सुनहरे गुंबद की इमारत

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प्रकाश के रे

 


 

दुआओं और ख़्वाबों से पुरनम है
जेरूसलम की हवा 
कारखानाई शहरों की हवा की मानिंद.
यहाँ साँस लेना मुश्किल है.
गाहे-बगाहे तारीख़ की खेप आती रहती है
और इसे समेटा जाता है घरों और मीनारों में.
बाद में इन्हें फेंक दिया जाता है घूरे पर.
कभी लोगों के बदले मोमबत्तियाँ आती हैं
और तब ख़ामोशी रहती है.
और कभी लोग आते हैं मोमबत्तियों की जगह
और तब शोर मच जाता है.
और चारदीवारी के भीतर चमेली से लदे बाग़ीचों में 
विदेशी राजदूत लेटे होते हैं मौक़े की ताक में
ख़ारिज़ कर दी गयीं दुल्हनों की तरह

– यहूदा अमीख़ाई

जेरूसलम शहर के किसी भी कोने से सुनहरे गुंबद की इमारत- डोम ऑफ द रॉक यानी कुब्बत अल-सखरा- को देखा जा सकता है. इसे उम्मयद खलीफा अब्द अल-मलिक ने बनवाया था. इस खलीफा के खाते में अन्य कई उपलब्धियां भी हैं- पवित्र कुर’आन को अंतिम रूप देना, इस्लामी कर्मकाण्डों और मान्यताओं का मानकीकरण तथा एक ईश्वर-एक सल्तनत की अवधारणा की स्थापना आदि. इस्लाम की मौजूदा रूप-रेखा का लगभग पूरा हिस्सा उसी के दौर में निर्धारित हुआ.

 

Taken under a low Januray morning sun (0800). View from the south

अप्रैल, 685 में मारवान की मौत के बाद अल-मलिक को सल्तनत मिली, जिसकी राजधानी दमिश्क थी. मुआविया और अन्य उम्मयद खलीफाओं की तरह उसे भी जेरूसलम से बेपनाह मुहब्बत थी. पर उसके हाथ से मक्का, फारस और इराक के कई इलाके निकल चुके थे और उन पर इस्लाम का प्रतिनिधित्व करने का दावा करनेवाले अन्य फिरकों का कब्जा था. अब्द अल-मलिक ने सल्तनत के शासकीय ढांचे में बड़े बदलाव किये तथा बैजेंटाईन और फारसी शासन के तौर-तरीकों की जगह अरबी प्रणाली लागू की. उसकी खिलाफत मजहबी मान्यताओं पर आधारित केंद्रीय राजशाही थी. अपनी सल्तनत को ठीक करने के बाद उसने जेरूसलम को बेहतर करने पर ध्यान देना शुरू किया.

 

साल 688 में उसने डोम बनाने की घोषणा की और इसके खर्च के लिए मिस्र से आनेवाले सात साल के राजस्व को नियत कर दिया. टेंपल माउंट के उस पवित्र पत्थर पर मुआविया ने भी निर्माण की योजना बनायी थी, पर उस पर अमल न हो सका. इस इमारत को बनाने के धार्मिक उद्देश्य का अनुमान लगाना मुश्किल है. पवित्र पत्थर के बारे में मान्यता है कि यह आदम का स्वर्ग था, अब्राहम की बलि-वेदी इसी जगह थी, डेविड और सोलोमन ने इसी स्थान पर अपने भव्य मंदिर बनाये तथा इसी जगह से मोहम्मद ने रात में स्वर्ग की यात्रा की थी. इस जगह के बारे में यह भी कहा जाता है कि कयामत के दिन यहीं सबका फैसला होना है और काबा को भी मक्का से उठ कर यहीं आना है. कई विद्वानों की राय है कि मोहम्मद की यात्रा का संबंध जेरूसलम के साथ उस समय तक स्थापित मान्यता नहीं थी. यह बाद में आस्था के साथ जुड़ा है.

 

एक आकलन यह है कि इसे दुनिया के केंद्र के रूप में बनाया गया था, वहीं अल-मलिक को नापसंद करनेवाले कुछ इस्लामी विवरणों में यह भी कहा गया है कि चूँकि अब उसके हाथ में मक्का नहीं था, तो वह काबा के बराबर कुछ वैसा ही बनाना चाहता है. पर, इस बात को स्वीकार करने का कोई कारण नहीं है, पर वह अपने वंश और अपनी सल्तनत के लिए इस्लामी दुनिया में हमेशा के लिए एक श्रेष्ठ चिन्ह जरूर देना चाह रहा होगा.

इस भव्य इमारत को इस्लामी आकांक्षा के आकार लेने से जोड़ा जा सकता है. जेरूसलम में शानदार ईसाई इमारतों को देखकर इस धर्म के अनुयायियों के मन में भी अपनी इमारतों की चाह रही होगी. बैजेंटाइन साम्राज्य और ईसाई धर्म की ताकत और बड़प्पन के प्रतीक उनकी इमारतें ही थीं. साल 691-92 में डोम का निर्माण पूरा हुआ. ईसाई और यहूदी धर्मों से इस्लाम की श्रेष्ठता को सिद्ध करने का उद्देश्य भी इसी के साथ पूरा हुआ.

