महिलाओं की आपबीती: कोरोना से भयानक तो घर है !

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दुनिया के अधिकाँश देशों में जब कोरोना के घातक प्रभाव से मानव जाति को बचाने के लिए लॉकडाउन और स्व-अलगाव( सेल्फ आइसोलेशन) अपनाया जा रहा है, तब महिला, बच्चे, ट्रांस-जेंडर दिहाड़ी करने वाले जैसे अनेक ऐसे समूह हैं जिनका जीवन ही लॉकडाउन के कारण या तो खतरे में पड़ गया है या पहले की तुलना में और कठिन हो गया है.

जहाँ तक महिलाओं की बात है, उन के लिए घर कभी बहुत सुरक्षित और सुकून भरी जगह नहीं होता। ऐसे में उनके लिए कोरोना के समय अपनायी गयी सामाजिक विलगाव (सोशल डिस्टेंसिंग) और स्व-अलगाव की स्थिति उनके लिए और घुटन भरी और घातक हो गयी है. बदले हुए हालात में पति, प्रेमी या कभी-कभी पिता द्वारा उनके साथ जोर-जबरदस्ती और हिंसा की घटनाओं में न सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में ही इजाफा हुआ है. कोरोना से पैदा हुयी मौजूदा स्थिति उन्हें और अधिक नियंत्रित करने का एक आसान और ‘वैध’ मौक़ा दे रही है. दूसरी ओर घर के सभी सदस्यों के लगातार घर में रहने के कारण महिलाओं पर काम का बोझ भी बहुत बढ़ गया है. कोरोना से पहले के समय में काम के लिए पति के घर से बाहर निकलने के बाद बहुत सारी महिलाओं को दोपहर में अपने लिए थोड़ा वक्त, घर का एक एकांत कोना, अपनी पड़ोसी सहेलियों से दुःख-दर्द साझा करने का कुछ वक्त मिल जाता था पर अब तो ऐसा कुछ भी नसीब नहीं है. इसके अलावा आर्थिक संकट झेल रहे परिवारों में महिला बेहद कम पैसे में रसोई चलाने का दबाव भी झेल रहीं हैं.

इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रीय महिला आयोग ने बताया है कि 23 मार्च से 30 मार्च के बीच उन्हें घरेलू हिंसा और उत्पीड़न की 58 शिकायतें मिली हैं जिनमें अधिकाँश उत्तर भारत से हैं. राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा ने पीटीआई को बताया कि मर्द घर में बैठे बैठे ऊब रहे हैं और अपनी निराशा और खीझ घर की महिलाओं पर उतार रहे हैं. लॉकडाउन के पूर्व हिंसा की शिकार महिलाओं के पास घर से बाहर निकलने, आश्रय स्थलों या किन्हीं अन्य सुरक्षित जगहों में शरण लेने या घर से बाहर निकल कर अपना दुःख किसी के साथ साझा करने के जो थोड़े अवसर होते थे वे भी अब नहीं रहे. ऐसे में उनकी तकलीफ और हताशा कितनी बढ़ गयी होगी इसकी सिर्फ कल्पना की जा सकती है.

भारत जैसे देश में जहाँ अधिकाँश महिलायें ईमेल करना नहीं जानतीं, जाहिर है कि उनकी शिकायतें घर की लक्ष्मण रेखा के भीतर ही घुट जाती हैं और कभी किसी एजेंसी तक नहीं पहुँच पातीं. ऐसे में इस कठिन समय में दूर गाँव-देहात, कस्बों और शहरों की महिलाओं की अकेली-अकेली चुप चीख को सिर्फ महसूस किया जा सकता है. राष्ट्रीय महिला आयोग के अनुसार सीकर, राजस्थान में एक पिता ने आयोग से अपनी बेटी के लिए सुरक्षा की अपील की है और बताया है कि लॉकडाउन के बाद से उसकी बेटी को पति द्वारा खाना नहीं दिया जा रहा और उसकी बेरहमी से पिटाई की जा रही.

