जेएनयू में ‘उपस्थिति’ का शोर और शिक्षा को मुनाफ़े के गणित में उलझाने का षड़यंत्र !



विकास बैंडवाला

 

अब हम आसानी से यह कह सकते हैं कि पूरे देश भर में हम शिक्षा पर संकट को बिल्कुल सामने से देख रहे हैं. यह संकट लम्बे समय से खदबदा रहा था लेकिन जेएनयू में लागू किये गये न्यूनतम 75 प्रतिशत उपस्थिति के नियम ने फिर से हमारा ध्यान इधर खींचा है. अगर यह परिवर्तन होता है, तो जेएनयू भी उन्हीं ज्यादातर उच्च शिक्षा वाले संस्थानों में शामिल हो जाएगा जो शिक्षार्थियों की खोजखबर रखने के लिए अनुशासनात्मक उपाय करते रहते हैं. हालांकि कक्षा में उपस्थिति का यह प्रश्न एक बड़ी बहस को जन्म देता है क्योंकि यह प्रश्न व्यापक शिक्षा की हमारी समझ पर सवाल उठाता है. यह वर्तमान संकट, इसलिए, महज जेएनयू का मुद्दा नहीं है.

पिछले तीन दशको में भारतीय शैक्षिक परिदृश्य में नाटकीय बदलाव हुए हैं. बड़ी संख्या में निजी संस्थानों और विश्वविद्यालयों की जमात पैदा हुई है. मानव संसाधन विकास मंत्रालय की वेबसाइट पर मौजूद पुराने आँकड़े बताते हैं कि वर्तमान में 45 केंद्रीय विश्वविद्यालय, 318 राज्य सरकार द्वारा संचालित विश्वविद्यालय, 85 निजी विश्वविद्यालय, 129 ‘डीम्ड’ विश्वविद्यालय और 52 राष्ट्रीय महत्व के संस्थान हमारे देश में मौजूद हैं. साथ ही, यहाँ 37,204 कॉलेज हैं जिनमें लगभग 20,000 निजी कॉलेज हैं, 700 के लगभग केंद्र सरकार द्वारा संचालित हैं और बाक़ी राज्य सरकारों द्वारा.

हालांकि इनमें से कई का प्रदर्शन अपेक्षानुरूप नहीं है ; हमें यह भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि इन संस्थानों में से कुछ ऐसी शैक्षिक पद्धति और पाठ्यक्रम बनाने की कोशिश कर रहे हैं जो हमारे समय के लिए अधिक प्रासंगिक है.

पारम्परिक शैक्षिक पाठ्यक्रम से असंतोष, शिक्षा को और उपयोगी बनाने की इच्छा और एक इंडस्ट्री (शिक्षा) की असफलता के बावजूद बने रहने की भावुक इच्छा ; इन सब ने इस बदलाव के समर्थन में माहौल तैयार किया है. ये सारे कारण मिलकर पारम्परिक विश्वविद्यालय का एक नये तरह के संस्थान में बड़ी तेज़ी से रूपांतरण कर देना चाहते हैं, भले ही इससे शिक्षा का मूल सिद्धांत और कर्त्तव्य ही क्यों न प्रभावित हो जाए.

इन परम्परागत विश्वविद्यालयों के पुनर्निर्माण के मूल में निजी संस्थानों के निगरानी करने की खतरनाक और लगातार बढ़ती हुई संस्कृति है. इस निगरानी का एक प्रमुख उद्देश्य, अध्यापकों की जवाबदेही इस तरह से तय करना है कि उन्होंने दिन के कुल कितने घंटे काम किया. दुर्भाग्य से, ये आँकड़े अध्यापक के कैम्पस में उपस्थित रहने पर निर्भर करते हैं.

बौद्धिक श्रम को ‘कक्षा’ और ‘कैम्पस’ में उपस्थिति से मापने वाली पद्धति के उदय ने इस मूल समझ पर कुठाराघात किया है कि शिक्षा की आत्मा का विचार, कला, साहित्य और दूसरी अन्य विधाओं से गहरा सम्बन्ध है. यह उसी तरह है कि हम रचनात्मक कार्यों को समय-सीमा में बाँध दें और कहें कि इतने समय में मुझे प्रभावी परिणाम दो (कला और मानविकी जैसे विषयों में अध्यापन और शोध कार्य जरूर थोड़ी सृजनशीलता और कल्पनाशीलता सम्मिलित करते हैं).

