बापू की हत्‍या में हिंदू महासभा की भूमिका पर नेहरू, पटेल, मुखर्जी और गोलवलकर का पत्र व्‍यवहार


जिस हिंदू महासभा की नेता ने कल गांधी के पुतले को गोली मारी, उसी के नेता गोडसे ने बापू को गोली मारी थी


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जिन लोगों को 30 जनवरी 2019 की उस घटना पर आश्चर्य हो रहा है कि क्यों हिंदू महासभा की नेता ने अलीगढ़ में महात्मा गांधी के पुतले को गोली मारी, वे पीयूष बबेले की किताब “नेहरू: मिथक और सत्य” के इस अंश को पढ़ें. उन्हें पता चलेगा कि हिंदू महासभा किस तरह गांधी जी की हत्या के पीछे थी. उस समय के बड़े नेताओं को संवाद यहां जानना बड़े काम का हो सकता है- संपादक

‘‘हम भारत में पहले ही आरएसएस और इसके जैसे समूहों से बहुत सारी मुसीबतें झेल चुके हैं, इसलिए मैं विश्वास करता हूं कि आपकी (पंजाब की) सरकार अपनी कार्रवाई से यह साफ कर देगी कि आरएसएस से सहानुभूति रखने वाला कोई भी आदमी, सरकार के सख्त कदम और गुस्से का भागीदार होगा. इन लोगों के हाथ महात्मा गांधी के खून से सने हैं, इसलिए उनके पवित्र वादे और इन वादों से हटना, अब कोई मायने नहीं रखता है.’’

जवाहरलाल नेहरू, 9 फरवरी, 1948

30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या कर दी गई. नेहरू ने कहा हमारे जीवन की रोशनी चली गई. बुरे से बुरे वक्त में हम सलाह के लिए उनके पास जाते थे, वे हमें रास्ता दिखाते थे, अब वह सलाह हमारे पास नहीं है. नेहरू पर क्या गुजर रही थी और बापू उनके लिए क्या थे. इसका कुछ अंदाजा राष्ट्रपिता वाले अध्याय लग ही चुका है. यहां यह देखते हैं कि राष्ट्रपिता की हत्या के बाद प्रधानमंत्री नेहरू क्या कर रहे थे और उनके गृह मंत्री सरदार पटेल किस तरह उनके साथ खड़े थे.

बापू की हत्या भले ही दक्षिणपंथी सांप्रदायिक संगठनों ने की थी, लेकिन कम्युनिस्ट नेताओं ने इस तरह के बयान दिए, जिसमें पटेल को बापू की हत्या के लिए जिम्मेदार ठहराया गया. इस तरह के बयान जयप्रकाश नारायण ने भी दिए. इससे दुखी होकर पटेल ने 2 फरवरी 1948 को अपना इस्तीफा लिखकर तैयार कर लिया, लेकिन उन्होंने वह इस्तीफा भेजा नहीं. शायद उन्हें बापू की वह बात याद आ रही थी, जो उन्होंने मृत्यु से ठीक पहले कही थी. यानी देशहित में नेहरू और पटेल के साथ बने रहने की बात.

बहरहाल बापू के विदा होते ही नेहरू अब सांप्रदायिक संगठनों से आर-पार की लड़ाई के मूड में थे. गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद उनके साथ डटकर खड़े होने वाले थे, हर मामले में न सही तो कम से कम गांधी की हत्या के गुनहगार संगठनों पर चाबुक चलाने के मामले में. 4 फरवरी 1948 को आरएसएस पर देशव्यापी प्रतिबंध लगा दिया गया. इसी दिन नेहरू ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी को पत्र लिखा: (नेहरू वांग्मय खंड 5 पेज 46, 4 फरवरी 1948)

‘‘मेरे प्रिय डॉक्टर मुखर्जी,

 आपको याद होगा कि कुछ दिन पहले मैंने आपको हिंदू महासभा या उसके नेताओं की उन हरकतों के बारे में लिखा था जो आपके और मेरे लिए समान रूप से शर्मनाक हैं. उस समय आप कोलकाता जा रहे थे और आपने मुझसे कहा था कि इस मामले में आप भी चिंतित हैं और लौटने के बाद आप इस बारे में बात करेंगे.

उसके बाद से महान त्रासदी घटित हो चुकी है और हालात भयानक रूप से बिगड़ गए हैं. लोगों के दिमाग में हिंदू महासभा इस त्रासदी के साथ चस्पा हो गई है. आप जानते ही हैं कि इसे लेकर देश में बड़ी उत्तेजना है.

हिंदू महासभा के बारे में आप का रुख कुछ भी हो, लेकिन मैंने अपने पिछले पत्र में जो सवाल उठाए थे, वह अब भी हमारे सामने मौजूद हैं और पहले से ज्यादा गंभीर हो गए हैं. मेरी पार्टी की ओर से संविधान सभा में मुझसे सवाल पूछे जा रहे हैं और वे जवाब देने के लिए जोर डाल रहे हैं. इस बात की पूरी संभावना है कि वे लोग आज दोपहर पार्टी की बैठक में भी यह सवाल उठाएं.

मैं इस बारे में आश्वस्त हूं की राजनीति में सांप्रदायिक संगठनों के दिन अब लद गए हैं और हमें उन्हें किसी भी रूप में प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए. खासकर, केंद्र सरकार में शामिल किसी मंत्री के लिए हिंदू महासभा जैसे सांप्रदायिक संगठन से निजी तौर पर संबद्ध होना, बहुत ही शर्मनाक है. यहां तक कि राजनीतिक धरातल पर भी यह हमारी सामान्य नीति और पूरी की पूरी सरकार के खिलाफ हैं.

आपने जरूर इन बातों पर गौर किया होगा. मेरे लिए आपको यह सलाह देना थोड़ा कठिन है, फिर भी मैं सलाह दे रहा हूं कि अब समय आ गया है कि जब आप सांप्रदायिक संगठनों, जिसमें हिंदू महासभा भी शामिल है, के खिलाफ आवाज़ उठाएं. और किसी भी सूरत में हिंदू महासभा के साथ अपना रिश्ता खत्म कर दें. आपका इस तरह का कोई भी फैसला पार्टी में और मैं समझता हूं कि पूरे देश में बहुत सराहा जाएगा.’’