वास्तव में यह एक घर की कहानी नहीं है. हमारे समाज में तो ज्यादातर महिलाएँ ताड़न की अधिकारी मानी जाती हैं और आमतौर पर सामान्य दिनों में भी सबसे बाद में बचे-खुचे भोजन की ही अधिकारी होती हैं. बहुत सारे मर्द तो किसी छोटी सी बात पर ही अपनी पत्नी को सजा के तौर पर एक-दो दिन खाना बंद कर देते हैं. ऐसे अनिश्चितता भरे लॉकडाउन में, जब खाने-पीने की चीजों का अभाव हो चला है, नौकरी खत्म हो गयी है, भविष्य की कोई गारण्टी नहीं रह गयी है, घर की सबसे ‘हीन’ सदस्य के साथ इस तरह का व्यवहार होना कोई अचरज की बात नहीं है. घर के अन्दर हिंसा के इतने रूप हैं की छोटी सी बात पर औरतों के ऊपर हाथ उठा देना, थप्पड़ मार देना, बाल खींच लेना, किसी चीज से ठोंक देना, दीवार पर सिर दे मारना, लोहे का औजार सिर पर मार देना, हाथ-पैर बाँध देना, बलात्कार कर देना…दिल को बैठा देने वाले अनन्त रूप हैं, ये वे शान्तिकालीन, सामान्य दिनों में अपनाये जाने वाले रूप हैं जब घर के मर्दों को किसी भी वक्त घर से बाहर निकलने की आजादी होती है! जब घर में वह कम ही समय रहते हैं. ऐसे हिंसक आदमियों की चौबीसों घंटे घर में मौजूदगी घर की उत्पीड़ित महिलाओं में कैसा तनाव, डर और हताशा पैदा कर रही होगी इसकी आप कल्पना करिये. रूह काँप जायेगी.

ये कहानी सिर्फ भारत की ही नहीं है, पूरी दुनिया में लॉकडाउन के समय तमाम महिलाओं की मुसीबतें और उन पर होने वाली हिंसा की कहनियाँ एक जैसी ही हैं.

‘जब घर कोरोना वाइरस से अधिक खतरनाक हों’ शीर्षक के अपने लेख में हैरीट विएम्सन ने पुलिस रिकॉर्ड के हवाले से बताया है कि चीन के हुबई प्रांत, जहां से कोरोना शुरुआती दौर में फैला, घरेलु हिंसा की घटनाओं में पिछले साल 47 की तुलना में इस वर्ष फरवरी माह में 162 शिकायतें दर्ज की गयीं.

“महामारी ने घरेलू हिंसा पर व्यापक प्रभाव डाला है,” ऐसा चीन के एक सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी, वान फी ने ‘सिक्स्थ टोन वेबसाइट’ को बातचीत में बताया। उन्होंने कहा, “हमारे आँकड़ों के अनुसार, हिंसा के कारणों का 90% [इस अवधि में] कोविड -19 महामारी से सम्बन्धित है।”

दक्षिण कोरिया में जहाँ कुछ दिन पहले जबर्दस्त महिला आन्दोलन उफान पर था और मर्दवादी विद्वेष झेल रहा था, वहाँ हुए एक सर्वेक्षण में लगभग 80% पुरुषों ने स्वीकार किया कि उन्होंने अपनी वर्तमान या पूर्व प्रेमिका का किसी न किसी रूप में उत्पीड़न किया है. वह देश जो पहले से ही हाउसिंग की भारी समस्या झेल रहा है, और जिसे ऑस्कर विजेता फिल्म ‘पैरासाईट’ में दिखाया भी गया है, वहां, अकेली उत्पीड़ित महिला के लिए कोरोना के समय में घर तलाशना मुश्किल हो गया होगा.

