सरकार की आलोचना करने से कोई कम देशभक्त नहीं हो जाता: जस्टिस गुप्ता

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प्रालीन पब्लिक चैरिटेबल ट्रस्ट (Praleen Public Charitable Trust), अहमदाबाद द्वारा वकीलों के लिए आयोजित एक वर्कशॉप में सुप्रीम कोर्ट के जज न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता ने “भारत में राजद्रोह कानून और अभिव्यक्ति की आज़ादी” (“Law of Sedition in India and Freedom of Expression”) विषय पर वक्तव्य दिया . राजेंद्र सायल ने इसे हिंदी में अनुवाद किया है .(संपादक)


“बात-चीत की कला ही खुद ख़त्म हो रही है. आज कोई स्वस्थ चर्चा का माहौल नहीं रहा; सिद्धांतों और मूल्यों पर आधारित वकालत की परंपरा ही नहीं रही. सिर्फ चिल्ला-चोंपढ़ और गाली-गलौच का चलन है. दुर्भाग्य से आम तौर पर एक ही सुर-ताल सुनने को मिलता है, या तो आप मेरे से सहमत हैं, नहीं तो आप मेरे दुश्मन हैं; इससे भी दयनीय परिस्थिति यह है कि अगर आप मेरी तरफ नहीं हैं तो यकीनन आप देश के दुश्मन हैं, एक राष्ट्रद्रोही हैं.”

“एक सेक्युलर देश में, प्रत्येक विश्वास को धार्मिक होना कोई ज़रूरी नहीं. यहां तक कि संविधान के तहत नास्तिकों को भी समान अधिकार प्राप्त हैं.

चाहें कोई विश्वासी हो, एक अज्ञेय हो या एक नास्तिक हो, हमारे संविधान के तहत प्रत्येक व्यक्ति को विश्वास और विवेक की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त है.
उन्होंने असहमति के अधिकार को तवज्जो देते हुए कहा कि:

“जब तक एक व्यक्ति कानून नहीं तोड़ता है या विभाजन को प्रोत्साहित नहीं करता है, उसे यह अधिकार है कि वह हरेक दूसरे नागरिक और जो सत्ता में बैठे हैं उनसे असहमत हो, और जो भी उसका विशवास हो वह उसका प्रचार-प्रसार कर सकता है.”

ए.डी.एम्. जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला, (1976) 2 SCC 521 [A.D.M. Jabalpur v. Shivkant Shukla, (1976) 2 SCC 521] में न्यायमूर्ति एच.आर.खन्ना द्वारा असहमति फैसले का हवाला दिया, जो इस ऐतिहासिक फैसले में अंततः बहुमत राय से बहुत अधिक महत्वपूर्ण रहा.

“असंतोष का अधिकार (The right to dissent) हमारे संविधान द्वारा गारंटीकृत सबसे महत्वपूर्ण अधिकारों में से एक है. जब तक एक व्यक्ति कानून नहीं तोड़ता है या विग्रह को प्रोत्साहित (encourage strife) न करें, उसे हर दूसरे नागरिक और जो सत्ता में हैं, उनसे असहमत होने का अधिकार प्राप्त है, और उस विशवास को प्रचारित करने का भी अधिकार जिसमें वह आस्था रखता है. ए.डी.एम्. जबलपुर के प्रकरण में न्यायमूर्ति एच.आर.खन्ना का फैसला, असहमति का एक ज्वलंत उद्धारण है जो इस ऐतिहासिक फैसले में बहुमत राय से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है. यह फैसला एक निडर और अदूषणीय न्यायमूर्ति द्वारा दिया गया फैसला था. न्यायाधीशों को शपथ दिलाई जाती है जब वे शपथ लेते हैं या दृढ़ता के साथ कहते हैं कि वे भय या पक्ष, स्नेह या द्वेष भावना के बिना अपनी सर्वश्रेष्ठ क्षमता के साथ अपने कर्तव्यों का पालन करेंगे. अपने कर्तव्य का पहला और सबसे महत्वपूर्ण पहलू बिना किसी डर के कर्तव्य पालन करना है.”