मुखर्जी को बहुत विनम्र, लेकिन साफ शब्दों में हिंदू महासभा से अलग होने का नैतिक निर्देश देने के बाद नेहरू पटेल की तरफ मुड़े. और उनका ध्यान एक बार फिर लाल बहादुर शास्त्री से मिली उस सूचना की तरफ दिलाया जो गांधी जी की हत्या से पहले ही दी गई थी. 5 फरवरी 1948 को नेहरू ने पटेल को पत्र लिखा: (सरदार पटेल चुना हुआ पत्र व्यवहार)

‘‘मेरे प्यारे वल्लभ भाई,

ऐसा लगता है की बड़ी संख्या में आरएसएस के प्रमुख लोग भरतपुर और अलवर जैसी रियासतों में चले गए हैं. वह अपने साथ हर तरह का सामान प्रचुर मात्रा में ले गए हैं. बहुत संभव है कि वह वहां रहकर दूसरी जगहों के लिए गुप्त कार्यवाहियां चलाएं. क्या यह संभव नहीं होगा की राज्य सरकारें संगठन पर प्रतिबंध लगा दें. किसी भी सूरत में उनसे ऐसा कहना जरूरी दिखाई देता है.

मैं समझता हूं कि दिल्ली में आरएसएस ने गीता के खुले वर्ग शुरू कर दिए हैं, असल में यह उनके लिए फिर से मिलने और एकजुट होने का प्रयास है.

मैं समझता हूं कि हमें इस विषय पर जरूर विचार करना चाहिए कि मुस्लिम नेशनल गार्ड, खाकसार को प्रतिबंधित कर दिया जाए. खाकसार पिछले कुछ समय से अंडर ग्राउंड हो गए हैं और वह सार्वजनिक रूप से दिखाई नहीं दे रहे हैं, लेकिन वह शरारती तत्व हैं और भविष्य में दिक्कत पैदा कर सकते हैं. यही हाल मुस्लिम नेशनल गार्ड का है. यह भी अभी आक्रमक नहीं है, लेकिन शरारत की संभावना तो है ही. निजी सेनाओं के खिलाफ लिए गए हमारे फैसलों के तहत हम इन संगठनों के खिलाफ भी कार्रवाई कर सकते हैं. अगर आप उचित समझें तो हम इस मामले को कैबिनेट की अगली बैठक में विचार के लिए लाएं.’’

सरदार की तरफ से तुरंत जवाब आ गया. 6 फरवरी 1948 को पटेल ने नेहरू को लिखा:

‘‘आपके 5 फरवरी 1948 के पत्र के लिए आभार. देसी राज्यों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगाने के बारे में हम सारे बड़े राज्यों को, जिनमें भरतपुर और अलवर भी शामिल हैं, तार द्वारा सूचित कर चुके हैं कि वह अपने-अपने प्रदेशों में समानांतर कदम उठाएं. आशा है कि उनमें से अनेक राज्य हमारी सलाह मानेंगे, जो नहीं मानेंगे, उनसे हम बाद में निपट लेंगे.

मैं कुछ समय से अलवर और भरतपुर के खिलाफ कार्यवाही करने के लिए भूमिका तैयार कर रहा हूं. मुझे विश्वास है कि उनके खिलाफ कोई उतावला और सख्त कदम उठाने की कठिनाइयों को आप समझ सकेंगे. एक का जाट जाति में प्रमुख स्थान है और दूसरा राजपूत राज्य है. इसलिए मैं चाहता हूं कि इन राज्यों के विरुद्ध कोई कदम मैं तभी उठाऊं जब मैं अपने आसपास राजाओं का समर्थन जुटा लूं. अलवर के बारे में ऐसा समर्थन जल्द ही हमें प्राप्त होने वाला है. भरतपुर को मैं व्यक्तिगत संपर्क और चर्चाओं के फलस्वरूप शांत कर चुका हूं. अलवर की समस्या हल हो जाने के बाद भरतपुर की समस्या तुलनात्मक रूप से सरल हो जाएगी. मेरा इरादा है कि हम इन दो राज्यों को अपने प्रभाव में ले लेंगे और जरूरी हुआ तो अपने अंकुश में ले लेंगे. क्योंकि हम जो कुछ वहां हुआ, उसका पता लगा सकेंगे और यह भी मालूम कर सकेंगे कि विभिन्न अपराधों में राज्य ने और उस के अधिकारियों अधिकारियों ने क्या भाग लिया है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा आरंभ किए गए खुले गीता वर्गों के बारे में मैं जांच पड़ताल कर रहा हूं. अगर गीता के यह वर्ग किसी निजी इमारत में अथवा निजी भूमि पर चलते होंगे तो उनमें हस्तक्षेप करना हमारे लिए शायद ही संभव हो सकेगा. परंतु मैंने डीआईजी से कहा है कि इस संबंध में वह जांच करें और हमारे आदमियों को वहां तैनात करें, जो हमें यह सूचना दें कि वहां दरअसल क्या होता है.

मैं इस विषय में आपसे सहमत हूं कि हमें मुस्लिम नेशनल गार्डों पर और खाकसारों पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए. कल मंत्रिमंडल की बैठक में हम इसका उल्लेख कर सकते हैं. इसी बीच मैं गृह मंत्रालय को तैयार रहने का आदेश दे रहा हूं ताकि मंत्रिमंडल की मीटिंग के बाद मेरी सूचना पर वह जरूरी कदम उठा सकें. आपको यह जानकर भी खुशी होगी कि मैंने आज कवायद, परेड और शिविरों पर तथा अर्धसैनिक वर्दी पहनने पर रोक लगाने वाला कानून तैयार करने के आदेश दे दिए हैं. ऐसा कानून निजी सेनाओं पर प्रतिबंध लगाने के हमारे निर्णय पर अमल करने के लिए जरूरी है.’’

पटेल ने कार्रवाई में तेजी दिखाई. 7 फरवरी 1948 को अलवर के महाराजा और राज्य के प्रधानमंत्री से राज्य से बाहर रहने को कहा गया. वहीं, भरतपुर में भारत सरकार ने नया राज्य प्रशासक नियुक्त कर दिया. नेहरू बाकी राज्यों पर खुद भी नजर रखे हुए थे. गांधी की हत्या के बाद छोटी से छोटी घटना पर उनकी निगाह थी.