इटली की Mariarosa Della Costa और Silvia Federici जैसी नारीवादियों ने अमान्यताप्राप्त घरेलू श्रम को परिभाषित करने के लिए 1970 में ‘प्रभावशाली या प्रभावी’ शब्द का इस्तेमाल किया था जिस पर भावुक और संवेदनात्मक प्रतिक्रियाएँ आयी थीं. इस शब्द पर Micheal Hardt के ताज़ा काम (1999) के बाद और भी ध्यान गया.

विडम्बना यह है, कि ‘काम करने का समय’ और ‘अवकाश’ का पृथक्करण एक ऐसा यूटोपिया है जिसकी चर्चा मार्क्सवादी और पूँजीवादी दोनों करते हैं. ‘Modern times’ – समय और उत्पादन की संचालन प्रणाली के बारे में एक उल्लेखनीय फिल्म – में अभिनेता चार्ली चैपलिन का शरीर धीरे-धीरे अपनी नैसर्गिक गतियाँ छोड़कर अनियंत्रित होकर औद्योगिक मशीनों की पुनरावर्ती गतियों की नकल करने लगता है. ‘Modern times’ , ‘कार्य और श्रम’ के मार्क्सवादी विचार के प्रदर्शन का उत्कृष्ट उदाहरण है. फिर भी, रचनात्मक और प्रभावी श्रम, उन कार्यों के बारे में अलग ही राय रखता है, जिन कार्यों से किसी को खुशी मिलती हो.

यह एक गम्भीर समस्या है जब शैक्षिक संस्थान जवाबदेही तय करने के लिए औद्योगिक जगत के तरीके अपनाने लगें. इन दो तरह के कार्यों में मूलभूत अंतर यह है कि एक शिक्षाशास्त्री का काम जीवन भर अध्यापन और शोध के द्वारा विषयों का अन्वेषण करना है, जिससे हर कोई एक दूसरे को समृद्ध करता रहे.

अगर कोई आधुनिक शिक्षा के परिदृश्य को समझने के लिए सामान्य राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझना जरूरी समझे, तो इसे ‘अभौतिक या अनावश्यक श्रम’ कहा जा सकता है. जिस तरह से Maurizio Lazaratto (1996) ने इस शब्द का प्रयोग यह बताने के लिए किया था कि किस तरह से प्रभावी और संज्ञानात्मक श्रम से मूल्य पैदा किये जाते हैं.

Lazaratto के विचारों के विस्तार के तौर पर कोई यह भी कह सकता है कि प्रभावी श्रम के आधार पर ‘कार्य’ और ‘अ-कार्य’ के बीच बलात् पृथक्करण, कर्मचारी पर हिंसा की तरह है ; अगर इसे रचनात्मकता का उत्पादीकरण और असेम्बली लाइन औद्योगिक अर्थव्यवस्था के माध्यम से कर्मचारियों के समय पर/के नियंत्रण के माध्यम से देखा जाए.

हालांकि अलग-अलग ऐतिहासिक कालों के दौरान आर्थिक और औद्योगिक क्षेत्रों के संक्रमण का प्रभाव विदित है, लेकिन वर्तमान शैक्षिक परिदृश्य और शिक्षण संस्थानों का संचालन हमें व्यापक तौर पर निष्क्रिय और विफल ही प्रतीत होता है.

इस माहौल में शुतुरमुर्ग बने रहने के परिणामस्वरूप हम इस गम्भीर संकट में फँस गये हैं. हमारे विश्वविद्यालय सत्ता द्वारा नियंत्रित किये जा रहे हैं, वहीं निजी शैक्षिक संस्थान ‘वॉल स्ट्रीट’ के क़ायदों पर ही संचालित होने के लिए अति उत्साहित हैं. इस देश का (या कहीं और का भी) शैक्षिक समाज खुद को इसी अनिश्चितता और पराधीनता की स्थिति में पाता है. इनसे आशा की जाती है कि वे हमेशा असंतुलिता का व्यवहार करें या फिर स्टॉक मार्केट की तरह, जिन्हें हमेशा ही कुछ नयी चीज़ें देनी चाहिए और लगातार आगे की तरफ देखना चाहिए और एक नया ‘गेम-चेंजर’ बनाना चाहिए (निश्चित ही बेहद बाजारू और मशीनी तरीक़ों से).

संसार में हर जगह शिक्षा के ‘कॉरपोरेटीकरण’ पर लम्बी बहसें चली हैं. यह सर्वविदित था कि इससे कला और मानविकी ही सबसे पहले प्रभावित होते. उन्हीं विधाओं में सबसे पहले नौकरियाँ गयीं जो राजस्व पैदा नहीं कर सकते थे, जैसे – इतिहास, मानव-विज्ञान, दर्शन-शास्त्र आदि. ज़ाहिर है कि शैक्षिक संस्थानों को खुद को बनाए रखने के लिए जो भी जतन होगा, वो सब वे करेंगे.

