संसद-चर्चा: एक है ‘फिरोज गाँधी कानून’, जिसने 60 साल पहले तानाशाही का खतरा भांप लिया था!

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काॅलम Published On :


फिरोज गाँधी ने 1955 में ही अधिनायकत्व के जोखिम को भांप लिया था और इंदिरा गांधी को इसके प्रलोभनों से आगाह भी किया था। आपातकाल में उनकी आशंका सही भी साबित हुयी।

 

राजेश कुमार 


‘‘संसदीय लोकतंत्र और शासन व्यवस्था की सफलता का एकमात्र पैमाना जनाकांक्षा का सम्मान है और इसके लिये जरूरी है कि जनता को सदनों के कामकाज, उसके कार्य-व्यापार के बारे में जानने का अधिकार मिले। यह आपका और हमारा, हम सांसदों का नहीं, जनता का सदन है… हम यहां हैं, हम बोलते, बहस और तमाम विधायी कार्य करते हैं तो इसलिये कि लोगों ने हमें प्रतिनिधित्व की जिम्मेदारी दी है, उसकी तरफ से यह सब करने का हक दिया है। इसलिये लोगों को यह जानने का अधिकार है कि उसके निर्वाचित प्रतिनिधि क्या कह और क्या कर रहे हैं। इस अधिकार के रास्ते में अगर कोई बाधा है तो उसे दूर किया जाना चाहिये। लोकतंत्र कितना सफल या असफल है, इसका आकलन इस तथ्य से होगा कि हम सरकार को जनता की नजरों के सामने पूरी पारदर्शित से काम करने के लिये किस हद तक मजबूर कर सके हैं।’’

यह 60-62 साल पहले की एक आवाज है, लोकतंत्र और पत्रकारिता के हक में संसद से उठती एक आवाज। फिरोज गांधी ने संसदीय कार्यवाहियों के प्रकाशन के अधिकार का अपना गैर-सरकारी विधेयक पेश करते हुये लोकसभा में शायद अप्रैल 1956 में यह टिप्पणी की थी।

फिरोज के जीवनीकार, स्वीडिश पत्रकार एवं लेखक बर्टिल फाॅक ने ‘फिरोजः द फाॅरगाॅटेन हीरो’ में लिखा है कि जीवन के अंतिम वर्षोंं में वह अपने परिवार को लेकर कई तरह के अवसाद में घिर गये थे। आश्चर्य होता है कि इस दौर में भी संसद में न केवल उनकी सक्रियता बनी रही थी, बल्कि संसदीय कामकाज के समाचार संकलन की इजाजत सुनिश्चित करने का उनका गैर-सरकारी विधेयक भी 4 मई, 1956 को पारित हुआ, उनकी मृत्यु से केवल चार साल पहले। आश्चर्य इसलिये कि 1990 के आसपास से संसद की कार्यवाहियों की साक्षी रही पत्रकारों की हमारी पीढी ने प्रश्नकाल को धीरे-धीरे रस्म अदायगी में बदलते देखा है। विरोध-प्रदर्शनों-हंगामों ने इतनी जगह घेर ली है कि तारांकित/ मौखिक प्रश्नों के लिए अवकाश खत्म होता जा रहा है। रिकार्डों से इसकी तस्दीक की जा सकती है। फिर प्रश्नों के मौखिक उत्तरों में ही नही, लिखित उत्तर तक में बताने से ज्यादा छिपाने की सरकार की रणनीतियां साफ हैं और प्रश्न पूछने को लेकर स्वयं सदस्यों में भी एक तरह की बेरूखी है। 2009 में लोकसभा में स्वीकृत और सूचित 1100 सवालों में से समयाभाव के कारण केवल 266 ही लिये जा सके थे और संबद्ध सदस्यों की गैर-मौजूदगी के कारण सरकार को केवल 209 का ही मौखिक उत्तर देना पडा था। यद्यपि बाद में राज्यसभा ने संबद्ध सदस्य की अनुपस्थिति में भी स्वीकृत तारांकित सवालों के जवाब देना अनिवार्य कर दिया।

