अग्निवेश पर हमला: हिंदू धर्म की आँत में धँसा हिंदुत्व का बल्लम !



 

झारखंड के पाकुड़ में स्वामी अग्निवेश की पिटाई भारतीय समाज के बर्बर होते जाने की निशानी है। भारतीय संस्कृति और धर्म का झंडा बुलंद करने वाले, आरएसएस प्रेरित भारतीय जनता युवा मोर्चा के कार्यकर्ता एक अस्सी साल के भगवाधारी बुज़ुर्ग को लात-जूतों से पीट रहे हैं क्योंकि उसके कुछ विचार उन्हें ठीक नहीं लगते। आरोप है कि अग्निवेश ने अमरनाथ यात्रा को पाखंड कहा और वे नक्सल समर्थक हैं।

चार साल के मोदी राज का यही हासिल है। उन्हें विकास के लिए हिंदुस्तान दिया गया था, उन्होंने लिंचिस्तान बना दिया। सुप्रीम कोर्ट के कल के आदेश के बाद ( जिसमें उसने भीड़ के हमले से होने वाली मौतों को लेकर कड़े क़ानून बनाने को कहा है) इस पर कोई शक़ नहीं रह जाता। मोदी राज में करोड़ों बेरोज़गारों को नौकरी देने के बजाय उनकी आँख पर नफ़रत की पट्टी बाँधकर हाथों में धर्म की म्यान में छिपी अधर्म की तलवार थमा दी गई। जिसके विचार न रुचे, उसका रुधिर बहा दो।

अगर स्वामी अग्निवेश ने कोई अपराध किया है तो अदालत है, मुकदमा चलाइए। लेकिन इस तरह गिरा कर पीटना !

न यह भारत की परंपरा है और न हिंदू धर्म में इसके लिए जगह है। स्वामी अग्निवेश पहले व्यक्ति नहीं हैं जिन्होंने अमरनाथ को दैवी चमत्कार मानने से इंकार किया है या शिवलिंग की पूजा को पाखंड कहा है। ऐसा कहने वालों की भारत में लंबी परंपरा है। यहाँ तक कि उन्हें ऋषि का दर्जा भी दिया गया। भारत में ईश्वर को मानने के साथ न मानने वाले भी पूजे गए हैं। न्याय और वेदांत को छोड़कर भारत के प्रमुख दर्शनों में शामिल सांख्य, योग, वैशेषिक, बौद्ध और जैन अनीश्वरवादी दर्शन ही हैं। इनके अध्येताओं का चतुर्दिक सम्मान होता रहा। महावीर और गौतम बुद्ध तो ईश्वर के समकक्ष ही हो गए। तमाम दर्शनों के बीच वाद-विवाद, खंडन-मंडन, शास्त्रार्थ से ही प्राचीन भारत का बौद्धिक परिदृश्य बनता है। ईशनिंदकों की जान नहीं ले ली जाती थी। आत्मा-परमात्मा, जीव-ब्रह्म-माया की गूँज के बीच चार्वाक जैसे भौतिकतावादी दर्शन के प्रणेता को भी ऋषि का दर्जा दिया गया जो वेदों की खुली निंदा करते थे।

हाँ, भारतीय उपमहाद्वीप ऐसा ही था जिसे समंदर पार से आने वाले व्यापारी हिंदुस्तान कहने लगे। यह संयोग नहीं कि धर्म के नाम पर ‘हिंदू’ शब्द किसी धर्मग्रंथ में नहीं मिलता। धर्म के नाम पर कोई एकीकृत तंत्र नहीं था। विविधिता ही भारत की पहचान थी। मूलत: पंचदेवोपासना’ होती थी। अलग-अलग इलाक़ो में अलग-अलग देवताओं का जलवा था। सूर्य की पूजा करने वाले सौर कहलाते थे, शक्ति की पूजा करने वाले शाक्त। गणपति पूजने वाले गाणपत्य थे तो विष्णु और शिव को पूजने वाले क्रमश: वैष्णव और शैव। सबको अपनी तरह रहने की आज़ादी थी। संघर्ष भी रहे होंगे, लेकिन विचार की वजह से किसी का क़त्ल अधर्म ही माना जाता था।

बहुत बाद में तुलसीदास ने भी धर्म की जो परिभाषा दी, उसमें कहा- परहित सरस धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई!

यानी धर्म ने सिखाया कि किसी को पीड़ा देना अधर्म है। तो फिर ये धर्मध्वाजाधारी कौन हैं जिन्होंने 80 बरस के एक आर्यसमाजी भगवाधारी को हिंदू धर्म के अपमान के नाम पर बुरी तरह पीट दिया। स्वामी अग्निवेश के गुरु ने तो न जाने क्या-क्या कहा था, पर इन हमलावरों के पुरखों ने तो कभी उन पर  हमला संगठित नहीं किया। शायद इसलिए कि वे हिंदू धर्म का मर्म समझते थे, जबकि ये हमलावर ‘हिंदुत्व के नागपुरी घृणागह्वर’ में डूबे हैं।

बात मूलशंकर की हो जाए ताकि बात स्पष्ट हो।

1824 में गुजरात में जन्में मूल शंकर को थोड़ा बड़े होने पर आश्चर्य हुआ कि शिवलिंग पर चढ़ाया गया भोग एक चूहा खा रहा है। उसने पिता से प्रश्न किया कि जो भगवान एक चूहे से ख़ुद की रक्षा नहीं कर सकता, वह हमारी रक्षा क्या करेगा। तर्क की यह चिंगारी बाद में विराट अग्नि के रूप में प्रज्जवलित हुई। मूलशंकर स्वामी दयानंद सरस्वती के रूप में जाने गए। उन्होंने 1874 में आर्यसमाज की स्थापना की। मूर्तिपूजा को पाखंड बताया और वेदों को छोड़कर किसी भी अन्य धर्मग्रंथ को प्रमाण मानने से इंकार कर दिया।

