Exclusive: चुनावी जीत-हार के पार जनता के असली पहरेदार, जो अब भी मैदान में डटे हैं!



अभिषेक श्रीवास्‍तव

दुनिया की हर जंग किसी की हार और किसी की जीत पर खत्‍म होती है। चुनावी जंग की खासियत यह है कि इसमें जीतने और हारने वाले दोनों पक्षों पर बात होती है। बाकी संघर्षों में ऐसा कम होता है। चुनाव में हालांकि पक्ष एकाधिक होते हैं इसलिए मुख्‍य पक्ष और विपक्ष तक ही बात टिक जाती है। जीत और हार के बीच एक बहुत चौड़ी पट्टी होती है जहां ढेरों चेहरे बिखरे होते हैं। इन पर कभी बात नहीं होती। ये लोग कौन हैं, कहां से आए थे, कहां गए, क्‍यों लड़े, लड़ने के बाद क्‍या कर रहे हैं और लड़ने से पहले क्‍या कर रहे थे, ये कहानियां हमें कोई नहीं बताता।

अभी-अभी बीते पांच राज्‍यों के विधानसभा चुनावों में कुल 690 सीटों पर हज़ारों प्रत्‍याशी खड़े थे लेकिन खोजने पर भी हम पाते हैं कि एक सीट पर दो या ज्‍यादा से ज्‍यादा तीन प्रतिद्वंद्वियों के नाम ही सार्वजनिक हैं। जिन्‍हें हजार, पांच सौ या दहाई में वोट मिले उन पर किसी की जिज्ञासा पैदा नहीं होती कि वे कौन लोग थे और क्‍यों लड़े? चुनाव नतीजों के बाद केवल एक नाम पर चर्चा होती रही जिसे सब पहले से जानते थे- इरोम शर्मिला। 16 साल का अनशन बनाम 90 वोट- इसी तर्ज पर बातें हो रही हैं।

हार के बाद इरोम ने राजनीति से संन्‍यास ले लिया है। ये गलत है या सही, यह उनका अपना फैसला है लेकिन इस देश के रोम-रोम में हज़ारों इरोम बसे हैं जो आज भी मुट्ठी भर वोट पाने के बाद धूप में अपना बदन जनता के लिए जला रहे हैं।

एक काले कानून के खिलाफ़ जंग की तुलना क्‍या पैसे से होने वाले चुनाव में मिलने वाले वोटों से की जानी चाहिए? क्‍या लोकतंत्र महज पांचसाला चुनाव में आने वाले नतीजों से तय होगा? जीत और हार से इतर बड़ी संख्‍या ऐसे लोगों की है जो लड़ रहे हैं। अपनी लड़ाई में वे रणनीतियां बदलते हैं। कभी अनशन करते हैं, कभी परचे बांटते हैं, कभी लाठी खाते हैं तो कभी चुनाव लड़ते हैं। ये सब व्‍यवस्‍था परिवर्तन के अलग-अलग रास्‍ते भर हैं। जैसे किसी बीमार का तीमारदार दवा से लेकर दुआ तक हर कुछ आज़माता है ताकि बीमारी दूर चली जाए।

हमारा समाज बीमार है। इस बीमारी से कुछ लोग लड़ रहे हैं। चुनाव में उनकी पूछ अगर नहीं होती, तो यह अपने आप में इस बात का सबूत है कि चुनाव बीमारी का इलाज कतई नहीं है। शायद यही वजह है इरोम शर्मिला से केवल आठ वोट ज्‍यादा पाने वाले पंकज कुमार वोट मांगने के चक्‍कर में ही नहीं पड़े।

मीडियाविजिल अपने पाठकों को ऐसे ही कुछ प्रत्‍याशियों से मिलवा रहा है, जिनके संघर्षों का रंग गली-चौराहों में बिखरा पड़ा है लेकिन मुख्‍यधारा के मीडिया की ज़बान पर केवल केसरिया लड्डू का स्‍वाद चढ़ा हुआ है और जिसकी आंखों को मोदियाबिंद की घातक बीमारी ने जकड़ रखा है।


