बेवफ़ा सोनम गुप्ता के रहस्यलोक से निकले यूपी प्रेस क्लब के रामकुमार !

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‘वह भी कोई देश है महाराज ‘  जैसे मशहूर यात्रा वृतांत और ‘नगरवधुएँ अख़बार नहीं पढ़ती हैं’  जैसेे कथासंग्रह के रचयिता, अलबेले लेखक और पत्रकार अनिल यादव की अगली किताब ‘सोनम गुप्ता बेवफ़ा नहीं है’  महीने भर बाद , दिल्ली के पुस्तक मेले में 17 जनवरी को, पाठकों के हाथ होगी ।इस किताब में वह सब है जिसे अनिल ने बीते 20 सालों में मीडिया और समाज में आए बदलावों  को समझते हुए दर्ज किया है। स्वाद का अंदाज़ इस संस्मरण से लगाइए जिसे अनिल ने यूपी प्रेस क्लब में अरसे तक पत्रकारों  और पत्रकारिता के उतार-चढ़ाव के साक्षी रहे रामकुमार के न रहने पर लिखा था–

                  

                                                            रामकुमार के लिए

 

वह किसी रहस्यमय रिमोट विधि से उन तक हर शाम गिलास, बर्फ़ और रियायती दर के कबाब तो पहुँचा नहीं देता था फिर भी देश के कोनों तक में रिपोर्टर और संपादक रस्मी हालचाल के अंत में पूछ लिया करते थे…और रामकुमार ठीक है? उसके ठीक होने न होने से शायद उन्हें कोई खास लेना-देना नहीं था, न उसकी याद ही उन्हें हाथ पकड़कर लखनऊ लाती थी और चाइना गेट की सीढिय़ाँ चढ़ाकर किसी बहकती रात के भीतर छोड़ जाती थी। शायद उसके ठीक होने से वे आश्वस्त होते थे कि वैसी रातें जि़ंदगी में फिर आएँगी। ख़बरनवीसी के तनाव और थकान से भरे दिन पर खुमार, बहस, हँसी और तरानों के बादलों सी तिरती हुई।

रामकुमार आधी सदी पुराना चपरासी था जो प्रेस क्लब का पर्याय बन चुका था, आज खामोशी से गुज़र गया। बिरादर लोग अभी बहुत दिनों तक लखनऊ का ज़िक आने पर उसकी खैर ख़बर पूछते रहेंगे। संचार क्रांति इतराती हुई चाहे जहाँ पहुँच जाए, फंडा वही रहेगा। छोटा आदमी-छोटी ख़बर, बड़ा आदमी-बड़ी ख़बर।

पत्रकारिता के मिशन से कॉर्पोरेट होने और निशाचर पत्रकारों के अड्ïडे से सरकारी अनुकंपाधारित, घड़ी देखकर बंद होने वाला एयरकंडीशंड प्रेस क्लब बनने तक का लंबा दौर उसने देखा था। हर रात वह सबको विदा करके किसी मेज़ पर बिस्तर लगाकर लुढ़क जाता था, सुबह उठकर साइकिल से घर, फिर शाम होते ही वापस हाजिर। यहाँ की रातें ही उसकी जि़ंदगी थी। उसने बहुत बड़े-बड़े लोगों को अपने असली रंग में देखा था। इस सोहबत के कारण वह टेबल टेनिस बहुत अच्छा खेलता था और उसकी आँखों में सहज आत्मविश्वास उतर आया था जो उसके किसी काम का नहीं था।

