‘केसरी’ का कोहराम, इतिहास के क़ातिल और सच का तन्हा चाँद !

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त्रिभुवन

उर्दू की मशहूर शायर परवीन शाक़िर का एक बहुत सुंदर शेर है : अपने क़ातिल की ज़ेहानत से परेशान हूँ मैं, रोज़ इक मौत नए तर्ज़ की ईजाद करे। कुछ ऐसा ही आजकल इस कालखंड में चल रहा है।

अभी एक फ़िल्म आई है ‘केसरी’। इसका इतना कोहराम मचा है कि हर जगह केसरिया बलिदान और शूरवीरता के किस्से बखाने जा रहे हैं। हम लोग कई बार रौ में इतने बह जाते हैं कि सत्य और तथ्य पीछे छूट जाते हैं और झूठ और मिथक हवाओं में तैरने लगते हैं।

‘केसरी’ पर प्रतिक्रया लिखते हुए मेरे एक सीनियर मित्र और एक आला आईपीएस ऑफ़िसर महेंद्र सिंह ने बहुत कड़वा; लेकिन एकदम सही लिखा है, ‘Upper crust of Indian Society kings, feudal lords, businessmen, service class, army officers and from lower class Indians soldiers were responsible not only for slavery of their own country but also helped the Colonisers enslaving many other free societies’.

कई बार तो चीज़ें इतनी स्पष्ट हाेती हैं कि वे बच्चों को भी समझ आ जाएं; लेकिन बहुतेरे भावुक हृदय सुशिक्षित लोगों की समझ से वे परे ही रहती हैं। इस फिल्म के ट्रेलर के शुरुआत में ही अक्षय कुमार कहते हैं, ‘एक गोरे ने मुझसे कहा था कि तुम ग़ुलाम हो, हिन्दुस्तान की मिट्टी से डरपोक पैदा होते हैं। आज जवाब देने का वक्त आ गया है।’ लेकिन किसे जवाब देने का वक्त आ गया है? अक्षयकुमार और उनकी टुकड़ी इस फिल्म में गोरों को नहीं, गोरों के लिए गोरों के दुश्मनों को जवाब देता है; लेकिन अपनी इस कथित बहादुरी में उन्हें ये भविष्य-बोध नहीं होता कि वे इस घड़ी अपने बलिदान और प्राणोत्सर्ग से हिन्दुस्तान के सीने पर एक लंबी ग़ुलामी लिखने जा रहे हैं।

यह सच है कि सारागढ़ी की लड़ाई 1897 में हुई थी; लेकिन सिखों की बहादुरी और शूरवीरता के किस्से ही देखने हों तो वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से पहले और बाद बिखरे पड़े हैं। सारागढ़ी वाक़ई सिख इतिहास का कोई उजला पन्ना नहीं है; क्योंकि ये अंगरेज़ शासन के हित के लिए लड़ी गई है।

सिखों की बहादुरी और वीरता का वैभव देखना हो तो आपको इतिहास के कुछ पन्ने खोलने होंगे। और वह विश्व प्रसिद्ध ऐतिहासिक लड़ाई है चिल्लियांवाली की। चिल्लियांवाली में जनवरी 1849 में सरदार शेरसिंह अटारीवाला की सिख खालसा आर्मी के कुछ सौ सिखों ने सिर्फ़ 60 बंदूकों से अंगरेज़ सेनापति सर हग गॉघ की ब्रिटिश सेना के धुर्रे उड़ा दिए थे। इसमें 757 अंगरेज़ सैनिकों को रणभूमि में ढेर किया गया और 100 से ज़्यादा अंगरेज़ों को सिख सरदारनियां ही उठा ले गईं और पीट-पीटकर मार डाला। उनका तो निशान तक नहीं मिला। इस लड़ाई से अंगरेज़ बहुत भयभीत हो गए और सिखों को बरगाने लगे। मुझे नहीं मालूम कि चिल्लियांवाली की लड़ाई को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का दर्ज़ा क्यों नहीं दिया जाता, जबकि 1857 के विद्रोह को दिया जाता है। ख़ैर,‌ये इतिहासविदों का काम है।

‘केसरी’ फ़िल्म के लिए मेरे ज़हीन दोस्त महेंद्रसिंह बहुत बेबाकी से लिखते हैं : “Slaves were fighting for their masters to enslave an independent community. I do not know what is great in that. But in our history greatness is defined by our colonial masters. By that parameter first Yadavs , Brahmins , bhumihars etc who helped the British East India Company to annex India were declared great warriors but when they revolted in 1857 , they were declared non -martial races and those who helped British in suppression of the war of Independence – Gurkhas, Rajputs and Sikhs were declared martial races and our common folk and even professors still vomit that shit. Indians soldiers were responsible not only slavery of their own country but also helped the Colonisers enslaving many other societies”.