9 फरवरी 1948 को उन्होंने पंजाब में गोपीचंद को पत्र लिखा:

‘‘मैं इस बात को लेकर चिंतित हूं कि आरएसएस के लोग अमृतसर में जुलूस निकाल रहे हैं. नारेबाजी कर रहे हैं और सामान्य तौर पर सरकारी आदेशों का उल्लंघन कर रहे हैं. जहां तक मैं जानता हूं, प्रतिबंध लगने के बाद से भारत में किसी भी दूसरी जगह ऐसा कुछ नहीं हुआ है. पूरे भारत मेंआरएसएस पर प्रतिबंध को लोगों ने हाथोंहाथ लिया है, बल्कि आरएसएस के खिलाफ भावनाओं में जनता का रुख सरकार से कहीं ज्यादा सख्त है. इसलिए यह चौंकाने वाली बात है कि अमृतसर में कोई किस तरह ऐसी हरकत कर सकता है.

मैं भरोसा करता हूं कि स्थानीय अधिकारी और पुलिस अमृतसर में हालात से निपटने में कोई कमजोरी नहीं दिखा रहे होंगे. अगर ऐसा है तो यह घातक होगा और इसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. इस स्थिति से निबटने के लिए तेज और सख्त कदमों की जरूरत है. हो सकता है कि ऐसा करने से कुछ बेगुनाह लोगों को भी तकलीफ पहुंचे, यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा, लेकिन इसे रोका नहीं जा सकता. हम भारत में पहले ही आरएसएस और इसके जैसे समूहों से बहुत सारी मुसीबतें झेल चुके हैं, इसलिए मैं विश्वास करता हूं की आपकी सरकार अपनी कार्रवाई के द्वारा यह स्पष्ट कर देगी कि आरएसएस से सहानुभूति रखने वाला कोई भी व्यक्ति सरकार के सख्त कदम और नाराजगी का भागीदार होगा. इन लोगों के हाथ महात्मा गांधी के खून से सने हैं,इसलिए उनके पवित्र वादे और इन वादों से हटना अब कोई मायने नहीं रखता है.

आपने देखा होगा कि भारत सरकार ने आरएसएस से जुड़ी संस्थाओं पर कार्रवाई करने में कोई हिचक नहीं दिखाई.

मुझे पता चला है की पूर्वी पंजाब प्रांत के आरएसएस प्रमुख रायबहादुर बद्रीनाथ (बद्रीदास) को यूनिवर्सिटी का वाइस चांसलर नियुक्त किया गया है. मुझे बताया जा रहा है कि उन्होंने आरएसएस से इस्तीफा दे दिया है. उनके इस्तीफा देने या न देने से स्थिति में ज्यादा फर्क नहीं पड़ता. एक व्यक्ति जो इस कदर आरएसएस से जुड़ा रहा हो, उसे किसी भी जिम्मेदारी के पद पर नहीं रखा जा सकता. इसकी पूरे भारत में खराब से खराब प्रतिक्रिया हो सकती है.’’

नेहरू देख रहे थे कि किस संस्था के हाथ गांधी के खून से रंगे हुए हैं. वे इस बात का जिक्र गांधी जी के जीते जी कर चुके थे कि ये संगठन गांधी के अलावा नेहरू और पटेली की हत्या का इरादा भी जता चुके हैं. इन सब अंदेशों के बीच नेहरू ने 26 फरवरी 1948 को सरदार को लिखा:

‘‘आप बुरी तरह काम में व्यस्त हैं और मैं खुद भी काम में काफी मशगूल रहता हूं, इसलिए आपके काम को बढ़ाने में मुझे संकोच होता है, फिर भी मुझे लगता है कि कुछ दिन से मेरे मन में जो कुछ चलता रहता है, वह मुझे आपको बताना चाहिए. गोडसे ने बापू की हत्या की, इसके बारे में यहां दिल्ली में, मुंबई में और अन्य स्थानों पर जांच-पड़ताल हो रही है. फिर भी मुझे ऐसा लगता है कि और बड़े षड़यंत्र का पता लगाने में सच्ची कोशिश की कमी रह गई है. मैं अधिक से अधिक इस परिणाम पर पहुंचा हूं कि बापू की हत्या इक्की- दुक्की घटना नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा संगठित, कहीं ज्यादा बड़े आंदोलन का एक हिस्सा है. आरएसएस के लोग बड़ी संख्या में गिरफ्तार किए गए हैं, जिनमें से अनेक लोग तकरीबन निर्दोष होंगे, परंतु उनके मुख्य कार्यकर्ताओं की काफी संख्या बाहर है या अंडरग्राउंड हो गई है या कहीं-कहीं खुले में फल-फूल रही है. इन लोगों में से बहुत से हमारे दफ्तरों और पुलिस में हैं. उनके दल से कोई चीज गुप्त रखना शायद ही संभव है. कुछ दिन पहले मुझे एक जिम्मेदार पुलिस अधिकारी ने कहा था कि गुप्त रूप से कोई तलाशी नहीं ली जा सकती, क्योंकि संबंधित लोगों को हमेशा इसका पहले से पता चल जाता है. दिल्ली पुलिस में खुले रूप में ऐसे लोगों की काफी संख्या है, जिनकी सहानुभूति आरएसएस के साथ है. उन सब से निपटना आसान नहीं हो सकता, लेकिन मैं मानता हूं कि अभी तक जो किया गया है, उससे अधिक कुछ किया जा सकता है. इसमें मुझे जरा भी संदेह नहीं कि आरएसएस अनेक प्रकार से अभी भी काफी सक्रिय है. अगर हम मानकर बैठ जाएं कि आरएसएस को दबा दिया गया है, तो इस तरह का इत्मीनान नई बर्बादी और सर्वनाश का कारण बन सकता है. मुझे बताया गया है कि संघ के लोग बाहर से निर्दोष दिखाई देने वाली अनेक प्रवृतियां चला चला रहे हैं और इनका उपयोग वे संघ को अच्छी तरह व्यवस्थित और संगठित रखने में कर रहे हैं.

