आज ही शहीद हुए थे JNU अध्यक्ष चंदू! माँ ने एक लाख की मदद ठुकराकर पीएम को लिखा था-क़ातिलों से सुलह नहीं!

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जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष चंद्रशेखर की आज से ठीक 25 साल पहले 31 मार्च 1997 की सीवान में  दिनदहाड़े हत्या कर दी गई थी। कुछ दिन पहले दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल में छात्रों को संबोधित करके लौटे आइसा नेता चंद्रशेखर अपने गृह जनपद सीवान को सामंती उत्पीड़न और लूट से मुक्त कराने के लिए ज़मीनी संघर्ष में कूद पड़े थे। सियोल से सीवान!-साथी मज़ाक में कहते थे, लेकिन भगत सिंह जैसा जीवन और चेग्वारा जैसी मौत की कामना करने वाले चंद्रशेखर उर्फ़ चंदू के लिए क्रांति कोई मज़ाक नहीं थी जिसे महानगरीय जीवन के सुरक्षित खोहों में बैठकर अंजाम दिया जा सकता था। किसी विश्वविद्यालय में शिक्षक होने की जगह उन्होंने सीपीआई(एम.एल) के बैनर तले सीधै मैदान में कूदने का फ़ैसला किया और बलिदानी परंपरा का नया इतिहास रच दिया। उनकी शहादत के वक्त प्रधानमंत्री पद पर एच.डी.देवगौड़ा थे जिन्होंने एक लाख रुपये की मदद चंदू की माँ कौशल्या देवी को भिजवाई थी। कौशल्या देवी ने यह राशि लौटाते हुए जो पत्र लिखा, उसमें सिर्फ़ हत्यारों को सज़ा दिलाने की माँग नहीं थी, बल्कि देश की मुक्ति का सपना भी झलक रहा था। कौशल्या देवी ने कवि और सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता संतोष सहर को यह पत्र बोल कर लिखवाया था। संतोष ने बाद में लिखा था -‘अम्मां की ओर से लिखवाया गया यह पत्र जिसे मैंने आधी रात में, कांपते हुए हाथों, कंठ में अटकी रुलाई और बहते हुए आंसुओं के बीच लिखा, मैं कैसे भूल सकता हूँ? उस पत्र को जो अगले दिन राज्य व देश के कई अखबारों में हूबहू छपा था और एक मां की ताकत का नजीर बन गया था।’

 

पढ़िए, वह पत्र–

 

प्रधानमंत्री महोदय,

आपका पत्र और बैंक-ड्राफ्ट मिला।

आप शायद जानते हों कि चन्द्रशेखर मेरी इकलौती सन्तान था। उसके सैनिक पिता जब शहीद हुए थे, वह बच्चा ही था। आप जानिए, उस समय मेरे पास मात्र 150 रुपये थे। तब भी मैंने किसी से कुछ नहीं मांगा था। अपनी मेहनत और ईमानदारी की कमाई से मैंने उसे राजकुमारों की तरह पाला था। पाल-पोसकर बड़ा किया था और बढ़िया से बढ़िया स्कूल में पढ़ाया था। मेहनत और ईमानदारी की वह कमाई अभी भी मेरे पास है। कहिए, कितने का चेक काट दूं।

लेकिन महोदय, आपको मेहनत और ईमानदारी से क्या लेना-देना! आपको मेरे बेटे की ‘दुखद मृत्यु’ के बारे में जानकर गहरा दुख हुआ है – आपका यह कहना तो हद है महोदय! मेरे बेटे की मृत्यु नहीं हुई है। उसे आपके ही दल के गुंडे, माफिया डॉन सांसद शहाबुद्दीन ने, जो दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष, बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद का दुलरुआ भी है, खूब सोच-समझकर और योजना बनाकर मरवा डाला है। लगातार खुली धमकी देने के बाद, शहर के भीड़-भाड़ भरे चौराहे पर सभा करते हुए, गोलियों से छलनी कर देने के पीछे कोई ऊंची साज़िश है प्रधानमंत्री महोदय! मेरा बेटा शहीद हुआ है, वह दुर्घटना में नहीं मरा है।