संभव है, यह कटु-सत्य बहुत से मित्रों को नहीं पचे; लेकिन भारतीय इतिहास और संस्कृति में अंगरेज़ों ने बुद्धिमत्ता, वीरता, स्वतंत्रता और लोककल्याण के जो मानदंड तय किए हैं, वे भारतीय लोक को राहत देने वाले नहीं हैं। कई बार तो यह भी होता है कि इस तरह की मिथकीय पटकथाओं में भी जो ठीक और वाजिब बात होती है, उसे यों ही उड़ा दिया जाता है। जैसा कि इस फिल्म में एक फ़ौजी गुस्से में अक्षय कुमार से कहता है, कोई फ़ौजियों वाला काम है तो बताओ सरजी, हम यहां पठानों से लड़ने आए हैं, उनकी मस्जिदें बनाने नहीं। इस पर अक्षय जवाब देते हैं- जब लड़ने का वक्त आएगा तब लड़ेंगे, अभी तो रब का घर बनाने का वक्त है। रब से कैसी लड़ाई! अरे धंधा करते हैं रब से लड़ाई और रब को सुबहोशाम रक्तस्नान कराने का और बात करते हैं बलिदानों की। केसरिया रंग और उसके नूर की!

किसी कालखंड में जब इतिहास के क़ातिल सच को भी ज़मींदोज़ करने का अभियान बहुत सघनता और सुचिंतित ढंग से चला रहे हों तो यह याद दिलाना आवश्यक है कि आजकल केसरिया, बलिदान, देशभक्ति, राष्ट्रप्रेम आदि पवित्र शब्दों को उस विचारधारा के लाेगों ने अपहृत कर लिया है, जिन्होंने इतिहास में न कभी बलिदान दिया, न देशभक्ति निभाई, न देशप्रेम साबित किया, न एक दिन जेल गए और न ही भगतसिंह के अनुयायी बने और न ही गांधी के। वे भगतसिंह को लेकर गांधी तक को कठघरे में खड़ा करते हैं, लेकिन उनके महान संगठन के किसी महापुरुष ने भगतसिंह से जाकर न तो जेल में मुलाक़ात की, न उनके समर्थन में कोई अभियान चलाया और न ही स्वतंत्रता के लिए स्वयं कोई अभियान ही खड़ा किया। आज़ादी आ गई तो जैसे आधी सदी बाद उसे अपने घर की सियासी बाखल़ में बांध लिया!

‘केसरी’ में अक्षय कुमार लड़ाई के वक़्त कहते हैं, ‘केसरी रंग का मतलब समझते हो? ये बहादुरी का रंग है, शहीदी का। अक्षय कहते हैं, ‘आज मेरी पगड़ी भी केसरी, जो बहेगा मेरा लहू भी केसरी और मेरा जवाब भी केसरी’। लेकिन आज केसरिया रंग पर अपना आधिपत्य जताने वाले उस समय भारतीय परिदृश्य से लुप्तप्राय थे, जिस समय केसरिया, बलिदान, देशभक्ति, राष्ट्रप्रेम, वंदेमातरम् जैसे शब्द बोलने भर पर जेल भेज दिया जाता था।

आज़ादी की लड़ाई में जितने लोगों को फांसी चढ़ाया गया, उनमें 90 प्रतिशत सिख हैं। सिखों का उज्ज्वल इतिहास सिख-एंग्लो वार फस्ट और सिख-एंग्लो वार सेकंड में दिखाई देता है। दरअसल सारागढ़ी को बहादुरी बताने के पीछे की मानसिकता को जानना भी बहुत ज़रूरी है। भारत भूमि पर अंगरेजों के लिए लड़ी गई एक अपमानजनक बैटल को कैसे महानता का जामा पहनाया गया, इसकी भी एक अंतर्कथा है।

कितनी हैरानी की बात है कि 1845 के जिस कालखंड में फस्ट सिख-एंग्लो वार हो रहा था और ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ सिख साम्राज्य के योद्धा लड़ रहे थे, उस समय युदध् में ईस्ट इंडिया कंपनी की‌ मदद में पटियाला स्टेट और जींद स्टेट लड़ रही थीं। पटियाला स्टेट के महाराजा ने ही कालांतर में अंगरेजों का भरपूर साथ दिया और 17 गन सैल्यूट्स का ख़िताब पाया।

कहां तो महाराजा रणजीतसिंह अपनी सेना में मुसलमान योद्धाओं को अंगरेजों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल कर रहे थे और कहां अंगरेजों ने सिखों को सिखों और अफ़गानों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करने की कूटनीति चली। महाराजा रणजीतसिंह ने तो अपनी सेना के सिख, हिंदू और मुसलमान सैनिकों को प्रशिक्षित करने के लिए अमेरिका और यूरोप से बहुत से योद्धाओं को किराये पर लिया था। ज्यां फ्रैंकोइस अलार्ड और अलेक्ज़ेंडर गार्डनर जैसे योरोपीय सैन्य शूरवीरों को उन्होंने सिख बनाकर रखा और अपने जैसा बना लिया था।

सारागढ़ी की लड़ाई में अंगरेज़ नहीं जीते होते तो पंजाब का नामोनिशान मिटाकर अंगरेज़ कभी भी नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस खड़ा नहीं कर पाते।

आज झूठ के घने बादलों के पीछे इतिहास के सच का चांद बहुत तन्हा है, लेकिन यह कह रहा है कि सदा अमावस्या नहीं रहती।