बाबरी@25 : केवल रामलीला के मंचन ने आरा को उस शाम साम्प्रदायिक टकराव से बचा लिया!

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चंद्रभूषण 

तारीखें भी गजब चीज हैं। बिहार के आरा शहर में बतौर कार्यकर्ता गुजारे हुए नवंबर-दिसंबर 1992 के दिन प्याज की परतों की तरह उधड़े चले आ रहे हैं। समय ऐसा था कि आप कहीं भी बैठें, चार पढ़े-लिखे लोग साथ हुए तो पूरी दुनिया में कम्युनिज्म के खात्मे की चर्चा छिड़ जाती थी, और यदि वे कुछ कम पढ़े-लिखे हुए तो अयोध्या की बात होने लगती थी।

आरा शहर की एक छोटी सी पहचान नाटकों से जुड़ी संस्था युवानीति को लेकर भी है, जो 1978 में बनी और देश-दुनिया में आए तमाम बदलावों के बावजूद आज भी वहां सक्रिय है। त्योहारी सीजन की तैयारी के दौरान इसी संस्था की एक बैठक में मुझे भी शामिल होने का मौका मिला और बात चली कि क्यों न एक ऐसी रामलीला खेली जाए, जिसको लोक-स्मृति में बसे राम-प्रसंगों के जरिये बुना गया हो।

इस रामलीला का पहला खंड ‘पदचाप’ वहां नवंबर के शुरुआती हफ्ते में खेला गया और आरा की परंपरा के अनुसार इसमें अभिनय से लेकर संगीत और टिकट बिक्री तक हिंदू-मुसलमान सबकी सक्रिय भागीदारी हुई। तीन घंटे के इस नाटक की कुल चार मंचीय प्रस्तुतियां आरा में हुईं, जिनमें पहली के शुरुआती घंटे में हॉल के भीतर-बाहर तनाव साफ नजर आ रहा था।

नाटक में लक्ष्मण और विश्वामित्र जैसे मुख्य चरित्रों की भूमिका मुस्लिम पात्र निभा रहे थे, लिहाजा उग्र हिंदुत्व की पहचान वाले कुछ चेहरों की वहां मौजूदगी को लेकर हम कुछ ज्यादा ही परेशान थे। प्रस्तुति के बीच में कुछ भुनभुनाहट सुनाई दी और एक बार सीटी भी बजी। लेकिन नाटक जब खत्म हुआ तो तालियों की गूंज देर तक सुनाई देती रही और किसी भी दिशा से कुर्सियां टूटने की आवाज नहीं आई।

मैं हॉल से निकलने को था कि तभी आरएसएस से जुड़े पवनजी उधर आए और मेरे दोनों हाथ पकड़कर जोर-जोर से शेक-हैंड करने लगे। बता दूं कि आरा प्रेस क्लब की बहसों में कम्युनिज्म को लेकर मुझे रगेदने में पवनजी सबसे आगे रहते थे। लेकिन उस कोहरे भरी रात में उन्होंने कहा- ‘हम तो कुछ दूसरा ही सोचकर आए थे, पर आपने रामकथा का एक नया आयाम खोला है। सहमत मैं नहीं हूं लेकिन आपसे ठहरकर बात करनी होगी।’

दो विरोधी राजनीतिक धाराओं के बीच रामलीला के जरिये बना यह संवाद जल्द ही हमारे साथ-साथ आरा शहर के भी काम आया। 6 दिसंबर 1992 को जब टीवी पर बाबरी मस्जिद विध्वंस की खबरें आनी शुरू हुईं तो हमने आरा शहर में एक बहुत बड़ा विरोध जुलूस निकाला। शाम हुई तो हमारे लिए राहत की बात सिर्फ इतनी थी कि देश के बाकी शहरों के विपरीत आरा में कहीं से भी सांप्रदायिक टकराव की सूचना नहीं आई।


नवभारत टाइम्स में प्रकाशित लेखक के स्तम्भ नज़रबट्टू से साभार 


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