 

इमारत के भीतरी हिस्से में 800 फीट लंबा अभिलेख है जिसमें ईसा को ईश्वर के पुत्र मानने की ईसाई अवधारणा को खारिज कर उन्हें दूत माना गया है. मोंटेफियोरे ने रेखांकित किया है कि इमारत पर लिखी बातें उन बातों का पहला साक्ष्य हैं जिन्हें अल-मलिक के दौर में पवित्र कुर’आन में अंतिम रूप से शामिल किया गया. इस इमारत की देख-रेख का जिम्मा 300 अश्वेत गुलामों के साथ 20 यहूदियों और 10 ईसाईयों का था.

उल्लेखनीय है कि यहूदी हफ्ते में दो दफा डोम के भीतर पवित्र पत्थर की पूजा-अर्चना कर सकते थे. डोम के बनने के कुछ समय बाद ही अल-मलिक की फौज ने मक्का पर कब्जा कर लिया. उसने इस्लामी साम्राज्य को मौजूदा पाकिस्तान के सिंध से लेकर उत्तर अफ्रीका के बड़े हिस्से तक फैला दिया. अल-मलिक की सल्तनत की ताकत इतनी बढ़ गयी थी कि उसके मरने के कुछ समय बाद ही स्पेन भी इसका हिस्सा बन गया और इस्लामी फौजें फ्रांस में घुसने की जुगत लगाने लगी थीं.

अल-मलिक मुआविया की तरह ही एक सफल प्रशासक और योद्धा होने के साथ रंगीन-मिजाज भी था. सोलह बरस की उम्र में ही वह बैजेंटाइन साम्राज्य के खिलाफ अरबी सेनापति की भूमिका निभा चुका था. खलीफा उस्मान की हत्या का वह चश्मदीद गवाह था. अपने विरोधियों के साथ वह क्रूर व्यवहार करता था. ऐशो-आराम से रहने के साथ वह अलग-अलग नस्ल की स्त्रियों का भी आग्रही था. अब्द अल-मलिक ने ही इस्लामी इमारतों या चित्रों में मनुष्यों के चित्रण पर रोक लगायी थी. उसने अपने सिक्कों पर भी अपनी तस्वीर उकेरना बंद कर दिया था. अल्लाह एक है और मोहम्मद उसके पैगम्बर हैं- इस सिद्धांत पर उसका जोर रहा है तथा पवित्र कुर’आन को अंतिम रूप देने के साथ उसने मोहम्मद की कही बातों- हदीस- का भी संकलन कराया. अब वह खुद को अल्लाह का नायब  कहना भी शुरू कर दिया था. बहरहाल, डोम ऑफ द रॉक इस्लामी स्थापत्य का अद्भुत नमूना है. निर्माण के साथ ही यह जगह चहल-पहल और पिकनिक के लिए इस्तेमाल होने लगी थी. ऐसा आज भी होता है.

 

 

 

पिछली कड़ियाँ—

पहली किस्‍त: टाइटस की घेराबंदी

दूसरी किस्‍त: पवित्र मंदिर में आग 

तीसरी क़िस्त: और इस तरह से जेरूसलम खत्‍म हुआ…

चौथी किस्‍त: जब देवता ने मंदिर बनने का इंतजार किया

पांचवीं किस्त: जेरूसलम ‘कोलोनिया इलिया कैपिटोलिना’ और जूडिया ‘पैलेस्टाइन’ बना

छठवीं किस्त: जब एक फैसले ने बदल दी इतिहास की धारा 

सातवीं किस्त: हेलेना को मिला ईसा का सलीब 

आठवीं किस्त: ईसाई वर्चस्व और यहूदी विद्रोह  

नौवीं किस्त: बनने लगा यहूदी मंदिर, ईश्वर की दुहाई देते ईसाई

दसवीं किस्त: जेरूसलम में इतिहास का लगातार दोहराव त्रासदी या प्रहसन नहीं है

ग्यारहवीं किस्तकर्मकाण्डों के आवरण में ईसाइयत

बारहवीं किस्‍त: क्‍या ऑगस्‍टा यूडोकिया बेवफा थी!

तेरहवीं किस्त: जेरूसलम में रोमनों के आखिरी दिन

चौदहवीं किस्त: जेरूसलम में फारस का फितना 

पंद्रहवीं क़िस्त: जेरूसलम पर अतीत का अंतहीन साया 

सोलहवीं क़िस्त: जेरूसलम फिर रोमनों के हाथ में 

सत्रहवीं क़िस्त: गाज़ा में फिलिस्तीनियों की 37 लाशों पर जेरूसलम के अमेरिकी दूतावास का उद्घाटन!

अठारहवीं क़िस्त: आज का जेरूसलम: कुछ ज़रूरी तथ्य एवं आंकड़े 

उन्नीसवीं क़िस्त: इस्लाम में जेरूसलम: गाजा में इस्लाम 

बीसवीं क़िस्त: जेरूसलम में खलीफ़ा उम्र 

इक्कीसवीं क़िस्त: टेम्पल माउंट पहुंचा इस्लाम

बाइसवीं क़िस्त: जेरुसलम में सामी पंथों की सहिष्णुता 

तेईसवीं क़िस्त: टेम्पल माउंट पर सुनहरा गुम्बद 

चौबीसवीं क़िस्त: तीसरे मंदिर का यहूदी सपना

जारी….



 Cover Photo : Rabiul Islam