चूँकि निजी संस्थान ‘UGC’ के तय पाठ्यक्रम को मानने के लिए बाध्य नहीं हैं, उनके पास पाठ्यक्रम में प्रयोग या बदलाव करने के अधिक मौके हैं. अब इन संस्थानों के लिए यह जरूरी बन जाता है कि ये खुद को उन शिक्षार्थियों के लिए आकर्षक बनाएँ जो उनकी भारी-भरकम फीस भर पाने में सक्षम हों. उदाहरण के तौर पर ऐसे खासे निजी संस्थान हैं जो न सिर्फ अलग तरह के पाठ्यक्रम चलाते हैं बल्कि अच्छे अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षकों की चमक-धमक से भी लैस हैं और साथ ही उनके पास भारत के बड़े शिक्षक भी हैं. Google पर भारत के टॉप निजी शैक्षिक संस्थान खोज कर इस दावे की पड़ताल की जा सकती है.

मुद्दा यह है, कि UGC की सीमितताओं में न बँधने की छूट के साथ ही इन्हें सरकारी नियमों से अबाध्यता हासिल हो जाती है. उदाहरण के लिए, हर निजी संस्था को अपने हिसाब से छुट्टी, तनख्वाह, कार्य-सीमा आदि तय करने की छूट है, वैसे ही जैसे वे अपना पाठ्यक्रम तय कर सकते हैं. अक्सर, शोध के लिए समय निर्धारण जैसे सरल और जरूरी काम भी मैनेजमेंट और डायरेक्टर्स की ‘समझदारी’ पर निर्भर होते हैं. शोध के लिए सवैतनिक छुट्टी देने की अवधारणा तो मानो खत्म ही हो गयी है क्योंकि ये संस्थान शिक्षकों को इस लायक नहीं मानते कि उन पर लम्बे समय तक पैसा लगाया जाए.

बच्चों को आकर्षित करने के लिए ‘स्टार’ शिक्षकों की भर्ती करने का चलन नियमों और संचालन में अपारदर्शिता पैदा करता है. यह शिक्षकों के बीच चुप्पी का माहौल पैदा करता है. वे आपस में खुलकर तनख्वाह और दूसरी सुविधाओं के बारे में बात करना नहीं चाहते. उदाहरण के लिए, एक जानी-मानी यूनिवर्सिटी की वेबसाइट अपने कई विभागाध्यक्षों, उपविभागाध्यक्षों और निदेशकों को ‘कृपा करके’ एक ही सूची में रखती है. यह हमारी उस समझ से एक बड़ा विचलन है जो बताती है कि निदेशक के पास प्रशासनिक जिम्मेदारी होती है और यह एक सम्मान का पद होता है.

तकनीकी योग्यता अर्जित करने के क्रम में खोजखबर रखने के लिए ‘बायोमेट्रिक्स’ का तरीका अपनाया जा रहा है. बजाय इसके कि शिक्षकों को शोध करने और पढ़ाने को लेकर प्रोत्साहित किया जाय, उन पर ‘बायोमेट्रिक मशीन’ द्वारा कैम्पस में अपनी उपस्थिति सुनिश्चित करने का दबाव बनाया जाता है. कुछ संस्थान तो शिक्षकों को शोध करने या शोध-पत्र लिखने के लिए मूलभूत सुविधाएँ और उपकरण, यहाँ तक कि लाइब्रेरी और एक अलग कमरा भी, मुहैया नहीं कराते.

यही नहीं, उन दिनों में भी जब कोई शैक्षिक कार्य नहीं होना होता, शिक्षकों को अपनी ‘शारीरिक उपस्थिति’ दिखाने के लिए आने को बाध्य किया जाता है. दूसरी तरह कहें तो ऐसा लगता है कि ये संस्थान शिक्षा से ज्यादा उपस्थिति को लेकर चिंतित दिखते हैं. लगभग हम सभी ने यह सुन रखा होगा कि किस तरह एक शिक्षक अपने अँगूठे की छाप बायोमेट्रिक मशीन पर देना भूल गया तो उसकी तनख्वाह काट ली गयी. ‘सुरक्षा कारणों’ से शिक्षकों को यह अँगूठे की छाप दिन में दो बार देनी पड़ती है.