दूसरी ओर ब्राजील के ब्रॉडकास्टर ग्लोबो ने कहा है कि ब्राजील में राज्य द्वारा संचालित आश्रय स्थलों में आने वाली उत्पीड़ित महिलाओं की संख्या कोरोनो अलगाव के समय बढ़ गयी है.

ब्राजील के रियो डि जेनेरो में घरेलू हिंसा मामलों की विशेषज्ञ जज एड्रियाना मेलो के अनुसार, “हमें लगता है कि माँग में (आश्रय स्थलों की) 40% या 50% की वृद्धि हुई है, जिसकी पहले से ही बड़ी माँग थी।” वहाँ एक महिला ने हेल्पलाइन में बताया की वह बाथरूम में बन्द होकर फोन कर रही है और उसे तत्काल मदद की जरूरत है.
स्पेन के कैटलन क्षेत्रीय सरकार ने कहा कि स्पेन में कोरोना का पहला मामला आने के बाद घरेलू हिंसा से सम्बन्धित उनकी हेल्पलाइन पर कॉल में 20% की वृद्धि हुई थी; साइप्रस में, 9 मार्च के बाद इसी तरह की हॉटलाइन पर कॉल में 30% वृद्धि हुई है.

यह सोचने वाली बात है की मदद के लिए फोन वे ही औरतें कर पायीं जिन्हें मौक़ा मिल पाया, वर्ना हजारों औरतें इतनी खुशनसीब नहीं रहीं. संकट के समय महिलाओं पर अत्याचार तो हमेशा ही बढ़ जाते हैं पर इस बार लॉकडाउन के कारण उनकी मदद करने वाली एजेंसियों तक उनकी पहुँच बिलकुल बाधित हो गई है जिससे घटनाओं में और तेजी से इजाफा हो रहा है. महिलायें ही नहीं बच्चे भी इसका शिकार हो रहे हैं.

स्पेन में जहां लॉकडाउन के नियम बड़े सख्त हैं वहाँ की सरकार ने उन औरतों को छूट दी है जो घर में हिंसा या उत्पीड़न के दौरान घर से बाहर निकल जाती हैं. लेकिन वहाँ वालेंशिया प्रांत की एक महिला की किस्मत ने उसका साथ नहीं दिया. 19 मार्च को, लॉकडाउन के पाँचवे दिन, उसके पति ने अपने बच्चों के सामने ही उसकी हत्या कर दी.कई देशों में लॉकडाउन के मद्देनजर क्वारनटाईन के दौरान महिलाओं और बच्चों के खिलाफ घर में बढ़ती हिंसा को देखते हुए विशेष कानूनी कदम उठाये जाने की माँग उठने लगी है.ब्रिटेन में, महिला समानता पार्टी की नेता, मांडू रीड ने लॉकडाउन के दौरान घरों में हिंसा के अपराधियों को घर से बाहर निकालने के लिए पुलिस को विशेष शक्ति प्रदान करने और सुरक्षा आदेशों के लिए अदालत की फीस माफ करने की अपील की है. जाहिर है, कोरोना लॉकडाउन में हिंसा की बढ़ती घटनाओं ने किसी देश को नहीं बख्शा है.अमरीका की कहानी भी अलग नहीं है. न्यूयार्क टाइम्स और फूलर प्रोजेक्ट ने इस सम्बन्ध में बहुत सारे सर्वे किये हैं. नेशनल डोमेस्टिक वोंइलेंस हेल्पलाइन में कोरोना संकट के दौरान मदद की गुहार लगाती हजारों महिलाओं की कहानियों में से उन्होंने कुछ को अपनी रिपोर्ट में शामिल किया है. उसके अनुसार तमाम महिलाओं को काम और घर के बीच चुनने को मजबूर किया जा रहा है. एक महिला ने कहा,”उसने (पति) मुझे धमकी दी कि अगर मैं घर से काम नहीं करूँगी तो वह मुझे घर से निकाल देगा.’ किसी ने बताया कि,”उन्होंने (पति) कहा है कि अगर मुझे खाँसी शुरू होती है, तो वह मुझे सड़क पर फेंक देगा ताकि मैं अस्पताल के कमरे में अकेले मर सकूँ.”एक अन्य कॉल में, एक लड़की ने, जिसकी उम्र 13 और 15 वर्ष के बीच है, कहा कि उसकी माँ के पार्टनर ने पहले उसकी माँ के साथ दुर्व्यवहार किया, और अब उसके साथ कर रहा है। लेकिन चूँकि स्कूल बन्द हैं इसलिए वह न तो टीचर से और न ही काउंसिलर से मदद ले सकती है. एक परेशान महिला ने बताया कि उसे डर है कि अगर वह मदद के लिए घर से बाहर निकलती है तो उसका पति उसे दुबारा घर में नहीं घुसने देगा ताकि सड़क पर ही कोरोना से उसकी मौत हो जाए!