उत्‍तराखण्‍ड की बीएचईएल रानीपुर विधानसभा से इंकलाबी मज़दूर केंद्र समर्थित प्रत्‍याशी पंकज कुमार को केवल 98 वोट मिले हैं। यह अपने आप में आश्‍चर्य की बात है क्‍योंकि पंकज अपने चुनाव प्रचार अभियान में यह कहते घूम रहे थे कि चुनाव धोखा है। लाल झंडों और बैनरों से पटे उनके चुनाव प्रचार अभियान में लगातार एक ही बात कही जा रही थी कि मजदूरों की मुक्ति समाजवाद में मुमकिन है, पूंजीवाद में नहीं। आइए, इस अद्भुत प्रत्‍याशी का चुनाव प्रचार में दिया भाषण सुनते हैं।

पंकज की ही तरह उत्‍तराखण्‍ड से प्रभात ध्‍यानी की उम्‍मीदवारी रही। प्रभात ध्‍यानी उत्‍तराखण्‍ड परिवर्तन पार्टी के महासचिव हैं। दो साल पहले बुक्‍सा जनजाति के एक गांव में लगे क्रेशरों का विरोध करने पर कांग्रेस सरकार स‍मर्थित स्‍थानीय गुंडों ने इनके ऊपर हमला करवा दिया था जिसमें प्रभात और इनके साथी मुनीश कुमार को गहरी चोट आई थी। उत्‍तराखण्‍ड परिवर्तन पार्टी के प्रत्‍याशी प्रभात ध्‍यानी को केवल 1229 वोट मिले हैं, लेकिन व्‍यवस्‍था परिवर्तन की इनकी जंग जारी है।

उत्‍तराखण्‍ड परिवर्तन पार्टी ने नौ सीटों पर अपने उम्‍मीदवार खड़े किए थे। पार्टी पिछले तीन साल से पीसी तिवारी की अगुवाई में चुनावों में उतरने की तैयारी में जुटी हुई थी। नानीसार में बन रहे जिंदल के अंतरराष्‍ट्रीय स्‍कूल के खिलाफ ऐतिहासिक आंदोलन में पीसी तिवारी और अन्‍य की गिरफ्तारी व लंबे समय तक चले संघर्ष ने पार्टी को मज़बूती से लोगों के बीच स्‍थापित कर दिया था। विडंबना यह रही कि पार्टी सोमेश्‍वर की विधानसभा सीट से ही प्रत्‍याशी नहीं उतार सकी जिसके अंतर्गत नानीसार आता है।

एक और समस्‍या यह हुई कि उत्‍तराखण्‍ड परिवर्तन पार्टी, उत्‍तराखण्‍ड क्रांति दल और वामपंथी दलों के बीच कोई कारगर साझा गठबंधन नहीं बन सका। ये बात अलग है कि एक-दूसरे की सीटों पर जाकर इन पार्टियों के नेताओं ने प्रचार में मदद बेशक की, लेकिन चुनाव परिणाम आने के बाद इनके बीच खटास कम होने के बजाय बढ़ी ही है।

उत्‍तराखण्‍ड की कर्णप्रयाग सीट से जनवादी राजनीति को काफी उम्‍मीदें थीं। यहां सिलिंडर के निशान पर भारतीय कम्‍युनिस्‍ट पार्टी (माले) से लोकप्रिय नेता इंद्रेश मैखुरी चुनाव में खड़े थे। कर्णप्रयाग का चुनाव एक प्रत्‍याशी की मौत के कारण रद्द हो गया था और 9 मार्च को हुआ। नतीजा चौंकाने वाला रहा क्‍योंकि इंद्रेश को केवल 1331 वोट मिले, लेकिन नौ प्रत्‍याशियों के बीच वे तीसरे स्‍थान पर रहे।

दिलचस्‍प है कि भाजपा प्रत्‍याशी सुरेंद्र सिंह नेगी को 28159 वोट मिले, कांग्रेस प्रत्‍याशी अनसुया प्रसाद मैखुरी को 20610 वोट मिले और उसके बाद सीधे इंद्रेश मैखुरी का नंबर था। इंद्रेश ने उत्‍तराखण्‍ड क्रांति दल और बहुजन समाज पार्टी को भी पीछे छोड़ दिया। कर्णप्रयाग की लड़ाई को देखकर एक बात समझ में आती है कि भाजपा और कांग्रेस के सम्मिलित विकल्‍प के तौर पर आज भी वामपंथी दलों के उभरने की गुंजाइश बनी हुई है। सवाल केवल अपने नारे को लोगों के बीच ले जाने के तौर-तरीकों का है। इंद्रेश के प्रचार में उत्‍तराखण्‍ड परिवर्तन पार्टी ने भी हिस्‍सा लिया।