मैं नहीं जानता कि आपको निश्चित रूप से क्या सुझाया जा सकता है, परंतु दिल्ली की स्थिति से मैं खासतौर पर बड़ा परेशान और चिंतित रहता हूं. मेरे ख्याल से पुलिस और स्थानीय अधिकारियों के स्तर को ऊंचा बनाए रखना होगा. उन्हें कड़ी मेहनत के बाद सुस्त पड़ जाने की आदत होती है. इस से भी खतरनाक बात तो यह है कि उनमें से अनेक आरएसएस के साथ हमदर्दी रखते मालूम होते हैं. इससे एक ऐसी छाप पड़ती है कि कोई बहुत कारगर काम नहीं किया जा रहा है. कारगर एक्शन का अर्थ सामूहिक गिरफ्तारियां नहीं होता, बल्कि उसका मतलब होता है, ऐसे सरगनाओं को छांट लेना, जिनमें उत्पात मचाने की बड़ी ताकत है.’’

लौटती डाक से 27 फरवरी 1948 को सरदार का जवाब आया,

‘’मैं बापू की हत्या के मामले में चल रही जांच पड़ताल की प्रगति के लगभग दैनिक संपर्क में रहता हूं. इन बयानों से यह भी स्पष्ट होता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस षड़यंत्र में शरीक नहीं था. सावरकर के सीधे मार्गदर्शन में हिंदू महासभा के एक कट्टर वर्ग ने यह षड़यंत्र रचा. उसे आगे बढ़ाया और अंतिम परिणाम तक पहुंचाया. यह भी दिखाई देता है कि यह षड़यंत्र 10 आदमियों तक सीमित था, जिनमें से दो को छोड़कर सब पकड़ लिए गए हैं.

इनमें से अधिकतर बातें विभिन्न केंद्रों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों की प्रवृत्तियां की ओर निर्देश करती थीं. हमने इस संबंध में जांच जारी रखी और इन आरोपों के सिवाय कि गांधी जी की मृत्यु पर मिठाइयां बांटी गई थी या हर्ष प्रकट किया गया था के अलावा शायद ही कोई ठोस और महत्वपूर्ण बात पाई गई है.

इन बातों की व्यवहार चर्चा करने के पश्चात मैं इस निर्णय पर पहुंचा हूं, कि बापू की हत्या का षड़यंत्र इतना व्यापक नहीं था, जितना आमतौर पर उसे मान लिया गया है. बल्कि वह ऐसे मुट्ठी भर आदमियों तक सीमित था, जो काफी लंबे समय से बापू के दुश्मन रहे हैं. यह दुश्मनी ठेठ उस समय से बताई जा सकती है, जब बापू जिन्ना से बातचीत करने गए थे. उस समय गोडसे ने विरोध में उपवास किया था तथा अन्य षड़यंत्रकारी बापू को जिन्ना के पास जाने से रोकने के लिए वर्धा गए थे. बेशक बापू की हत्या का आरएसएस तथा हिंदू महासभा में ऐसे लोगों ने स्वागत किया था जो बापू की विचारधारा और नीति के कट्टर विरोधी थे, परंतु इससे आगे प्राप्त प्रमाण के आधार पर आरएसएस या हिंदू महासभा के किन्हीं अन्य सदस्यों को इस षड़यंत्र के साथ नहीं जोड़ा जा सकता. बेशक आरएसएस को अपने अन्य पापों और अपराधों के लिए जवाब देना होगा. परंतु इसके लिए नहीं.

जहां तक दिल्ली आरएसएस का प्रश्न है, तो मैं ऐसे किन्ही प्रमुख व्यक्तियों या सक्रिय कार्यकर्ताओं को नहीं जानता, जिन्हें हमने छोड़ दिया हो.

आरएसएस जैसे गुप्त संगठनों के पास न तो सदस्यों का कोई रिकॉर्ड है और न ही कोई रजिस्टर वगैरह है, इसलिए इसके बारे में यह प्रमाणित जानकारी हासिल करना कठिन है कि कोई विशेष व्यक्ति सक्रिय सदस्य है या नहीं.’’

इस पत्र को पढ़कर लगता है कि पटेल गांधी की हत्या के पीछे सावरकर का नेतृत्व मान रहे हैं. वे यह भी मान रहे हैं कि कत्ल के पीछे हिंदू महासभा के कुछ लोगों का हाथ है. वे यह भी मान रहे हैं कि आरएसएस गुप्त संगठन है, जिसके सदस्यों की पहचान साबित करना कठिन है. लेकिन वह यह नहीं मान रहे कि आरएसएस ने गांधी की हत्या की. अक्सर दक्षिणपंथी संगठन इस पत्र का उल्लेख आरएसएस को पटेल की क्लीनचिट की तरह करते हैं. लेकिन थोड़ा धीरज रखा जाए, पटेल जल्द ही मुखर्जी को बताते हैं कि उनके हिसाब से गांधी का हत्यारा कौन है. लेकिन पटेल की तरह नेहरू को किसी भी स्तर पर कोई भ्रम नहीं था.

2 मई 1948 को जवाहरलाल नेहरू ने सरदार को लिखा:

‘‘मुझे अनके स्रोतों से ऐसी रिपोर्ट मिली हैं कि आरएसएस की आक्रामक प्रवृत्ति और सांप्रदायिक प्रचार फिर से बढ़ रहा है. उन्होंने मुझे चिंतित कर दिया है. अगर इसे शुरू से ही सख्ती से नहीं दबाया गया, तो यह बात खतरनाक हद तक बढ़ सकती है. हैदराबाद के बारे में हमें जो संभव कदम उठाने पड़ सकते हैं, उन पर सांप्रदायिक परिस्थिति का बुरा असर पड़ सकता है. इसलिए इस संदर्भ में यह और भी जरूरी हो जाता है कि हम इस मामले में जाग्रत और सावधान रहें.’’