हॉटलाइन के मुख्य कार्यकारी केटी रे जोन्स कहती हैं कि ऐसे समय में जब हर कोई यह महसूस कर रहा है कि स्थितियाँ और ताकत उनके नियन्त्रण से बाहर हैं तो लॉकडाउन के दौरान घर में कैद मर्दवादी सोच वाला व्यक्ति तथा पत्नी, पार्टनर या बेटी पर हिंसा का अभ्यस्त व्यक्ति तो और भी उत्तेजना में रहता होगा. ऐसे में घर में उसका व्यवहार कितना अपमानजनक और हिंसक होगा, हम अंदाजा लगा सकते हैं. वे कहती हैं की हो सकता है कि हिंसक मामलों की संख्या ज्यादा न बढ़े परन्तु हिंसा की तीव्रता (इंटेंसिटी) और उसकी आवृत्ति निश्चय ही बढ़ेगी. विशेषज्ञों का मानना है कि 2008 के आर्थिक मंदी के दौरान, 9/11, सैंडी और कैटरीना तूफ़ान के बाद जिस तरह घरों में हिंसा के मामले बढ़े थे, उसी तरह के हालातों से अब इनकार नहीं किया जा सकता जबकि इस बार कोरोना के कारण तो अमरीका में स्थितियाँ पहले से बहुत खराब हैं और भविष्य में और भी खराब होनी हैं.

सच तो ये है कि हर दौर में महिलाओं की पीड़ा की कहानी कुछ एक जैसी और कुछ पहले से अलग होती है जिस पर अकसर लोगों का ध्यान नहीं जाता या जिस पर सोचा जाना जरूरी नही समझा जाता. इस बार भी कोरोना संकट के समय भी महिलाएँ सबकी तरह कोरोना के आघात का खतरा तो झेल ही रही हैं, महिला होने के नाते भी अत्यधिक उत्पीड़न का सामना कर रही हैं, इस बार अपने घरों में लॉकडाउन और स्व-अलगाव (सेल्फ आइसोलेशन) में अपने पार्टनर, पति, प्रेमी या शायद पिता द्वारा उन पर की जा रही हिंसा के रूप में, जिससे बचने का और भागने का इस बार उनके पास कोई विकल्प नहीं है.

देश दुनिया की इन तमाम घटनाओं को देखते हुए यह समझना कठिन नहीं कि आपदा काल में पहले से चले आ रहे भेदभाव और शोषण में और ज्यादा बढ़ोत्तरी ही होती है. असुरक्षा और अनिश्चितता की इं स्थितियों में शोश्न्कारी और वर्चस्ववादी लोगों की अमानवीयता कम होने के बजाय बढ़ती है. यही हाल दोयम दर्जे की स्थितियों वालों का भी होता है, जिनका दमन, उत्पीड़न संकट की घड़ी में पहले से तेज हो जाता है.



आशु वर्मा