अर्थार्थ : अंधकार के युग में… प्रकाश की ओर… एक कदम

सूर्य कांत सिंह
काॅलम Published On :


खबर यह है कि कोई खबर ही नहीं है । प्रधानमंत्री अपनी कैबिनेट के साथ शपथ ले चुके हैं, वित्त को रक्षा प्राप्त हो गयी है, और हम-आप पांच साल के लिये सो सकते हैं।

जिन लोगों ने उच्च शिक्षा का प्रयास किया होगा वे जानते होंगे की पी.एच.डी. करने से पूर्व थीसिस का विषय चुनना होता है। साधारण शब्दों में, किसी विश्लेषण की शुरुआत होती है मुद्दे के चुनाव से। लेकिन भारत या यूं कहें कि सम्पूर्ण विश्व में शायद ही कोई संस्था या व्यवस्था बची हो जिसमें खोट न हो। जब सब तरफ़ हाल सामान्य रूप से खराब हों तो किस मामले को गम्भीर मान कर उसका विश्लेषण किया जाये? जिनके अंदर पश्चिमी देशों की परिकल्पना कुलांचे मार रही हो, उनको ज्ञात कराना उचित है कि अमेरिका में बिना बीमा के एक हफ्ते अस्पताल में बिताना किसी सामान्य नागरिक को दिवालिया करने के लिये पर्याप्त है। वहां चार वर्ष की डिग्री की फीस अस्सी लाख रुपए है । मां-बाप मिल कर भी बच्चों का पेट नहीं पाल पा रहे। तेरह से पंद्रह वर्ष की बच्चियां मां बन रही हैं और हज़ारों की संख्या में लोग बेघर हो रहे हैं। बाहर बर्गर 3 डॉलर का मिलता है और घर पर खाना पकाने में 15 डॉलर खर्च होते हैं।

ऐसे में वक़्त है इंसानियत को ही खंगाला जाए, सोचा जाए कि हमसे क्या भूल हुई। क्यों हमारे युवा पठन-पाठन छोड़    पब-जी खेलने लगे? क्यों ईद की सेवइयां भूल कर हम अपने ही नागरिकों की नागरिकता पूछ रहे हैं? क्यों मधुर संगीत झींगुर की एकरट आवाज़ बन कर रह गया? क्यों देश में पॉर्न बैन है और मोबाइल ऐप्प्स में अश्लीलता व्यापक? आखिर क्यों ज़मीन से सोना उगाने वाला किसान आत्महत्या कर रहा है और अपराधी राज कर रहे हैं? सोचा जाए कि रोटी, कपड़ा और मकान से आगे क्‍यों हम सोच ही नहीं पा रहे?

ज़्यादातर लोग अपनी मौजूदा स्थिति के लिये पूर्व सरकारों को दोषी मानते हैं और कुछ लोग अपनी बुद्धि पर ही संदेह कर बैठते हैं। कई लोग आगे बढ़ कर प्रयास कर रहे हैं कि स्थिति बदले पर सफलता नहीं मिल रही। लेकिन वास्तविकता के धरातल पर देखें तो अधिकांश को वह स्थितियां कभी मिली ही नहीं कि वे अपने चरम को प्राप्त कर सकें। अगर आप अपनी मर्जी से खा-पी सकते हैं, कपड़े पहन सकते हैं और यात्रा कर सकते हैं तो आप आर्थिक तौर पर भारत के श्रेष्ठ 15 फीसद लोगों में हैं। जब इस विशेषाधिकार की स्थिति में भी जब आप अपने को आर्थिक रूप से तंग महसूस कर रहे हैं तब सोचें कि भारत सरकार गरीबी रेखा का निर्धारण नहीं कर पा रही और तत्काल रूप से 632 रुपये प्रतिमाह की मानक रेखा के नीचे 40 करोड़ से ज़्यादा लोग हैं।

यहां ज़रा ठहरिये। प्रधानमंत्री ने “सवा सौ करोड़” बोल-बोल कर इस संख्या को इतना मामूली बना दिया कि ऊपर लिखे वाक्य की गम्भीरता आंकने में समय लग सकता है। जी! 40,00,00,000 लोग प्रतिमाह 632 रुपये से कम पर गुज़ारा कर रहे हैं। वैसे सरकारी आंकड़ों की विश्वसनीयता के क्या कहने पर तब भी ये संख्या अप्रत्याशित है। लेकिन हम इस विषय पर एक व्यापक नज़रिया बनाने की कोशिश कर रहे हैं। जब आधी आबादी खाली पेट सोती है तो उनमें से कितने पिछड़े हैं और कितने अल्पसंख्यक, यह जान कर कोई विशेष लाभ नहीं मिलने वाला। यह मामला न किसी जाति-समुदाय से जुड़ा है, न ही राज्य विशेष से। पूरी व्यवस्था ही कुछ इस तरह से बुनी गयी है कि आप मुफलिसी में जीवन बिता दें और आपको इसका कारण भी पता न चले। और अब यह कुव्यवस्था जीवन के अन्य पहलुओं पर भी कब्ज़ा जमा चुकी है। यह स्तम्भ में इस पूरे प्रकरण को आपके समक्ष परत दर परत खोलने का मेरा प्रयास है।

आने वाली कड़ियों में हम विषय-क्रमवार रूप से वैश्विक परिदृश्‍य को समझेंगे और भारत के साथ उसकी सादृश्‍यता स्थापित करेंगे। उनमें जिक्र की गयी बातें मेरे अध्ययन पर आधारित हैं। तब भी इतने बड़े विषय को उठाना मैं अपनी क्षमता के परे मानता हूं पर इसके साथ पूरा न्याय करूंगा, इसके लिये प्रतिबद्ध हूं। जब दो लाइन से ज़्यादा पढ़ने की क्षमता सामान्य जन मानस में नहीं बची, आप अपना बहुमूल्य समय दे कर मेरा लेख पढ़ रहे हैं, इसके लिये मैं आपका आभारी हूं। साथ ही आपसे यह अपेक्षा भी रखता हूं कि आप दी गयी किसी भी जानकारी पर अपने विवेक से खोज करने के उपरांत ही मत स्थापित करेंगे।