पटेल ने 4 मई 1948 को अनुकूल जवाब दिया. पटेल का यह पत्र बताता है कि अपराध के लिए किसी व्यक्ति को दोषी साबित करना और किसी संगठन को साबित करने में क्या दिक्कतें आती हैं. सरदार ने लिखा:

‘‘आपके 2 मई के पत्र के लिए धन्यवाद. जिसमें आपने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की फिर से बढ़ने वाली आक्रामक प्रवृतियों का उल्लेख किया है. हम प्रांतीय सरकारों को इस खतरे से सावधान कर चुके हैं और हमने उनसे कहा है कि वह इस बारे में हर संभव कदम उठाएं. हम एक बार फिर ऐसा कर रहे हैं. हम केंद्र शासित क्षेत्रों में स्वयं भी हमेशा सावधानी रखते हैं और भरसक ऐसी कोई बात हमने नहीं होने दी, जो किसी तरह आरएसएस की सामान्य प्रवृत्तियों जैसी लगे. हाल में ही आपने देखा होगा कि हमने आरएसएस के सैनिक या अर्द्ध सैनिक ढंग की कवायद पर प्रतिबंध लगा दिया है और आरएसएस पर तो हम प्रतिबंध लगा ही चुके हैं, जो आज भी लागू है. परंतु हमारी कठिनाई है कि कुछ प्रांतों में हाईकोर्ट ऐसे व्यक्तियों को बरी करते रहे हैं, जिन्हें आरएसएस के लोगों को पकड़ने के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया था. संयुक्त प्रांत में ऐसी बहुत सी रिहाई हुई हैं, मुंबई प्रांत में ऐसे लोगों को बड़े पैमाने पर सामूहिक रूप से छोड़ा गया है, और सरकार से अदालती खर्च देने को कहा गया है. अगर हम ऐसी स्थिति का मुकाबला करने के लिए अतिरिक्त शक्ति ग्रहण करते हैं तो हम पर नागरिक स्वतंत्रता के अतिक्रमण का आरोप लगाया जाता है. यह सब मैं केवल हमारी कठिनाइयों पर जोर देने के लिए लिख रहा हूं, यद्यपि आपके कथनानुसार आज की स्थिति में हमें अधिक सावधान रहना चाहिए.’’

यहां तक आते-आते संविधान सभा के अध्यक्ष और देश के पहले राष्ट्रपति बनने वाले डॉ राजेंद्र प्रसाद ने 14 मई 1948 को सरदार को पत्र लिखकर वही चिंता जताई जो नेहरू पहले ही जता चुके थे. यही नहीं, राजेंद्र बाबू ने एक कदम आगे बढ़कर कहा कि आरएसएस के लोग मुस्लिम पोशाक पहनकर हिंदुओं पर हमला कर सकते हैं:

‘‘दूसरी कई ऐसी बातें हैं जिनके बारे में मैं आपसे बात करना चाहता हूं. उनमें से एक है दिल्ली की स्थिति. यहां की स्थिति बड़ी तेजी से बिगड़ रही है और लोग मुझसे कहते हैं कि न केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ फिर से खुदको संगठित कर रहा है या एक बार फिर खुले में आ रहा है. दरअसल वह कभी बिखेरा ही नहीं गया है. बल्कि चारों तरफ विशेष रूप से निराश्रितों (पाकिस्तान से आए शरणार्थी) में कानाफूसी और अंदरखाने आंदोलन भी चल रहा है. किसी भी समय उपद्रव फूट सकता है. कुछ घटनाएं तो हो ही चुकी हैं.

लगातार यह अफवाह सुनाई दे रही है की 15 जून की तारीख किसी बड़ी घटना के लिए नियत की गई है और इसकी वजह से लोगों में घबराहट और भय बढ़ रहा है. यह भय है कि उस दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कुछ कर सकता है. मुझसे कहा गया है कि आरएसएस की उस दिन कोई उपद्रव करने की योजना है. उनके पास अनेक लोग ऐसे हैं जो मुसलमानों की पोशाक पहनते हैं और मुसलमान जैसे दिखते हैं. यह लोग हिंदुओं पर आक्रमण करके गड़बड़ पैदा करेंगे और इस प्रकार हिंदुओं को भड़काएंगे. इसी प्रकार उनमें से कुछ ऐसे हिंदू होंगे जो मुसलमानों पर आक्रमण करेंगे और मुसलमानों को भड़काएंगे. हिंदू और मुसलमानों में इस प्रकार उपद्रव खड़ा करने का परिणाम भयंकर सांप्रदायिक विस्फोट होगा. ऐसे संवेदनशील समय में दिल्ली पुलिस के इंस्पेक्टर जनरल का तबादला कर दिया गया है, जबकि वह दिल्ली को जानते हैं और स्थिति पर अंकुश लगा सकते हैं. इससे हालात और उलझ जाएंगे. खासकर के इसलिए कि उनका उत्तराधिकारी दिल्ली के लिए नया होगा और पंजाबी होगा. मुझे बताया गया है कि संप्रदायिक मामलों में उनकी अच्छी ख्याति नहीं है. यह सारी जानकारी मैं आपको इसलिए दे रहा हूं कि आप इसका उचित मूल्यांकन करें.’’

18 मई 1948 सरदार ने जवाबी पत्र लिखा,

‘‘जहां तक आरएसएस का सवाल है, मैंने और स्थानीय प्रशासन तंत्र ने उससे निबटने के लिए आवश्यक कार्रवाई शुरू कर दी है. अलबत्ता, समाजवादी कठिनाई से लाभ उठाने में कुशल हैं, मैंने बहुत पहले उनकी ओर से खड़े होने वाले खतरे का अनुमान लगा लिया था, परंतु एक संस्था के नाते हम उस खतरे के प्रति कुछ महीने पहले ही सजग हुए मालूम होते हैं.’’

दिन बीतते जा रहे थे. सांप्रदायिकता का खतरा बढ़ता जा रहा था. गांधी की हत्या के आरोपी गिरफ्तार किए जा रहे थे. विनायक दामोदर सावरकर भी हिरासत में थे. सरदार हालात को बखूबी समझ रहे थे. वह चाहते थे कि दूसरे पक्ष के लोग भी तुरंत इन हालात को समझ लें या फिर सख्त कार्रवाई के लिए तैयार रहें. अब उन्होंने श्यामा प्रसाद मुखर्जी को पत्र लिखा जो भारत सरकार में मंत्री थे और अब भी हिंदू महासभा से जुड़े हुए थे. सरदार ने 12 जून 1948 को मुखर्जी को लिखा:

‘‘मैं समझता हूं कि हिंदू महासभा के मार्गदर्शन में गांधी जी की हत्या के मुकदमे के अभियुक्तों के बचाव के लिए चंदा इकट्ठा किया जा रहा है. लगता है कि शुरू में तो विचार सावरकर के बचाव के लिए चंदा इकट्ठा करने का था, परंतु अब इसका उद्देश्य व्यापक बना दिया गया है.

