अनुच्‍छेद 370 : सुप्रीम कोर्ट से आखिरी उम्‍मीद


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उस दिन जब संसद में कश्मीर पर बहस हो रही थी तो मेरे जैसे करोड़ों भारतीयों के ज़हन में महाभारत का वह सीन घूम गया होगा जब भरे दरबार में द्रोपदी का चीरहरण हो रहा था और दरबार राक्षसी अट्टहास से गूंज रहा था, जबकि धर्मराज युधिष्ठिर खामोश तमाशाई बने बैठे थे। अंततः संख्याबल के आगे सत्य और संविधान की आत्मा हार गयी, जम्मू-कश्मीर के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर के बीजेपी ने कश्मीर के सिलसिले में अपना सपना पूरा कर लिया लेकिन यह सवाल ज़रूर खड़ा कर दिया कि क्या कश्मीर के सिलसिले में उठाये गए इतने बड़े क़दम से वहां शान्ति स्थापित हो जाएगी? क्या कश्मीर की समस्या का समाधान हो गया? क्या इतना बड़ा क़दम संविधान और क़ानून सम्मत है? इन सब सवालों पर अलग-अलग विचार विमर्श की ज़रूरत है, इन्हें गड्डमड्ड कर के नहीं देखा जाना चाहिए।

कश्मीर का प्रशासनिक नक़्शा बदलने का यह प्रभाव भी हुआ कि लगभग 52 वर्षों बाद संयुक्त राष्ट्र में चीन की पहल पर यह मुद्दा विचाराधीन हुआ। मोदी सरकार ने जाने अनजाने में इसे अंतरराष्‍ट्रीय समस्या बनवा दिया क्योंकि कश्मीर समस्या के तार चीन( पाकिस्तान और भारत के बीच फैले हुए हैं। दूसरे, चीन और पाकिस्तान इसे केवल विवादित क्षेत्र नहीं बता रहे बल्कि मानव अधिकार हनन का मामला भी बना रहे हैं। इसलिए आगे चल कर अंतरराष्‍ट्रीय पटल पर इसके क्या नतीजे सामने आएंगे कुछ कह पाना मुश्किल है।

एक खतरा हालांकि भारत के दरवाज़े पर खड़ा कर दिया गया है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। सत्ता और संख्याबल के अहंकार में डूबे शासक वर्ग और उसके अनुयायी भले ही फिलहाल आंख बंद कर के सफलता का जश्न मना लें लेकिन देश को जिस ओर ले जाया जा रहा है वह न आंतरिक दृष्टि से ठीक है और न ही सामरिक और कूटनीतिक दृष्टि से।

कश्मीर में भारत, पाकिस्तान और चीन की सरहदें मिलती हैं। तीनों देशों के बीच सरहदी तनाव भी है और तीनों देश परमाणु शक्ति-सम्पन्न देश हैं। अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी इस खतरे से वाक़िफ़ है और संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से वह हरसंभव प्रयास करेगी कि यह सरहदी तनाव मुकम्मल जंग में न बदल जाए। इसलिए कश्मीर के संबंध में भारत पर समस्या के समाधान का दबाव भी डाला जा सकता है और सुरक्षा परिषद कोई प्रस्ताव भी पारित कर सकती है। हम केवल यही दुआ कर सकते हैं कि हमारे शक गलत साबित हों और देश हर प्रकार के खतरों से सुरक्षित रहे।