देखिए इंद्रेश मैखुरी के प्रचार का एक वीडियो:

वामपंथी दलों के प्रत्‍याशियों की विडम्‍बनाएं हालांकि कम नहीं हैं। कहा गया था कि उत्‍तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में वाम दलों ने मिलकर एक मोर्चा बनाया है, लेकिन कुछ सीटों पर इसका ठीक उलटा देखने को मिला जहां भाकपा और भाकपा(माले) के प्रत्‍याशी एक-दूसरे के आमने-सामने लड़ रहे थे। ग़ाज़ीपुर के मोहम्‍मदाबाद में यह लड़ाई काफी दिलचस्‍प थी जहां चौथे स्‍थान पर रहे भाकपा के प्रत्‍याशी सुरेंद्र को 2503 वोट मिले जबकि भाकपा(माले) के सग़ीर को 565 वोटों से संतुष्‍ट होना पड़ा।

सग़ीर भाई भाकपा के प्रत्‍याशी को लेकर काफी नाखुश थे। एक स्‍थानीय पत्रकार के हवाले से उनका आरोप था कि भाकपा के प्रत्‍याशी ने पैसे देकर टिकट खरीदा है। यह बात अपने आप में चाहे जितनी भी हास्‍यास्‍पद क्‍यों न रही हो, लेकिन सग़ीर का आत्‍मविश्‍वास देखने लायक था। वे गांव-गांव घूमकर एक ही बात कह रहे थे, कि भाजपा और बसपा दोनों के ही प्रत्‍याशी सामंत हैं और असली लड़ाई इन सामंतों से मुक्ति की है।


सग़ीर कहते हैं, ‘’हम अपना चुनाव सामंत विरोधी आंदोलन पर टिकाए हुए हैं। अलका राय और सिबकतुल्‍ला के बीच कोई फर्क नहीं है। दोनों सामंत हैं। हमारी लड़ाई दोनों के खिलाफ़ है।‘’ मोहम्‍मदाबाद सीट के नतीजे में एक सामंत हारा है। यहां अलका राय भाजपा से जीत गई हैं। ज़ाहिर हे, एक सामंत से दूसरे की हार में भाकपा(माले) की कोई भूमिका नहीं है लेकिन लड़ाई है, तो चलती ही रहेगी।

यहां से करीब दो घंटे की दूरी पर बलिया की विधानसभा सीट सिकंदरपुर पड़ती है। जिस शाम हम यहां पहुंचे, वह प्रचार का आखिरी दिन था। कस्‍बे के लोकप्रिय और जुझारू वामपंथी नेता बलवंत यादव अपने साथियों समेत बोलेरो से उतरे। दिन भर गांव-गांव की खाक छानकर और परचे बांटकर वे बीच सड़क पर हमसे मिले। बलवंत भाई के साथ बाज़ार में चाय के एक ठीहे पर लंबी बातचीत हुई। उन्‍होंने किसानों की दशा और दुर्दशा पर अपना परचा थमाया। परचा दुधिया, किसान संघर्ष समिति की ओर से था। बलवंत यादव टेम्‍पू के निशान पर चुनाव लड़ रहे थे।

बलवंत यादव ने लंबे समय तक मतदाताओं को अपना चुनाव चिह्न ही नहीं बताया। उहें इसकी चिंता नहीं थी कि कितने वोट मिलेंगे। उनका एजेंडा साफ़ था। संयुक्‍त गठबंधन के ‘संघर्ष पत्र’ को लोगों के बीच ले जाया जाए और किसानों के मुद्दे पर जागरूकता कायम की जाए। वैसे बलवंत को सिकंदरपुर से कुल 1058 वोट मिले हैं। आज की तारीख में ऐसे प्रत्‍याशी दुर्लभ हैं जो अपने मुद्दे को गीत और संगीत के माध्‍यम से खुद जनता के बीच ले जाएं। सुनिए बलवंत यादव का तैयार किया ये गीत:

घंटे भर की दूरी पर बलिया जिला मुख्‍यालय है। क्‍या आप जानते हैं कि बलिया में भी आदिवासी पाए जाते हैं? बलिया के आदिवासियों के बारे में जाना हो तो अरविंद गोंड से मिलिए। इस बार टेम्‍पू के निशान पर बलिया नगर से चुनाव लड़कर वे पांचवें स्‍थान पर रहे हैं और कुल 1047 वोट लाए हैं। अरविंद गोंड से मिलते ही आपको दो-तीन अनजान किस्‍म के अभिवादन सुनाई पड़ सकते हैं, जैसे जय फड़ापेन या जय बड़ादेव। अरविंद भाई गोंडों की संस्‍कृति और भाषा से चीज़ें खोज-खोज कर लाते हैं।

Arvind Gond

गोंडवाना गणतंत्र पार्टी चलाने वाले अरविंद गोंड यहां गोंडों के नेता हैं। गोंडों को एसटी का दरजा हासिल है। अरविंद गोंडवाना भूमिक की बात करते हैं और आदिवासी संस्‍कृति की बहाली पर लंबा बोलते हैं। पिछले साल इन्‍होंने विश्‍व आदिवासी दिवस पर लखनऊ में एक मोर्चा निकाला था। यह अपने आप में इकलौता आयोजन था। लखनऊ की सड़कों पर हुड़ुक बजाते हुए कतारबद्ध चल रहे इन लोगों को शायद कौतूहल से राहगीरों ने देखा हो, लेकिन बलिया में अरविंद गोंड जाना पहचाना नाम हैं।

ऐसे तमाम नाम अभी बाकी हैं जिन पर हम अलग से बात कर सकते हैं। गोवा, मणिपुर और पंजाब को तो हमने छुआ ही नहीं है। हमारी जानकारी खुद इस मामले में बहुत कम है। सवाल उठता है कि एक-एक प्रत्‍याशी को देखना-समझना भले मुश्किल हो लेकिन मीडिया को क्‍या जनता के संघर्षों में लगे मोर्चे नहीं दिखाई पड़ते?

उत्‍तर प्रदेश के चुनाव में तमाम संघर्षशील ताकतों ने मिलकर एक संयुक्‍त गठबंधन बनाया था और अपने उम्‍मीदवारों को टेम्‍पू के निशान पर लड़वाया था। इन संगठनों में किसान मोर्चा, स्‍वराज अभियान, दुधिया किसान संघर्ष समिति, फूलन सेना, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, रिहाई मंच, प्रगतिशील भोजपुरी समाज, इंडियन पीपुल्‍स सर्विसेज, संविधानिक जनजागरण समिति, इंसाफ अभियान शामिल थे। इन तमाम संगठनों के नायकों में वीरांगना महारानी दुर्गावती, फूलन देवी, नीलाम्‍बर खरवार, पीताम्‍बर खरवार, बिरसा मुंडा, अशफाक़ उल्‍ला खॉं, भगत सिंह, शंकर शाह, रघुनाथ शाह, चंद्रशेखर आज़ाद आदि शामिल हैं जिनके नाम इनके प्रत्‍याशियों के परचों पर प्रमुखता से छपे हैं। क्‍या मीडिया को ये नाम दिखाई नहीं देते या वह जानबूझ कर भगत सिंह और आज़ाद की विरासत को भुलाए बैठा है।

देश-समाज को बदलने की लड़ाई बहुत लंबी है। यह पांचसाला चुनाव के वश की बात नहीं है। जीतने और हारने वाले में केवल यही फ़र्क है कि एक सदन में बैठता और दूसरा दफ्तर में, लेकिन जो लगातार लड़ रहे हैं वे खुली धूप में आज भी जनता के बीच मौजूद हैं। इन्‍हें मिले 90 से डेढ़ हज़ार वोट इस बात की ताकीद करते हैं कि असली लड़ाई चुनाव से बहुत आगे की चीज़ है। हो सकता है कल चुनाव की प्रणाली ही बुनियादी रूप से बदल जाए। तब कैमरों को घूम-घूम कर जनता के असली झंडाबरदारों को खोजना पड़ेगा। मीडिया ने इन्‍हें आज भुलाया, तो कल बहुत देर हो जाएगी और हमारे जिंदा नायक चौराहों पर खड़ी मूर्तियों में बचे रह जाएंगे।

ग़ाज़ीपुर में कामरेड सरजू पांडे की प्रतिमा