यह स्थिति तब है, जब 1957 में प्रश्नकाल में ही फिरोज गांधी के एक सवाल से मुन्द्रा घोटाले का पर्दाफाश हुआ था और देश में जीवन बीमा के कारोबार का राष्ट्रीयकरण इसी की परिणति थी। आजाद भारत के उस पहले वित्तीय घोटाले में आखिरकार तत्कालीन वित्त मंत्री टी.टी. कृष्णामाचारी को इस्तीफा भी देना पड़ा था। लेकिन प्रश्न पूछने और जवाब देने के समय का संकुचन एक वृहत्तर गिरावट का हिस्सा है। पत्रकारों की हमारी पीढी ने साल-दर-साल संसद की बैठकों के दिन कम होते देखा है, बैठकों के वास्तविक समय की बर्बादी देखी है, सदस्यों की गैर-हाजिरियां देखी हैं, कोरम के अभाव पर बार-बार चीखते कोरम-बेल सुने हैं, तू-तू मैं-मैं देखे हैं, हंगामे-वाकआउट देखे हैं। ‘पी.आर.एस. लेजीस्लेटिव रिसर्च’ के एक अध्ययन के अनुसार आजादी के बाद पहले दशक में हर साल संसद की औसतन 125 बैठकें हो रही थी और केवल 60 साल में इनकी संख्या करीब आधी या उससे भी कम रह गयी हैं। शायद दोनों सदनों की सबसे कम, 23 बैठकों का रिकार्ड वर्ष 2011 के नाम दर्ज है और समय की बर्बादी के लिहाज से अव्वल होने का कीर्तिमान है 2010 के नाम, जब शीतसत्र में तो लोकसभा कुल साढ़े सात घंटे ही बैठ सकी और राज्यसभा इससे भी केवल एक तिहाई। 2012 में जरूर दोनों सदन 35-35 दिन बैठे, लेकिन यह भी विधायी काम के बोझ के सामने इतना कम था कि बजट प्रस्तावों का 92 प्रतिशत बिना बहस के पारित कराना पड़ा था।

दोनों सदनों में अनुपस्थिति का आलम यह है कि यूपीए-1 के शासनकाल में 14वीं लोकसभा के 11वें और 12वें सत्रों में तीन-चौथायी सदस्यों ने 11 से 15 बैठकों में ही भाग लिया और 15वीं लोकसभा में भी 545 सदस्यों में केवल सात ऐसे थे, जिन्होंने निचले सदन की हर बैठक में शिरकत की और बैठकों में भाग लेने की बेरुखी ऐसी कि सदस्य तो सदस्य, मंत्री और प्रधानमंत्री तक संसद का सत्र चालू रहते, विदेश यात्राएं करने में गुरेज नहीं करते।

पिछले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 2009 के 21 दिवसीय शीत सत्र के दौरान 13 दिन विदेश  यात्राओं पर रहे और मौजूदा प्रधानसेवक पर तो आरोप है कि राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद के प्रस्ताव पर चर्चा का उत्तर देने की अनिवार्यता को छोड़ दे तो उन्होंने विभिन्न देशों की पार्लियामेंट को जितनी बार संबोधित किया है, उतनी बार तो वह संसद के दोनों सदनों में भी नहीं बोले हैं।

तो यह नया समय है। हम 1956 से बहुत दूर निकल आये हैं। उनका ‘पार्लियामेंट्री प्रोसीडिंग्स प्रोटेक्शन आॅफ पब्लिकेशन एक्ट’ आजादी के बाद की तीन चौथाई सदी में पारित केवल 14 गैर-सरकारी विधेयकों में से एक था। फिरोज के देहावसान के छह साल बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं थीं और प्रधानमंत्री बनने के करीब दस साल बाद उनके अधिनायकवाद का पहला शिकार इत्तफाकन यही कानून बना। बाद में, 1977 में आपातकाल और इंदिरा गांधी की विदाई के साथ इस कानून की भी वापसी हुई, थोड़े संशोधनों के साथ।