“एक जनतंत्र का यह बहुत ही अधिक महत्वपूर्ण पहलू है कि नागरिकों को सरकार का भय नहीं होना चाहिए. उन्हें अपने वाचरों को अभिव्यक्त करने में ज़रा सा भी डर नहीं होना चाहिए, जो शायद सत्ताधारियों को पसंद न हों. यकीनन, विचारों को सभ्य तरीके से बिना हिंसा भड़काए व्यक्त किया जाना चाहिए; लेकिन महज़ विचारों को व्यक्त करना कोई जुर्म नहीं हो सकता और उसे नागरिकों के ऊपर मढ़ा नहीं जाना चाहिए. अगर लोग निडर होकर अपनी राय व्यक्त कर सकें, बिना इस डर के कि उन पर मुकदमा ठोंक दिया जायेगा या उन्हें सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग किया जायेगा, तो जीने के लिए यह दुनिया कहीं बेहतर जगह होगी. यह वास्तव में दुखद है कि हमारे एक सेलिब्रिटी को सोशल मीडिया से इसलिए हटना पड़ा क्यूंकि उसे और उसके परिवार के सदस्यों को ट्रोल किया जा रहा था या गंभीर परिणाम झेलने के लिए डराया-धमकाया जा रहा था.”

उन्होंने श्रोताओं को अवगत कराया कि राजद्रोह का कानून अंग्रेज़ों के ज़माने में भारत में लागू किया गया था. हालाँकि उन्होंने यह यकीन दिलाने की कोशिश की कि यह प्रावधान लोगों को बल प्रयोग उकसाने से रोकने के लिए है, लेकिन वास्तव में इसका इस्तमाल वैध असंतोष या आज़ादी की किसी भी मांग को रोकने के लिए किया गया था.

दरअसल, ‘क्वीन इम्प्रेस बनाम बालगंगाधर तिलक, आई.एल.आर. (1898) 22 बम्बई 112 (Queen Empress v. Balgangadhar Tilak, ILR (1898) 22 Bom. 112) के मुक़दमे में ‘राजद्रोह’ शब्द को व्यापक अर्थ दिया गया था. “यह एकदम सारहीन (absolutely immaterial) है कि क्या इन लेखों के ज़रिये किसी भी तरह की अशांति या विस्फोट पैदा हुआ था. इन लेखों के ज़रिये अगर अभियुक्त की यह मंशा थी कि वह विद्रोह या अशांति उकसाए, उसका यह कृत यकीनन धारा १२४-अ के दायरे में आएगा”, और इस प्रकरण में यही मान्य रहा.
इस दृष्टिकोण को अस्वीकार करते हुए उन्होंने कहा:

“महज़ आलोचना जो किसी हिंसा को नहीं भड़काती, वह राजद्रोह का मामला नहीं होगा. महात्मा गाँधी के कथन को दोहराते हुए उन्होंने कहा कि “कानून द्वारा स्नेह का निर्माण या विनियमन नहीं किया जा सकता है. यदि किसी को किसी व्यक्ति या प्रणाली के लिए कोई स्नेह नहीं है, तो उसे यह आज़ादी होनी चाहिए कि वह अपनी विरक्ति को पूरी तरह से अभिव्यक्त कर सके, उस वक़्त तक जब तक कि वह हिंसा के बारे में नहीं सोचता, उसे बढ़ावा देने का या उकसाने का काम नहीं करता है.”

न्यायमूर्ति गुप्ता ने आगे बताया कि “सरकार के प्रति स्नेह रखने के लिए आप लोगों को बाध्य नहीं कर सकते हैं, और केवल इसलिए कि लोगों में सरकार के प्रति असंतोष है या सरकार के दृष्टिकोण से दृढ़ता के साथ वे असहमत हैं या वे कड़े शब्दों में अपनी असहमति अभिव्यक्त करते हैं; इन सब में राजद्रोह का मामला बनता ही नहीं है जब तक कि वे या उनकी कथनी हिंसा को बढ़ावा दे या उकसाए या हिंसा को बढ़ावा देने या उकसाने का प्रयास करे, और सार्वजानिक व्यवस्था को खतरे में डाले.”