वह जिस तबके का था, वहाँ वह अपने संपर्कों का ज़िक्र करता तो लोग नौकरी-चाकरी समेत कुछ भी दिला देने के लिए उसकी जान खा जाते. किसी से अपने लिए भी कुछ माँगना  उसके आत्मसम्मान के ख़िलाफ़ था। हाँ,  उसे उनके क़िस्सों की ताक़त का ज़रूर पता था। कभी कोई युवा महत्त्वाकांक्षी रिपोर्टर पत्रकारिता को नापने के इरादे से उससे पूछता कि वह अब तक का सबसे बेहतरीन पत्रकार किसको मानता है? बहुत लंबी नामों की फेहरिस्त को नकारने और समझदार खामोशी के बाद वह बुदबुदाता, “पुरानी बात है साहेब। स्टेट्समैन के एक हम्दी बे साहेब रहेन। उधर बेगम हजरत महल पार्क में इंदिरा गांधी का भाषण होता रहा और ऊ हियां बइठ के जिन पीयत रहेन। खिड़की से लाउडस्पीकर सुनिके स्टोरी बनाय देत रहेन। हमका चालीस पैसा देत रहेन और हम जाइके पोस्ट ऑफिस में भेजि आवत रहेन।”

किस्सों का खजाना था उसके पास। इनमें से कई तो अच्छे खासे पत्रकारों को नष्ट हो जाने के लिए उकसाने वाले थे, जिनका सार होता था, हर फिक्र को धुएँ में उड़ाये चले जाओ साहेब! आत्मघाती उदाहरणों की पत्रकारिता में कभी कमी भी नहीं रही।

बहुत पहले उसका घर चाइनागेट के आसपास ही था। तब अरुण नेहरू भी यहीं रहते थे। लड़कपन में वह नेहरू को साइकिल के कैरियर पर बिठाकर घुमाता था और उनके साथ क्रिकेट खेलता था। उसके बाद वह बहुत से नामवर लोगों के रहस्यों और कमज़ोरियों का साक्षी और साझीदार रहा लेकिन हमेशा गरिमामय ढंग से सुरक्षित रखा। क्लब की बहकती रातों में अक्सर लोगों के निजी दुख छलक आते थे, मारपीट और झगड़े भी होते थे लेकिन हमेशा उसका रवैया रात गई, बात गई वाला रहता था। अगले दिन कोई कितनी भी बड़ी तोप आकर पूछे कि कौन-कौन बैठा था, उसका जवाब हमेशा यही रहता था, “केका बताई, सब अख़बार वाले रहेन साहेब।“

बाद के दिनों में जब चीज़ों का ब्रांड देखकर आदमी हैसियत तय कर देने वालों की तादाद बढऩे लगी तो वह बेचैन हो जाता था। ऐसे लोगों को वह बड़े सलीके से चिकोटी काटता था। किसी बोतल के बारे में पूछता था, “कितने की मिलती है साहेब।“ फिर बताता था, “जया बच्चन के पापा (स्टेट्समैन के संवाददाता तरुण भादुड़ी) बारह रुपिया मा लायके देत रहेन अउर हमसे बीड़ी माँग के पियत रहेन।“ उसकी बीड़ी तो जनवाद जगने पर अक्सर लोग माँगकर पीते थे।

वह श्रमजीवी यूनियन का बक्सा लेकर पत्रकार सम्मेलनों में देश भर में गया था। वह इस पेशे की आत्मा को समझता था। एक बार उसने किसी अख़बार से फोटो काटकर रखी थी जिसमें बाढ़ के पानी में एक महिला और उसका बच्चा डूब रहे थे। नीचे कैप्शन लगा था, डूबने से पहले ये माँ-बेटे ढाई घंटे तक मृत्यु से संघर्ष करते रहे। वह कटिंग दिखाकर पूछता था कि ये फोटोग्राफर साहेब इतने समय तक क्या कर रहे थे, दोनों को बचाने के लिए कुछ नहीं कर सकते थे?

उससे पूछो, रामकुमार, इतने लंबे समय से तुम यहाँ हो बताओ कि पत्रकारिता में क्या फर्क आया है। बहुत कुरेदने पर वह इतना ही कहता था, ‘तबके लोगन के पास बड़ा दिल रहा, अब ऊ बात नहीं।’ इन पचास सालों की रातों ने उसकी चेतना पर क्या असर डाला, काश उसे डीकोड किया जा सकता तो पत्रकारिता की ज़्यादा मुकम्मल और सच्ची तस्वीर बनायी जा सकती थी।

मोबाइल से बात करते अनिल यादव की तस्वीर।