मेरा बेटा कहा करता था कि मेरी मां बहादुर है। वह किसी से भी डरती नहीं, वह किसी भी लोभ-लालच में नहीं पड़ती। वह कहता था – मैं एक बहादुर मां का बहादुर बेटा हूं। शहाबुद्दीन ने लगातार मुझको कहलवाया कि अपने बेटे को मना करो नहीं तो उठवा लूंगा। मैंने जब यह बात उसे बतलायी तब भी उसने यही कहा था। 31 मार्च की शाम जब मैं भागी-भागी अस्पताल पहुंची वह इस दुनिया से जा चुका था। मैंने खूब गौर से उसका चेहरा देखा, उस पर कोई शिकन नहीं था। डर या भय का कोई चिन्ह नही था। एकदम से शांत चेहरा था उसका प्रधानमंत्री महोदय! लगता था वह अभी उठेगा और चल देगा। जबकि प्रधानमंत्री महोदय! उसके सिर और सीने में एक-दो नहीं, सात-सात गोलियां मारी गयी थीं। बहादुरी में उसने मुझे भी पीछे छोड़ दिया।
मैंने कहा न कि वह मर कर भी अमर है। उस दिन से ही हजारों छात्र-नौजवान जो उसके संगी-साथी हैं, जो हिन्दू भी हैं, मुसलमान भी, मुझसे मिलने आ रहे हैं। उन सब में मुझे वह दिखाई देता है। हर तरफ, धरती और आकाश तक में, मुझे हजारों-हजार चन्द्रशेखर दिखाई दे रहे हैं। वह मरा नहीं है प्रधानमंत्री महोदय!

इसलिए, इस एवज में कोई भी राशि लेना मेरे लिये अपमानजनक है। आपके कारिंदे पहले भी आकर लौट चुके हैं। मैंने उनसे भी यही सब कहा था। मैंने उनसे कहा था कि तुम्हारे पास चारा घोटाला का, भूमि घोटाला का, अलकतरा घोटाला का जो पैसा है, उसे अपने पास ही रखो। यह उस बेटे की कीमत नहीं है जो मेरे लिये सोना था, रतन था, सोने और रतन से भी बढ़कर था। आज मुझे यह जानकर और भी दुख हुआ कि इसकी सिफारिश आपके गृह मंत्री इंद्रजीत गुप्त ने की थी। वे उस पार्टी के महासचिव रह चुके हैं जहां से मेरे बेटे ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी। मुझ अपढ़-गंवार मां के सामने आज यह बात और भी साफ हो गयी कि मेरे बेटे ने बहुत जल्द ही उनकी पार्टी क्यों छोड़ दी। इस पत्र के माध्यम से मैं आपके साथ-साथ उन पर भी लानतें भेज रही हूं जिन्होंने मेरी भावनाओं के साथ यह घिनौना मजाक किया है और मेरे बेटे की जान की यह कीमत लगवायी है।

एक ऐसी महिला के लिए – जिसका इतना बड़ा और इकलौता बेटा मार दिया गया हो, और जो यह भी जानती हो कि उसका कातिल कौन है – एकमात्र काम जो हो सकता है, वह यह कि कातिल को सजा मिले। मेरा मन तभी शांत होगा महोदय! उसके पहले कभी नहीं, किसी भी कीमत पर नहीं। मेरी एक ही जरूरत है, मेरी एक ही मांग है – अपने दुलारे शहाबुद्दीन को किले से बाहर करो। या तो उसे फांसी दो या फिर लोगों को यह हक दो कि वे उसे गोली से उड़ा दें।

मुझे पक्का विश्वास है प्रधानमंत्री महोदय! आप मेरी मांग पूरी नहीं करेंगे। भरसक यही कोशिश करेंगे कि ऐसा न होने पाये। मुझे अच्छी तरह मालूम है कि आप किसके तरफदार हैं। ‘ मृत्तक के परिवार को तत्काल राहत पहुंचाने हेतु’ स्वीकृत एक लाख रुपये का यह बैंक-ड्राफ्ट आपको ही मुबारक। कोई भी मां अपने बेटे के कातिलों के साथ सुलह नहीं कर सकती।

कौशल्या देवी

(शहीद चन्द्रशेखर की मां)
बिंदुसार, सिवान

18 अप्रैल 1997, पटना

 



यह पत्र चार साल पहले 31 मार्च 2018 को भी मीडिया विजिल में प्रकाशित हो चुका है–संपादक