उन्होंने कहा कि संविधान के संस्थापक पिताओं ने संविधान के अनुच्छेद १९ के तहत बोलने की आज़ादी के अधिकार के अपवाद के रूप में राजद्रोह को शामिल नहीं किया, क्योंकि उनकी मंशा साफ़ थी कि राजद्रोह केवल तभी अपराध हो सकता है जब वह सार्वजनिक अव्यवस्था या हिंसा की ओर अग्रसर हो या हिंसा उकसाता हो.

उन्होंने आगे यह स्पष्ट किया कि “केवल हिंसा या विद्रोह के लिए उकसाना वर्जित होना चाहिए, और इसलिए अनुच्छेद १९ के अपवादों में ‘राजद्रोह’ शब्द को शामिल नहीं किया गया है; लेकिन राज्य की सुरक्षा, सार्वजनिक अव्यवस्था या अपराध के लिए उकसाना आदि को शामिल किया गया है.”
दरअसल केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (Kedar Nath Singh v. State of Bihar, 1962 Supp 2 SCR 769), में सुप्रीम कोर्ट ने यह ठहराया है कि केवल सरकार की या उसकी नीतियों की आलोचना के लिए राजद्रोह के आरोप नहीं मढ़े जा सकते हैं. धारा १२४-अ के तहत मामला तभी बनता है जब शब्दों के ज़रिये – बोली या लेखन में – अव्यवस्था पैदा करने या हिंसा का सहारा लेकर सार्वजानिक शांति को भंग करने की मंशा रही हो.
न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा कि इस फैसले का बारीकी से विश्लेषण करने से  “…यह स्पष्ट है कि यदि अव्यवस्था या कानून और व्यवस्था की गड़बड़ी या हिंसा के लिए उकसाना नहीं पैदा हुआ होता, तो संविधान पीठ ने हर सम्भावना में, धारा १२४-अ को ही ख़त्म कर दिया होता. उसे तभी संवैधानिक करार दिया गया जब हिंसा के लिए उकसाने या सार्वजनिक अव्यवस्था या कानून और व्यवस्था को बिगाड़ने के संदर्भ में उसे पढ़ा गया.”

सन २०११ में कार्टूनकार असीम त्रिवेदी की गिरफ्तारी का हवाला देते हुए उन्होंने प्रस्तावित किया कि “मैं सोचता हूं कि हमारा देश, हमारा संविधान और हमारे राष्ट्रीय प्रतीक इतने मज़बूत हैं कि वे राजद्रोह के कानून के बिना सहारे के अपने कांधों पर खड़े रह सकते हैं. सम्मान, स्नेह और प्रेम अर्जित किया जाता है, लेकिन वे कभी भी हुक्म पर तामील नहीं किये जा सकते. जब राष्ट्र गीत गाया जा रहा हो तब आप एक व्यक्ति को खड़े होने के लिए मजबूर या विवश कर सकते हैं, लेकिन आप उसे कभी भी इसलिए मजबूर नहीं कर सकते कि वह दिल से उसे सम्मानित करे. एक व्यक्ति के दिल और दिमाग में क्या है, आप कैसे पता करेंगे?”

सन १९७४ में धारा १२४-अ में संसोधन कर इसे संज्ञेय अपराध बना दिए जाने पर अपनी निराशा व्यक्त करने में वे कतई नहीं हिचकिचाए:
“मेरे लिए यह सचमुच चौंकाने वाली बात है कि आज़ाद भारत में हम राजद्रोह से सम्बंधित प्रावधानों को और भी कठोर बनाएं और लोगों की आवाज़ पर लगाम लगायें.”