लिहाजा, कार्यवाहियों के कवरेज का कानूनी संरक्षण मौजूद है। इस नये समय में लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाहियों के सीधे प्रसारण के लिए 24 घंटे के चैनल भी हैं। दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में राष्ट्रपति के संबोधन के 1989 में दूरदर्शन से प्रसारण की शुरुआत, 1992 में रेल और आम बजट का सीधा प्रसारण शुरू होने, 1994 में दूरदर्शन और आकाशवाणी से हर दूसरे हफ्ते लोकसभा और राज्यसभा से प्रश्नकाल का भी सीधा प्रसारण और 2004 में प्रसार भारती के तत्वाधान में दोनों सदनों की कार्यवाहियों के सीधे प्रसारण के लिये दो उपग्रह चैनल शुरू करने के रास्ते हम यहां तक आ पहुंचे हैं। पर इन सीधे प्रसारणों ने गलेबाजी, नाटकीयता और दिखने-पहचाने जाने की योग्यता देने की संभावना वाले तमाम करतबों को कार्यवाही का अनिवार्य अंग बना दिया। संसदीय बहसों-विमर्शों में शिरकत और उसके लिये तैयारी के मुकाबले चिल्लाने, नारेबाजी, अध्यक्ष के आसन के सामने जमावड़ा लगाने, धरने पर बैठ जाने की युक्तियां अपनाकर सीधे अपने निर्वाचन क्षेत्र और खास अपने मतदाता की नजरों में आने का प्रलोभन आसान भी है, दुर्निवार भी।

यह तकनीक का करतब है, इंसानी करतब यह कि इस नये समय में जब कोई कठुआ घटता है या कोई उन्नाव तो मुख्य अभियुक्त पूरी आश्वस्ति से सीबीआई जांच की मांग करने लगते हैं, कोई मंत्री, कोई विधायक उनके पक्ष में धरने-जुलूस शुरू कर देता है, वकीलों का कोई बार एसोसिएशन अभियुक्त के खिलाफ आरोपपत्र दाखिल नहीं करने देने के संकल्प के साथ बगावत पर उतर आता है और केन्द्र और राज्य की सत्ता कानून के तहत कार्रवाई नहीं करती, बस कई दिन की चुप्पी के बाद उमड़ते-घुमड़ते जनाक्रोश पर किसी नये कानून का या बलात्कारियों के लिये फांसी जैसे किसी नये प्रावधान का पानी डाल देती है।

बर्टिल फाॅक कहते हैं कि फिरोज ने 1955 में ही अधिनायकत्व के जोखिम को भांप लिया था और इंदिरा गांधी को इसके प्रलोभनों से आगाह भी किया था। आपातकाल में उनकी आशंका सही भी साबित हुयी। पर इस फिरोज गांधी एक्ट को निरस्त करने की दरकार नहीं होगी। यह कानून की किताब की शोभा बढ़ाता रहेगा, केवल इसे छुये बिना इसके दायें-बायें से निकल जाने की पगडंडी बना ली जायेगी। इसलिये आइये! अंत में एक बार फिर पहले पैरे के आखिरी वाक्य से ही शुरू करते हैं, ‘‘लोकतंत्र कितना सफल या असफल है, इसका आकलन इस तथ्य से होगा कि हम सरकार को जनता की नजरों के सामने पूरी पारदर्शिता से काम करने के लिये किस हद तक मजबूर कर सके हैं। संसद के पूरे तंत्र का मकसद यही है।’’

लोकसभा टीवी की पहली वर्षगाँठ के मौके पर 20 अगस्त 2007 को तत्कालीन उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के अध्यक्ष ने जब इसे ‘दर्शक दीर्घा का प्रौद्योगिक विस्तार’ कहा था, तब शायद वह भी पारदर्शिता के इसी संकल्प की प्रतिध्वनि थी। विस्मरण केवल यह था कि दर्शक दीर्घा के इस प्रौद्योगिक विस्तार में दर्शक की आंख की जगह कैमरे की आंख फिट कर दी गयी होती है, जिन्हें पीठासीन अधिकारियों के इशारों पर देखना-सुनना होता है। और बजट सत्र में अविश्वास प्रस्ताव पर कैमरों के खेल से लेकर अवमानना प्रस्ताव की नोटिस खारिज किये जाने तक पीठासीन अधिकारियों के सलूक से इतना तो साफ है कि अंग्रजी में जिसे ‘पार्टिजन’ कहते हैं या हिन्दी में जिसे ‘पार्टी-जन’, पीठ से इनके पार जाने की उम्मीदों के दिन तो लद ही गये हैं।