मेरे लिए यह कहना शायद ही जरूरी हो कि इस प्रस्ताव का प्रवर्तन करने तथा इस उद्देश्य को सक्रिय रूप से बढ़ावा देकर हिंदू महासभा कैसे पूरी तरह गलत स्थिति में आ जाएगी. हिंदू महासभा अब अराजनीतिक संस्था हो गई है, पर इसके पीछे एकमात्र उद्देश्य राजनैतिक हो सकता है, जो सभा को इस प्रकार के साहस के साथ संबंध स्थापित करने की प्रेरणा दे सकता है. इसके अलावा बचाव के लिए सार्वजनिक आंदोलन तभी खड़ा हो सकता है,जब अभियुक्त के लिए जनता की सहानुभूति हो. इसलिए अभियुक्तों के बचाव के साथ हिंदू महासभा का संबंध इस बात का सूचक माना जाएगा कि उसकी सहानुभूति अभियुक्तों के साथ है. अतः मैं हृदय की पूरी सच्चाई के साथ आपसे अनुरोध करूंगा कि आप महासभा को इस हलचल से अलग करने का प्रयत्न करें. आशा है, ऐसा करने में आप सफल होंगे.’’

पटेल की स्पष्ट चेतावनी के बावजूद मुखर्जी ने बात को तकनीकी पहलुओं के जरिये खारिज करने की कोशिश की. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 16 जून 1948 को पटेल को लिखा,

‘‘मेरे ख्याल से हिंदू महासभा की स्थिति के बारे में कुछ गलतफहमी हुई है. हिंदू महासभा ने कोई बचाओ कमेटी नियुक्त नहीं की है. अखिल भारत बचाओ कमेटी पूरी तरह एक स्वतंत्र संस्था है. अखिल भारत हिंदू महासभा इस तरह का कोई चंदा इकट्ठा नहीं कर रही है.

जैसा कि आपने स्वयं ही संकेत किया है, कुछ वर्तुलों में मुख्यतः सावरकर जी के बचाव के लिए फंड इकट्ठा करने की हलचल शुरू हुई है. हिंदू महासभा ने एक संस्था के नाते किसी भी अभियुक्त के बचाव के लिए कोई प्रबंध नहीं किया है और उसने किसी को उनके बचाव के लिए कोई फंड इकट्ठा करने का अधिकार नहीं दिया है. परंतु जैसा मैं पहले कह चुका हूं कि मुख्यत: सावरकर जी के बचाव के लिए इकट्ठा किया हुआ पैसा, बचाओ कमेटी के हाथों में उपयोग के लिए सौंपा गया है.’’

इस पर कोई अनुकूल प्रतिक्रिया न मिलने पर मुखर्जी ने 17 जुलाई 1948 को सरदार को फिर पत्र लिखा:

‘‘आरएसएस तथा हिंदू महासभा के प्रति हमारा रुख अब स्पष्ट है कि गांधीजी की हत्या का षड़यंत्र व्यक्तियों के एक छोटे दल तक ही सीमित था. मुख्यतः महाराष्ट्र में. यहां भी ऐसे अनेक लोग हैं जो हिंदू महासभा से संबंधित होते हुए भी इस दल के प्रभाव से बिलकुल दूर हैं. इसलिए अब समय आ गया है कि ऐसे सब लोगों को मुक्त कर दिया जाए, जिनके विरुद्ध इस अपराध में साझेदारी का अथवा विध्वंसक प्रवृतियों में भाग लेने का कोई प्रमाण नहीं है. कुछ प्रांतों में हिंदू महासभा के सदस्यों की जायजाद भी जब्त कर ली गई है और अन्य नियंत्रण ला दिए गए हैं, जिनका कोई औचित्य नहीं हो सकता. आरएसएस के संबंध में यह दिखाने के लिए कोई प्रमाण सामने नहीं आ रहा है कि संघ का व्यापक विध्वंसकारी आंदोलन से अथवा राजनैतिक नेताओं की हत्या के किसी षड़यंत्र से कोई संबंध है. कुछ प्रांतों में आरएसएस के लड़कों के साथ निकृष्ट अपराधियों के जैसा व्यवहार किया गया है और उन्हें ऐसी सामान्य सुविधाओं से भी वंचित रखा गया है जो हमेशा राजनीतिक कैदियों को दी जाती हैं.’’

मुखर्जी की दलीलों के बाद लौहपुरुष का सब्र जवाब दे गया. गांधी की हत्या में आरएसएस और हिंदू महासभा की भूमिका को लेकर 18 जुलाई 1948 को उन्होंने जो कहा वह ऐतिहासिक है:

‘‘आरएसएस और हिंदू महासभा के बारे में मैं इतना ही कहूंगा कि गांधीजी की हत्या का मुकदमा विचाराधीन है, इसलिए मुझे उसमें इन दो संस्थाओं के हाथ के बारे में कुछ नहीं कहना चाहिए, परंतु हमारी रिपोर्टें जरूर इस बात की पुष्टि करती हैं कि इन दो संस्थाओं की, खास तौर पर आरएसएस की प्रवृतियों के परिणाम स्वरूप देश में ऐसा वातावरण पैदा हो गया था, जिसमें ऐसी भीषणतम घटना संभव हो सकी. मेरे मन में इस संबंध में किसी तरह का संदेह नहीं है कि हिंदू महासभा का अत्यंत उद्दाम वर्ग इस षड्यंत्र में शामिल था. आरएसएस की प्रवृतियां सरकार और राज्य के अस्तित्व के लिए स्पष्ट खतरा बन गई हैं. हमारी रिपोर्ट दिखाती हैं कि प्रतिबंध के बावजूद वे प्रवृत्तियां खत्म नहीं हुई हैं. बेशक, समय बीतने के साथ आरएसएस के लोग ज्यादा अवज्ञापूर्ण बनते जा रहे हैं और दिन पर दिन उनकी विध्वंसक प्रवृत्तियां बढ़ती जा रही हैं. गिरफ्तार किए गए व्यक्तियों की संख्या अधिक नहीं है. सारे भारत में वह 500 से कुछ ही ऊपर है. यह संख्या दिखाएगी कि आम तौर पर उन्हीं व्यक्तियों को नजरबंद रखा जाता है, जिनकी मुक्ति से सुरक्षा को खतरा पहुंचता है. अगले महीने या उसके आसपास उनमें से लगभग सभी अपने आप मुक्त हो जाएंगे, जब 6 महीने की अवधि, विभिन्न सुरक्षा कानूनों के मातहत किसी व्यक्ति को 6 महीने से अधिक नजरबंद नहीं रखा जा सकता है, खत्म हो जाएगी. दो हफ्तों या 3 हफ्तों में इस मुक्ति के लिए अपेक्षा रखना जरूरी आग्रह नहीं है. प्रांतों के मुख्यमंत्री इस आवश्यकता के प्रति पूरी तरह जाग्रत हैं कि इन लोगों के उत्साह और जोश को अधिक उपयोगी दिशा में मोड़ा जाना चाहिए. मेरा विश्वास है  वह इस दिशा में कदम उठाएंगे.’’