कश्मीर से संबंधित अनुच्‍छेद 370 और 35A हटाने का जो तरीक़ा अपनाया गया वह एक बहुत बड़े खतरे की घंटी है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि विरोधी क्षेत्रीय दल अपने राजनैतिक हितों और मसलहत के कारण इन खतरों का या तो आभास नहीं कर सके या जान-बूझ कर अनजान बने रहे क्योंकि मामला एक मुस्लिम बहुसंख्या वाले राज्य का था। संविधान में इन अनुच्‍छेदों को हटाने के लिए कुछ नियम बनाये गये हैं जिसके तहत भारत और जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा संयुक्त रज़ामंदी से ही इसे हटा सकते हैं। चूंकि अब दोनों जगह संविधान सभाएं नहीं हैं इसलिए जम्मू-कश्मीर की विधानसभा और भारत की संसद आपसी रज़ामंदी से यह धाराएं हटा सकती हैं। 370 की कई उपधाराओं को इसी सहमति से हटाया भी जा चुका है लेकिन इस समय जम्मू-कश्मीर में विधानसभा नहीं है, प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू है। सरकार का दावा है कि जम्मू-कश्मीर में गवर्नर की सहमति से यह अनुच्‍छेद हटाया गया है लेकिन गवर्नर तो राष्ट्रपति अर्थात केंद्रीय सरकार का प्रतिनिधि होता है, प्रदेश की जनता का नहीं इसलिए इस मामले में उसकी सहमति कोई मायने नहीं रखती।

अगर केंद्र सरकार की इस दलील को मान लिया जाए तो किसी भी प्रदेश की विधानसभा भंग कर के वहां के गवर्नर की सहमति से उस प्रदेश का वजूद ही खत्‍म कर के उसे केंद्र शासित राज्य या दिल्‍ली और पुडुच्‍चेरी जैसे अर्ध-राज्य का दरजा दिया जा सकेगा। इससे तो यूनियन ऑफ़ इंडिया का पूरा कॉसेप्ट ही खत्म हो सकता है और देश वन यूनिट बनाया जा सकता है।

आरएसएस की बुनियादी सोच धर्म आधारित एक राजतंत्र की है। सेकुलरिज्म शब्द को गाली बना देने के बाद अब लोकतंत्र को राजतंत्र में बदलने का रास्ता धीरे-धीरे साफ किया जा रहा है। वन नेशन वन टैक्स और वन नेशन वन इलेक्शन और फिर अब यह वन नेशन वन गवर्नमेंट की जानिब एक-एक क़दम बढ़ाया जा रहा है। बीजेपी की पॉलिसी इस मामले में लाजवाब है। अगर चुनाव जीत गयी तो ठीक, न जीती तो विधायकों को खरीद कर गोवा और कर्नाटक की तरह सरकार बनायी जा सकेगी और अगर यह भी सम्भव न हो सके तो फिर कश्मीर मॉडल से सरकार बनायी जाएगी अर्थात संवैधानिक व्यवस्था से नहीं साम दाम दंड भेद से सरकारें बनायी और बिगाड़ी जाएंगी।

जैसा कि आशंका थी, राष्ट्रपति ने इस बिल पर बिना पलक झपकाये हस्ताक्षर कर दिए और एक बार भी नहीं पूछा कि संवैधानिक प्रावधानों के साथ यह खिलवाड़ क्यों किया गया। ऐसा केवल तत्‍कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने किया था जब इमरजेंसी लगाने के बिल पर उन्‍होंने दस्तखत कर दिया था। राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह ने कभी कहा था कि यदि इंदिरा जी कहें तो वह देहली की सड़कों पर झाड़ू भी लगाने को तैयार हैं। उन्हीं ज्ञानी जी ने जनता के बुनियादी अधिकारों का हनन करने वाले पोस्टल बिल पर दस्तखत करने से इंकार कर के राजीव गांधी की मोदी जी से भी मज़बूत सरकार की चूलें हिला दी थीं और सरकार को बिल वापस लेने पर मजबूर कर दिया था।

मौजूदा राष्ट्रपति ने यूएपीए और कश्मीर से सम्बन्धित बिल पर आंख मूंद कर दस्तखत कर के इतिहास में फखरुद्दीन अली अहमद की भांति एक काला पन्ना खुद सुरक्षित कर लिया है। अब आखिरी उम्मीद सुप्रीम कोर्ट से है जहां इस संबंध में कई याचिकाएं दायर की जा चुकी हैं। आशा की जानी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट अपने पुराने फैसलों का आदर करते हुए अनुच्‍छेद 370 को सुरक्षित रखने और जम्मू-कश्मीर का प्रशासनिक ढांचा बदलने के असंवैधनिक तरीके को उचित ठहराने की गलती नहीं करेगा।


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