कार्ल मार्क्स@204: मार्क्स के दर्शन के पाँच मुख्य तत्व जानिए पाँच मिनट में

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फ्रांसीसी राजनीतिक चिंतक रेमों एरोन ने लिखा है कि कार्ल मार्क्स के विचारों को ‘पांच मिनट, पांच घंटे, पांच सालों या आधी सदी में विश्लेषित किया जा सकता है. कुछ लोगों के लिए न्यायपूर्ण समाज का एक काल्पनिक दर्शन तथा कुछ के लिए एकाधिकारवादी सत्ताओं के लिए ताकत पाने का योजना-प्रारूप माना जानेवाला मार्क्सवादी विचार ‘कम्यूनिस्ट मैनिफेस्टो’ और ‘द कैपिटल’ के तीन खंडों में संग्रहित है. इस महान और विवादास्पद जर्मन विचारक के पांच प्रमुख सिद्धांत इस तरह वर्गीकृत किये जा सकते हैं.

Illustration: Rabiul Islam

1. ‘वर्ग संघर्ष’ – फ्रेडरिक एंगेल्स के साथ लिखे और 1848 में प्रकाशित ‘कम्यूनिस्ट मैनिफेस्टो’ की प्रसिद्ध पंक्ति है- ‘अब तक के तमाम समाजों का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है.’ मार्क्स का मानना था कि मानवता के मूल संघर्ष उत्पादन के साधनों (फैक्टरियों, खेतों और खदानों) पर काबिज प्रभु वर्ग यानी बुर्जुआ तथा मजदूर वर्ग यानी सर्वहारा, जो अपने श्रम को बेचने के लिए मजबूर है, के बीच है. उनकी नजर में यह संघर्ष- गुलाम का मालिकों से, खेतिहर मजदूरों का भूमिपतियों से, मजदूरों का अधिपतियों से- पूंजीवाद के मूल में है. यह अंततः इस व्यवस्था को स्वयं ही तबाह कर देगा और फिर समाज तथा आखिरकार साम्यवाद की स्थापना होगी.

2. ‘सर्वहारा का अधिनायकतंत्र’ – यह विचार सबसे पहले प्रारंभिक समाजवादी क्रांतिकारी जोसेफ वेडेमेयर ने दिया था जिसे मार्क्स और एंगेल्स ने अंगीकार किया था. यह उस कामगार वर्ग के उस लक्ष्य को इंगित करता है जिसमें उसे राजनीतिक ताकत पर काबिज होना है. यह वह स्थिति है जो पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच की संक्रमण अवधि में घटित होती है. इस दौरान उत्पादन के साधनों का मालिकाना निजी हाथों से सामूहिक स्वामित्व के अंतर्गत आ जाता है. इस दौरान राज्य भी मौजूद होता है जिसका नियंत्रण सर्वहारा के हाथों में होता है. इस अवधारणा पर चलने का दावा रूसी बोलशेविकों ने क्रांति के बाद किया था. इसमें ‘क्रांति-विरोधियों’ के दमन का सूत्र भी शामिल था. व्लादिमीर लेनिन ने लिखा था कि क्रांति हिंसा के जरिये जीती और बरकरार रखी जाती है. इस बात में रूसी क्रांति के बाद के शासन के एकाधिकारवादी होने के संकेत थे.

3. साम्यवाद – मार्क्स और एंगेल्स ने जब 1848 में ‘कम्यूनिस्ट पार्टी का मैनिफेस्टो’ लिखा था, तब यूरोप में क्रांतिकारी उथ-पुथल से गुजर रहा था. यह छोटी सी किताब 1872 के बाद ही ज्यादा लोगों तक पहुंच सकी थी और बीसवीं सदी में सोवियत ब्लॉक के लिए एक अहम दस्तावेज बन गयी. मार्क्स की नजर में लक्ष्य यह था कि कामगार राजनीतिक सत्ता प्राप्त करें, निजी संपत्ति का खात्मा हो, और फिर अंत में राज्यविहीन और वर्गविहीन साम्यवादी समाज की स्थापना हो. कार्ल मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धांत के मुताबिक, समाज छह अवस्थाओं से गुजरता है- आदिम समाजवाद, गुलाम समाज, सामंतवाद, पूंजीवाद, समाजवाद, औअर अंत में वैश्विक राज्यविहीन साम्यवाद. एक सच यह है कि निजी संपत्ति के खात्मे की कोशिश में स्टालिन के रूस और माओ के चीन में लाखों लोगों को मौत का शिकार होना पड़ा.

4. ‘अंतरराष्ट्रीयतावाद’ – घोषणापत्र की समाप्ति ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ के उद्घोष से होती है. इस सूत्र में राष्ट्रीय सीमाओं से परे एक राजनीतिक संरचना बनाने का आह्वान है. यह विचार सोवियत अंतरराष्ट्रीयतावाद के केंद्र में था जिसके तहत सोवियत संघ, क्यूबा, वियतनाम और पूर्वी यूरोप के देशों की एकजुटता संभव हो सकी थी. इस एकता में दुनियाभर के विभिन्न क्रांतिकारी और आंदोलनकारी संगठनों की भी हिस्सेदारी थी.

5. ‘जनता का अफीम’ – मार्क्स का मानना था कि धर्म एक नशीले पदार्थ की तरह शोषितों को अपने दुख-दर्द भुलाने में मदद करता है और उन्हें खुशनुमा छलावे में रखता है. इससे अंततः शोषक को ही लाभ होता है. यह अवधारणा मार्क्स के हीगल के दर्शन की आलोचना के लेख में उद्गारित हुआ है. इस सूत्र का पूरा अंश इस प्रकार है- ‘धर्म शोषित की आह है, हृदयहीन विश्व का हृदय है, और आत्माहीन स्थितियों की आत्मा है. यह जनता का अफीम है.’ इस विचार की आड़ में रूस, चीन और पूर्वी यूरोप में धर्मों का दमन किया गया था. कुछ विचारकों का मानना है कि कार्ल मार्क्स के लिए धर्म सर्वहारा के शोषण के लिए जिम्मेदार अनेक तत्वों में से एक है और साम्यवादी शासनों के अंतर्गत उग्र नास्तिकता को मूल सिद्धांत बनते देख उन्हें संभवतः आश्चर्य ही होता.


(साभार- एएफपी)