उन्होंने स्पष्ट किया कि हालांकि सरकार को शासन का अधिकार था, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि उसे सभी लोगों की आवाज़ का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार मिला है, क्योंकि भारतीय सरकार को आम तौर पर एक स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता है, और यह “जो पहले लाइन को लांघ गया” (साधारण बहुमत) के सिद्धांत (“first past the post principle”) का अनुसरण करता है.”

धारा १२४-अ की संवैधानिक विधिमान्यता को भारत के संविधान के अनुच्छेद १९ के सन्दर्भ में पढने की ज़रुरत है. इसलिए यह एकदम साफ़ है कि किसी भी नए सबब की वकालत करने की, चाहें वह उस वक़्त के सत्ताधारियों के लिए कितना भी अलोकप्रिय या असहज क्यों न हो, अनुमति दी जानी चाहिए. बहुसंख्यकवाद कभी भी कानून नहीं हो सकता (Majoritarianism cannot be the law). अल्पसंख्यक को भी अपने विचारों की अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार प्राप्त है. (Even the minority has the right to express its views). हमें याद रखना होगा कि भारत में हम “जो पहले लाइन लाँघ गया” (साधारण बहुमत) के सिद्धांत को अमल करते हैं. जो सरकारें एक बड़ा बहुमत प्राप्त कर सत्ता हासिल करती हैं, उन्हें भी ५० प्रतिशत मत नहीं मिलते हैं. इसलिए, हालांकि उन्हें शासन करने का अधिकार प्राप्त है या वे बहुमत प्राप्त सरकार कहलाती हैं, फिर भी यह दावा कतई भी नहीं किया जा सकता है कि सरकार सभी लोगों की आवाज़ का प्रतिनिधित्व करती हैं.

अभिव्यक्ति की आज़ादी और राजद्रोह के कानून के बीच परस्पर क्रिया (interplay) का एक और भी बहुत महत्वपूर्ण पहलू है, और यहां मैं भारतीय दंड संहिता की धारा १५३-अ के तहत विरक्ति पैदा करने का अपराध (the offence of creation of disharmony) और धारा ४९९-५०० के तहत आपराधिक मानहानि (criminal defamation) पर चर्चा करना चाहूँगा. राजद्रोह का मामला सिर्फ एक ऐसी सरकार के खिलाफ बनता है जो कानूनन स्थापित हो (a Government established by law). सरकार एक संस्था है, एक निकाय है, न कि एक व्यक्ति. व्यक्तियों की आलोचना को सरकार की आलोचना के समतुल्य नहीं समझा जा सकता है.

आपातकाल के अंधारमय दिनों के दौरान, एक पार्टी के अध्यक्ष द्वारा उसके नेता को देश के समतुल्य बनाने का प्रयास किया गया था. यह प्रयास बुरी तरह धराशाही हो गया, और मैं यकीन करता हूँ कि कोई भी अब भविष्य में किसी हस्ती को हमारे देश के समतुल्य घोषित करने की गुस्ताखी नहीं करेगा; एक देश, जो किसी व्यक्ति से कहीं बड़ा है. वरिष्ट पदाधिकारियों की आपराधिक मानहानि के दायरे में आ सकती है जिसके लिए वे कानून के अंतर्गत कार्यवाई कर सकते हैं, लेकिन यह यकीनन राजद्रोह या असंतोष फैलाने के दायरे में नहीं आयेगा.

उन्होंने आगे स्पष्ट किया कि सरकार के वरिष्ट अधिकारियों की आलोचना आई.पी.सी. की धारा ४९९-५०० के तहत मानहानि के दायरे में आ सकती है, लकिन किसी भी सोच-समझ के आधार पर न तो धारा १५३-अ के तहत असंतोष पैदा करने या राजद्रोह के दायरे में आयेगी.

उन्होंने सत्ताधारियों द्वारा इन प्रावधानों के दुरूपयोग पर पीड़ा व्यक्त की.

“जिस तरह से धारा १२४-अ के प्रावधानों का दुरूपयोग किया जाता है, उससे यह सवाल उठता है कि क्यों न हम उस पर पुनर्विचार करें. एक संवैधानिक अधिकार होने के नाते अभिव्यक्ति की आज़ादी को राजद्रोह के कानून के ऊपर प्राथमिकता मिलनी चाहिए”, उन्होंने कहा.

सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, २००० (Information Technology Act,२०००) की धारा ६६-अ के तहत गिरफ्तारियों (बावजूद इसके कि सर्वोच्च न्यायालय नेइस धारा को हटा दिया था) का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा-

“भारतीय न्यायपालिका के बारे में यह बहुत ही शर्म की बात है कि दंडाधिकारीगण देश के कानून के बारे में ही अनभिग्य हैं, और दिन-प्रतिदिन हम सुनते हैं कि ऐसे अपराधों के सम्बन्ध में दंडाधिकारीगण न्यायिक हिरासंत या पुलिस रिमांड के पक्ष में फैलसा देते हैं जबकि बुनियादी अपराध ही नहीं बनता और वह भी सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा ६६-अ के तहत, एक ऐसा कानून जो वैध ही नहीं रहा.”
इसके आगे उन्होंने सुझाव देते हुए कि राजद्रोह के कानून पर पुनर्विचार की ज़रुरत पर कहा:

“भारत एक शक्तिशाली देश है, और इसके नागरिक जिससे प्रेम करते हैं. हमें भारतवासी होने पर गर्व है. लेकिन, फिर भी, हमें सरकार की आलोचना करने का अधिकार प्राप्त है. सरकार की आलोचना अपने आप में राजद्रोह नहीं हो सकता. जिस देश में कानून के राज्य का शासन हो, और जहां इसके नागरिकों को बोलने, अभियक्ति और विशवास की आज़ादी सुनिश्चित हो, फिर भी राजद्रोह के कानून और इसी तरह के अन्य कानूनों का दुरूपयोग हो, तो वह उस आज़ादी की आत्मा के ही खिलाफ है जिसके लिए स्वतंत्रता सेनानियों ने संघर्ष किया, यहां तक कि उन्होंने अपनी जान की कुर्बानी दे दी.”
“सत्ताधारी जो शासन करते हैं, उनके काँधे इतने चौड़े होना चाहिए कि वे आलोचना को झेल सकें. उनकी सोच का दायरा इतना व्यापक होना चाहिए कि वे उस सच को भी कबूल कर सकें कि उनके अलावा कोई और भी मत हो सकता है….सत्ता में बैठे लोगों को अपनी खाल को मोटा करना चाहिए. वे उन लोगों के प्रति अति-संवेदनहीन नहीं हो सकते जो उनका मज़ाक उठाते हैं. एक आज़ाद देश में लोगों को अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार है. हर कोई सभ्य और शालीन भाषा का इस्तमाल नहीं कर सकता. अशलील, असभ्य और मानहानि करने वाली भाषा का अगर इस्तमाल होता भी है, तो इसका उपचार है कि मानहानि का मुकदमा चलाने की प्रक्रिया चालू की जाए, न कि उन व्यक्तियों पर राजद्रोह या अशांति पैदा करने का अभियोग.”

राष्ट्रवाद पर गुरुदेव रबिन्द्रनाथ टेगोर की एक सोच थी, जो हममें से बहुतों की सोच से परे हटकर परस्पर विरोध में है. दरअसल, उन्होंने सत्याग्रह आन्दोलन की कभी सराहना नहीं की. उन्होंने राष्ट्रीय गान बेशक लिखा है, लेकिन उसके साथ ही उनका मत था कि “राष्ट्रवाद एक बहुत बड़ा जोखिम भी है”. (“nationalism is a great menace”). मैं उनके इन विचारों से कतई सहमत नहीं हूं, और उस दौर के महान नेता भी उनके इन विचारों से सहमत नहीं थे; लेकिन इसके बावजूद उनके इन विचारों के चलते वे उस समय के अपने किसी भी समकालीन नेता से किसी भी मायने में न तो कम भारतीय रहे, न ही कम देशप्रेमी. महज़ इसलिए कि कोई व्यक्ति सत्ता में बैठी सरकार से असहमत है या सत्ताधारी सरकार का घोर आलोचक है, उसे सत्ता में बैठे लोगों की तुलना में कोई कम देशप्रेमी नहीं बना देता. लेकिन वर्तमान माहौल में, अगर कोई व्यक्ति कहे कि ““राष्ट्रवाद एक बहुत बड़ा जोखिम भी है”, तो शर्तिया उसे राजद्रोह के अपराध के लिए आरोपित किया जा सकता है.

