश चंद्र त्रिपाठी की गतिविधियों से ही साफ हो पाएंगी जिनमें उनका राजनीतिक कदम अहम होगा।