बाबरी@25 : “हाता की तरफ जाते हुए डर के साथ एक शर्मिंदगी भी होती थी!”

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पूर्णिमा गुप्ता 

5 दिसम्बर 1992 की रात बहुत ही हलचल वाली रात थी। हम सभी को पता था रात 8 बजे छत पर मशाल जलानी है और शंख नाद करना है। मैं भी शंख ले कर छत पर गई। मशाल कैसे जलानी है इसके लिए लकड़ी चाहिए थी। छत पर सीता आंटी की लकड़ी की कुर्सी थी जर्जर अवस्था में, उसे जलाने का विचार किया गया।

8 बजा। ब्लैकआउट हुआ, यानी बिजली गई और शंखनाद के साथ मशाल भी जल उठी। कहीं घंटे बज रहे थे, कहीं शंख और जिसको जो लकड़ी मिली उसकी मशाल। चारों तरफ जय श्रीराम और हर-हर महादेव की गूंज थी। दिल बहुत ज़ोरों से धड़क रहा था। जैसे कोई जलजला आने वाला है।

करीब आधे घंटे में यह सब खत्म हुआ। सभी को डर था मुसलमान इसका जवाब देंगे। इसलिए सभी अपने घर के दरवाजे पर ईंट पत्थर डंडे अपनी सुरक्षा और हमले के लिए रखे थे।

रात कटी। सुबह तरह तरह की अफवाह शुरू। मेरे बीचवाले भाई ने प्रवीण तोगड़िया का VHS कहीं से ले कर लगाया। मुझे अच्छी तरह याद नहीं कि क्या था उसमें, लेकिन ये ज़रूर था कि हिन्दुओं को मुसलमानों को खत्म करना है इस बात पर ज्यादा जोर था।

दिन में एक समय ऐसा भी आया कि खबर पक्की हुई। मस्ज़िद ढाह दी गई। अभी तक मुझे ये याद है कि इस खबर से कोई खुशी तो नहीं हुई थी। लेकिन डर ज़रूर शुरू हुआ कि अब मुसलमान इसका बदला ज़रूर लेंगे।

हम कई दिनों तक अपने दरवाजे पर ईंट पत्थर रखते रहे लेकिन हमारा डर, डर ही रहा। कोई हमला नहीं हुआ। जब कभी भी हाता (यहाँ मुसलमानों की बस्ती थी) की तरफ जाती, डर के साथ एक शर्मिन्दगी ज़रूर होती।

लेकिन इसके बाद देश के अलग-अलग हिस्सों में हुए दंगों के दौरान मैं अपने को दिलासा देती कि हर चीज की प्रतिक्रिया होती है और ये तो होना ही था।


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