न्यायपालिका की आलोचना :

“न्यायपालिका, आलोचना से ऊपर नहीं है. (The judiciary is not above criticism) अगर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश उन सभी अवमानना संचारों (contemptuous communications) पर गौर फरमाने लगें जो उन्हें मिलते हैं, तो अवमानना के मुकदमों के सिवा और कोई भी काम नहीं होगा. दरअसल, मैं न्यायपालिका की आलोचना का स्वागत करता हूं, क्योंकि अगर आलोचना होगी, तभी सुधार होगा. न केवल आलोचना होनी चाहिए, लेकिन आत्मनिरीक्षण (introspection) भी होना चाहिए. जब हम आत्मनिरीक्षण करते हैं तो हमें पता चलता है कि तमाम फैसलों में सुधार की ज़रुरत है. कार्यपालिका, न्यायपालिका, नौकरशाही या सशस्त्र बलों की आलोचना को राजद्रोह नहीं ठहराया जा सकता है. यदि हम संस्थानों की आलोचना का गला घोंट देने का प्रयास करेंगे, चाहें वे विधायिका हो, कार्यपालिका हो, या न्यायपालिका हो या राज्य का अन्य कोई निकाय हो, तो हम एक लोकतंत्र न होकर एक पुलिस राज्य बन जायेंगे; हमारे देश के संस्थापक पिताओं ने कभी भी इस देश की ऐसी परिकल्पना नहीं की थी.”

न्यायमूर्ति गुप्ता ने इस अभिभाषण को हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायलय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति प्रबोध दिनकरराव देसाई को समर्पित किया. उन्होंने कहा कि न्यायमूर्ति देसाई एक निडर हस्ती थे जो कानून को समाज परिवर्तन के एक औज़ार के रूप में इस्तमाल कर सही और उचित काम करने में विश्वास रखते थे. अपने अभिभाषण के समापन में उन्होंने कहा:

“निष्कर्ष निकालने के लिए, मैं कहूंगा कि यदि इस देश को प्रगति करनी हैं, न केवल वाणिज्य और उद्योग के छेत्र में लेकिन मानव अधिकारों के छेत्र में भी प्रगति करने होगी, और इसे एक चमकदार, एक प्रभावी, जीवंत लोकतंत्र का ज्वलंत उधाहरण बनके उभारना होगा, तभी लोगों की आवाज़ को कभी भी दबाया न जा सके.”

अंत में, मैं इससे बेहतर और कुछ नहीं कह सकता जो गुरुदेव रबिन्द्र नाथ टेगोर ने अपनी इस कविता में उदगार पेश किये हैं:

जहां मन में भय न हो कोई, और ऊंचा हो भाल
जहां ज्ञान हो मुक्त,
जहां संकीर्ण दीवारों में न बंटी हो दुनिया
जहां सत्य की गहराई से निकलते हों शब्द सभी,
जहां दोषरहित सृजन की चाह में,
अनथक उठती हों सभी भुजाएं,
जहां रूढ़ियों के रेगिस्तान में खो न गई हो,
तर्क-बुद्धि-विवेक की स्वच्छ धारा
जहां लगातार खुले विचारों और कर्मों से
मिलती हो मन को सही दिशा…
ओ परमपिता, स्वतंत्रता के उसी स्वर्ग में जागे ये देश हमारा !
सभी को धन्यबाद, जय हिन्द!


लाइव लॉ न्यूज़ नेटवर्क द्वारा प्रकाशित खबर का हिंदी अनुवाद. अनुवाद : राजेन्द्र सायल