ऐसा उन्होंने छिप कर नहीं किया। वे देश भर में घूम-घूमकर ऐसा कर रहे थे। 1867 में हरिद्वार में कुंभ आयोजित था। लाखों लोग वहाँ पुण्य कमाने पहुँचे हुए थे। दयानंद ने ऋषिकेश मार्ग पर सप्तसरोवर के पास अपना डेरा डाला और कुटिया के बाहर एक डंडा गाड़कर उस पर पताका लगाई। पताका पर लिखा- ‘पाखंड खंडिनी पताका।’….धीरे-धीरे लोगों की भीड़ इकट्ठा होने लगी। स्वामी जी ने उपदेश देना शुरू किया। उन्होंने साफ़ कहा कि हर की पैड़ी पर नहाने का कोई फ़ायदा नहीं है। सत्कर्म करो और वेदों का अध्ययन करो। वही परमात्मा की वाणी हैं। समाज में व्याप्त अंधविश्वासों, पाखंडो, आडंबरों, मूर्तिपूजा, भागवत-पुराण, तीर्थयात्रा आदि को व्यर्थ बताते हुए वे भक्तों के उस विराट जमावड़े के बीच जमे रहे। उनके ख़िलाफ़ कोई संगठित हिंसक अभियान नहीं चला। अगर किसी ने छिटपुट ऐसा करने की कोशिश की तो निंदा हुई।

स्वामी दयानंद सरस्वती बाद में काशी भी पहुँचे जहाँ दुर्गाकुंड के पास पंडितों के साथ उनका मशहूर शास्त्रार्थ हुआ। जय-पराजय को लेकर तमाम विवाद हैं, लेकिन स्वीमी जी के सम्मान में कोई आँच नहीं आई। दुर्गांकुंड से सटे एक पार्क में आज भी एक स्मारक मौजूद है जो उस शास्त्रार्थ की याद दिलाता है।

तो क्या काशी में तब धार्मिक लोग नहीं रहते थे। ‘शिव के त्रिशूल पर बसी काशी’ और ‘कंकर-कंकर शंकर’ जैसी आस्था वालो का ख़ून दयानंद सरस्वती के वचनों से क्यों न खौला? दरअसल, तब ‘हिंदुत्व’ का जन्म नहीं हुआ था। वहाँ बस हिंदू ही थे। कृपया ‘हिंदुत्व’ को धर्म मानने की भूल न करें। किसी धर्मग्रंथ में इसका ज़िक्र नहीं है। यह 1923 में आई किताब का नाम है जिसे अंग्रेजों से माफ़ी माँगकर कालापानी से रत्नागिरी पहुुँचे विनायक दामोदर सावरकर ने लिखी थी। उन्होंने भी हिंदुत्व को राजनीतिक विचारधारा ही माना है। ऐसी राजनीति, जो सत्ता पाने के लिए कितना भी ख़ून बहा सकती है। बहाया भी। बीसवीं सदी के महानतम हिंदू कहे गए राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या इन्हीं सावरकर के हिंदुत्ववादी चेले नाथूराम गोडसे ने की थी।

हिंदू धर्म में जो भी शुभ है, हिंदुत्व उस पर विकट प्रहार है!

दयानंद सरस्वती के वैचारिक वंशज स्वामी अग्निवेश पर यह हमला भी विशुद्ध राजनीतिक उद्देश्यों के लिए है। बीते चार सालों में सामान्य मानवीय विवेक को नष्ट करने का संगठित अभियान चला है। ऐसे लोगों की भीड़ तैयार की गई है जिनके पास न शास्त्रार्थ करने की क्षमता है और न धर्म का मर्म समझने की। यह 2019 के चुनाव के लिए दीक्षित किए गए गुंडे हैं और नफ़रती तूफ़ान पैदा करने के लिए किसी की हत्या भी कर सकते हैं, फिर चाहे वह 80 साल का बुज़ुर्ग ही क्यों न हो।

हिंदुओं के जिन पुरखों ने दार्शनिक ऊँचाइयाँ छुई थीं, उन्होंने एक मंत्र दिया था-

अयं बंधुरयम नेति गणना लघु चेतसाम।

उदारचरितानाम तु वसुधैवकुटुम्बकम ।।

अर्थात- यह मेरा भाई है, वह नहीं है, ऐसी गणनी नीच लोग करते हैं। उदार चरित्र वालों के लिए तो पूरी पृथ्वी ही परिवार है।

ऐसे ही मंत्रों के लिए भारत विश्वगुरु प्रसिद्ध हुआ था बिना किसी पी.आर.एजेंसी की मदद के। लेकिन अब रात दिन अपना-पराया (हिंदु-मुसलमान) करने वाले ऐसे ही नीच नेताओं से लेकर पत्रकारों तक की जमात भारत के आकाश पर उल्लासनृत्य कर रही है और धरती पर अंधकार गहरा रहा है।

यह स्वामी अग्निवेश पर हमले की नहीं, हिंदू धर्म की आँतों में धँसे हिंदुत्व के बल्लम की तस्वीर है।

 

डॉ.पंकज श्रीवास्तव, मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।