सरदार ने पहले भी मुखर्जी को इस बारे में चेतावनी दी थी कि हिंदू महासभा गांधी जी के हत्यारोपियों की मदद की कोशिश न करे. 10 सितंबर 1948 को उन्होंने फिर चेताया:

‘‘अब यह बिल्कुल साफ है कि हिंदू महासभा बचाव फंड के लिए पैसा जुटाने के काम में सक्रिय है. यह दलील करना निरर्थक है कि हिंदू महासभा का एक संस्था के नाते उसके साथ कोई संबंध नहीं है. श्री सावरकर के मित्र और हितचिंतक चंदा इकट्ठा करने के लिए अलग साधनों की व्यवस्था करना चाहें तो कर सकते हैं, लेकिन यदि हिंदू महासभा की अधिकृत संस्था का इस उद्देश्य के लिए उपयोग किया जाए तो इससे एक ही अनुमान निकल सकता है और वह यह कि हिंदू महासभा उसमें है. पिछली बार आपने मुझे जो कुछ लिखा था, उसके बाद यह जानकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ है.’’

एक तरफ पटेल हिंदू महासभा के पूर्व अध्यक्ष और वरिष्ठ नेता मुखर्जी को चेतावनी दे रहे थे, तो दूसरी तरफ वे आरएसएस के सर संघचालक मधावराव सदाशिवराव गोलवलकर, गुरुजी से भी मुखातिब थे. ऐसा प्रतीत होता है कि जब आरएसएस को पटेल के दरबार से कोई राहत नहीं मिली और शिकंजा कसने लगा, तब गुरुजी ने नेहरू का रुख किया. उन्होंने आरएसएस को पाक-साफ बताया और नेहरू से मिलने के लिए समय मांगा. लेकिन जिन नेहरू ने एक जमाने फासिस्टों के मसीहा और इटली के तानाशाह मुसोलिनी तक को मिलने का वक्त नहीं दिया था, वे उस आरएसएस के नेता गोलवलकर को कैसे समय देते, जिन्हें वे फासिस्ट मानते थे.

गांधी जी की हत्या के आठ महीने बाद 10 नवंबर 1948 को नेहरू ने गोलवलकर को पत्र लिखा,

‘‘प्रिय श्री गोलवलकर

मुझे आपके 3 नवंबर और 8 नवंबर के दो पत्र प्राप्त हुए.

भारत सरकार का गृह मंत्रालय देश के आंतरिक मामलों की देखरेख करता है, इसलिए उसे ही आरएसएस की समस्या से निपटना है. मैं समझता हूं कि उन्होंने इस मामले पर काफी ध्यान दिया है और राज्य सरकारों से भी सलाह मशविरा किया है. मेरी सलाह है कि आप सीधे मंत्रालय से बातचीत करें. आपने जो कागजात मुझे भेजे हैं, मैं उन्हें मंत्रालय को भेज रहा हूं.

पिछले पूरे साल केंद्र सरकार और प्रांतीय सरकारों को आरएसएस के लक्ष्य और गतिविधियों के बारे में बहुत सारी जानकारी मिली. वह जानकारी उस जानकारी से मेल नहीं खाती जो आपने मुझे भेजी है. बल्कि यह साफ दिखाई देता है कि आपके घोषित लक्ष्यों का आपके असली लक्ष्यों और आरएसएस नेताओं की असली गतिविधियों से कुछ लेना-देना नहीं है. आपका असली लक्ष्य भारत सरकार के फैसलों और भारत के प्रस्तावित संविधान से पूरी तरह उलट जान पड़ता है. हमारी जानकारी के मुताबिक आप की गतिविधियां अक्सर देश विरोधी, आक्रामक और हिंसक होती हैं. इसलिए आप इस बात को समझेंगे कि सिर्फ विपरीत दावे कर देने से कोई फायदा नहीं होगा.

मुझे आपसे मिलने में बहुत खुशी होती, लेकिन एक तो यूरोप से लौटने के बाद मेरे पास काम का बहुत दबाव है, दूसरे यह कि आप से मुलाकात से कोई उद्देश्य पूरा नहीं होगा. क्योंकि मामला गृह मंत्रालय के अधीन है, तो उचित यही होगा कि आप सीधे उन्हीं से बात करें.’’

नेहरू और पटेल की आक्रामक नीति ने अब कुछ असर डालना शुरू किया. अब तक हर बार आरएसएस और हिंदू महासभा का बचाव करते रहे मुखर्जी ने 19 नंवबर 1948 को नेहरू को पत्र लिखा. उसी दिन नेहरू ने जवाब लिखा:

‘‘19 नवंबर के आपके उस पत्र के लिए धन्यवाद, जिसमें आपने मुझे सूचित किया है कि हिंदू महासभा की कार्यकारिणी के ताजा फैसले के बाद आपने संगठन से इस्तीफा देने का फैसला किया है. अगर मैं ऐसा कह सकूं तो आपने सही काम किया है. और इसके लिए मैं आपको बधाई देता हूं.’’