यहाँ तक कि प्रशासन शिक्षकों की भी निगरानी करता रहता है. उनसे देर होने पर, या वे किसी से क्यों मिल रहे थे, इस पर, लिखित जवाब माँगे जाते हैं. उन्हें हर दिन email भेजे जाते हैं जिनमें यह बताया जाता है कि एक शिक्षक को क्या करना चाहिए. पूरी तनख्वाह पाने के लिए उन्हें पूरे महीने के हर दिन का हिसाब देना होता है. ये ब्योरे उन पदाधिकारियों द्वारा पढ़े जाते हैं जिन्हें शैक्षिक माहौल या रचनात्मक कार्यों की शायद ही कोई जानकारी या अनुभव होता हो. यह न सिर्फ अपमानजनक है बल्कि यह तरीका शिक्षकों के साथ मशीन या नौकर की तरह बर्ताव करने जैसा है.

इसके अलावा, ज्यादातर निजी संस्थान अक्सर संगठित नहीं दिखते. उनके यहाँ अक्सर, मैनेजमेंट के पदाधिकारियों और शिक्षकों के बीच ढंग की बातचीत का कोई सीधा तरीका नहीं होता. जो लोग निजी संस्थानों में कार्यरत हैं वो सामान्यतः अपनी शिकायतें खुल कर दर्ज नहीं करा पाते. यही कार्यालयीय कार्य-व्यवहार शिक्षार्थियों में भी आ जाता है जिन्हें एक ग्राहक से ज्यादा कुछ नहीं समझा जाता.

किसी छात्र या छात्रा का शैक्षिक प्रदर्शन मापने के लिए इन संस्थानों के पास सबसे पहला तरीका उस छात्र या छात्रा की कक्षा में उपस्थिति है. कुछ संस्थानों में अगर उपस्थिति कम हो, तो शिक्षार्थी को अनुशासनात्मक कार्रवाई के अन्तर्गत बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है. प्रशासन को इससे कोई मतलब नहीं कि शिक्षार्थी की तबीयत भी खराब हो सकती है या वो कुछ अलग से काम कर रहा हो सकता है या फिर उसे उस तरह के पाठ्यक्रम में रुचि नहीं भी हो सकती है. कभी-कभी शिक्षार्थी धोखे से उपस्थिति लगवा लेने के तरीकों में माहिर हो जाते हैं. यह चिंताजनक है कि क्यों हमारी शिक्षापद्धति हमें अपराधियों जैसे आचरण पर मजबूर करती है.

चूँकि परिवार वाले या माता-पिता ही अक्सर उनके बच्चे की फीस भरते हैं, तो इस तरह इन संस्थाओं और फीस देने वाले के बीच एक सीधा समझौता हो जाता है, जिसमें शिक्षार्थी कहीं नहीं आता. हालांकि 18 और 19 साल पर लोग चुनावों में वोट डालने लायक हो जाते हैं, लेकिन उन्हें इस लायक नहीं समझा जाता कि वे अपने हक़ में कोई फैसला ले पाएँगे और ना ही उन्हें ऐसा कोई मौका दिया जाता है. यहाँ तक कि इसकी भी छूट नहीं मिलती कि वे अपने मन से कक्षा में जाएँ या न जाएँ.

हममें से अधिकतर को एकाध बार ऐसे शिक्षक जरूर मिले होंगे जिन्होंने हमें नये रास्ते दिखाए और जिनकी सीख और दृष्टि हमेशा हमारे साथ रहेगी. फिर क्यों नहीं हम हमारे छात्रों-छात्राओं को उनकी पढ़ाई के सम्बन्ध में निर्णय लेने की स्वतंत्रता देना चाहते ? क्या हम युवाओं को अपने निर्णय खुद लेने देने से इतना डरते हैं ? क्या यह हमारे शिक्षा व्यवस्था की एक बड़ी हार नहीं है ?

यह दुःखद है कि विश्वविद्यालयों का प्रशासनिक वर्ग शैक्षिक मुद्दों की तरफ बहुत कम संवेदनशील है. इन संस्थाओं में भी शिक्षार्थी कक्षाओं के बाहर ही ज्यादा सीखते हैं और अब तो ज्यादातर Google और Youtube का सहारा ले रहे हैं.

कार्य और अवकाश के समय का विभाजन शिक्षा के क्षेत्र में लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि शिक्षक और शिक्षार्थी ‘कक्षाओं’ और ‘कार्य-समय’ के अतिरिक्त भी लगातार बौद्धिक क्रियाओं में संलग्न रहते हैं.

 

साभार द वायर  -मूल लेख यहां पढ़ा जा सकता है 

अनुवाद- अमन त्रिपाठी