प्रत्यक्षत: श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नेहरू के उस स्पष्ट आग्रह को ध्यान में रखते हुए इस्तीफा दिया था, जिसमें मई में नेहरू ने उनसे ऐसा करने के लिए कहा था. इस बीच पटेल के कड़े रुख ने मुखर्जी को इस फैसले में पहुंचने में जरूर मदद की होगी. नेहरू के असर को इस बात से समझा जा सकता है कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 23 नंवबर 1948 को हिंदू महासभा से इस्तीफा दिया, लेकिन इसकी सूचना 19 नवंबर को ही नेहरू को दे दी. मुखर्जी ने नेहरू से कहा कि हिंदू महासभा का अपनी राजनीतिक गतिविधियों को दोबारा शुरू करने का फैसला उन सिद्धांतों के खिलाफ है, जो उन्होंने महासभा से स्वीकार करने के लिए कहे थे. उन्होंने कहा था कि अगर भारत को महान और शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभरना है तो सांप्रदायिक भेदभाव और इससे जुड़े आवेग और पूर्वाग्रहों को खत्म करना होगा. (नेहरु वांग्मय आठवा खंड पेज 124)

मुखर्जी भले ही हिंदू महासभा से अलग होने के मजबूर हो गए हों और गोलवलकर पत्र लिखकर मिलने का समय मांगने लगे हों, लेकिन इसके बावजूद नेहरू इन दोनों संगठनों पर बराबर नजर बनाए रहे.

5 दिसंबर 1948 (वॉल्यूम 8) को नेहरू ने गृह मंत्रालय को एक नोट भेजा:

‘‘कुछ दिन पहले प्राप्त इंटेलिजेंस रिपोर्ट्स में बताया गया है कि आरएसएस सत्याग्रह और दूसरे साधनों से सरकार को चुनौती देने की बड़े पैमाने पर तैयारी कर रही है. दिल्ली और भारत के दूसरे इलाकों से निजी सूत्रों से जो सूचना आ रही है वह भी इस सूचना को पुष्टि कर रही है. मुझे इस बारे में कोई संदेह नहीं है कि गृह मंत्रालय इस बारे में सचेत होगा और किसी भी तरह के हालात से निपटने की तैयारी कर चुका होगा.

जो भी कदम उठाए जाएं, उन्हें अखिल भारतीय स्तर पर उठाने की जरूरत होगी. इन कदमों के बीच समन्वय होना चाहिए और सभी शुरुआती तैयारियां की जानी चाहिए. कहा जा रहा है कि आरएसएस उस समय हरकत में आएगा, जब जयपुर में कांग्रेस का सत्र हो रहा होगा और जब बड़ी संख्या में कांग्रेस के नेता और मंत्री जयपुर में जमा होंगे. ऐसी आशा की जा रही है की मंत्रियों की गैरमौजूदगी में सरकार के काम में कुछ ढिलाई आ जाएगी.

इसलिए सारी तैयारी इस तरह करनी है कि हालात से निबटने के तत्काल उपाय किए जा सकें. जब आरएसएस को गैरकानूनी घोषित किया गया था, तो उस समय पहले से कोई तैयारियां और पर्याप्त सूचनाएं नहीं थी. नतीजा यह हुआ की प्रांतीय सरकारों के पास इसके लिए तैयारी का समय नहीं था. हाल यह था कि प्रांतीय सरकारों को हमारे निर्देश तब पहुंच पाए, जब रेडियो पर इस प्रतिबंध की घोषणा की जा रही थी. इस बात के पूरे इंतजाम किए जाएं कि इस घटना की पुनरावृत्ति न हो.

किसी भी तरह के व्यापक आंदोलन से निपटने के लिए यह जरूरी है कि आंदोलन के प्रमुख नेता और कार्यकर्ताओं को समय रहते गिरफ्तार कर लिया जाए. यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि आरएएस सिर्फ सत्याग्रह शब्द का इस्तेमाल कर रहा है. उनका सत्याग्रह से दूर-दूर तक कोई वास्ता तक नहीं है और न ही वह सत्याग्रह की उस भावना पर चलना चाहते हैं जिसे महात्मा गांधी और कांग्रेस ने अपनाया था. असल में यह सिर्फ दूसरी हरकतों के लिए एक मुखौटा भर है. आरएसएस आवश्यक रूप से एक ऐसा संगठन है जो गुप्त रूप से कार्य करता है. यह सार्वजनिक रूप से जो कहता है और करता है,उसका गुप्त रूप से किए जाने वाले उसके कामों से कोई संबंध नहीं है. इसलिए यह खुला सत्याग्रह इसकी अंदरखाने चलने वाली कहीं घातक गतिविधियों के लिए एक मुखौटा है.

संभवत:, बल्कि वास्तव में यह कहा जा रहा है कि सत्याग्रह शुरू होने से पहले आरएसएस के प्रमुख नेता अंडरग्राउंड हो जाएंगे. यह सत्याग्रह का तरीका नहीं है. इसका मतलब है कि अंडरग्राउंड लोग कुछ दूसरे ही मकसद के लिए काम करेंगे, जबकि इस दौरान सत्याग्रह लोगों का ध्यान भटकाने का काम करेगा.

इसलिए हर हाल में यह जरूरी है कि आरएसएस की चुनौती से निपटने के लिए सरकार पूरी तरह तैयार रहे और हर संभव उपाय करे. प्रांतीय सरकारों को पहले से तैयार रखा जाए, ताकि उन्हें पहले से पता हो कि किसे-किसे गिरफ्तार करना है और किसे हिरासत में ले लेना है. उनके पास आवश्यक कार्रवाई करने के लिए पर्याप्त समय हो.

दिल्ली के हालात पर नजर रखना बहुत जरूरी है, क्योंकि दिल्ली न सिर्फ भारत की राजधानी है, बल्कि यह इस तरह की गतिविधियों का केंद्र है. मैंने आज दिल्ली के चीफ कमिश्नर से मुलाकात की और उनसे हालात पर विचार विमर्श किया. उन्होंने मुझे यह स्पष्ट कर दिया कि अगर हमें कोई कारगर कदम उठाना है तो यह पहले से तैयारी के साथ होना चाहिए, बल्कि काफी पहले होना चाहिए. हमें इस बात का इंतजार नहीं करना चाहिए कि पहले कोई हरकत हो और उसके बचाव में हम कार्यवाही करें. मेरा सुझाव है कि गृह मंत्रालय दिल्ली के चीफ कमिश्नर की बात को समझेगा और जितनी जल्दी हो सके प्रांतीय सरकारों को निर्देश जारी कर देगा.’’

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