प्रपंचतंत्रः इस खून और उस खून के बीच

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काॅलम Published On :


अनिल यादव

भगवा अध्यात्म का रंग था लेकिन उसे फरेब से आतंक और अंधविश्वास के रंग में बदला जा चुका है. आतंक के चार साल पूरे हुए. अब अगले आम चुनाव का तनाव सिर उठा रहा है जो जल्दी ही पूरे देश पर छा जाएगा. जागरूक समझे जाने वाले लोग आशा में, उन्माद में, अपने फायदों के लालच में, उलझन और व्यर्थताबोध के समक्ष, भेजे की असमर्थता के कारण इस या उस पक्ष में बर्राना शुरू कर चुके हैं जिनका स्वर हुंकार, विलाप और चीत्कार की ऊंचाई तक जाने वाला है. ज्यादातर जनता चुप ही रहेगी क्योंकि उसे बहुत पुराना मोतियाबिंद है जिसके कारण दूर तक नहीं देख पाती. उसका दिमाग फेरने की तमाम कारस्तानियों और उनसे भी अधिक संयोगों के बीच जब वोट पड़ेंगे, नतीजे आएंगे तब चतुर किस्म के लोग अपनी सहूलियत के हिसाब से इस चुप्पी का भाष्य करेंगे.

लोकतंत्र में चुनाव ऐसे मौके को कहा जाता है जब जनता अपनी जरूरत की सरकार का चुनाव कर सकती है लेकिन अपने यहां ऐसा नहीं है. चुनाव ताकतवर, महत्वाकांक्षियों के लिए जुए का दांव खेलने का मौका होता है. वे पैसे, भावना और तिकड़म का निवेश कर जनमत का जुगाड़ करते हैं फिर सरकार बनाकर अगले चुनाव तक मनमानी करते हैं. यह भी कह सकते हैं कि जिनके पैसों से जनमत का प्रबंधन किया जाता है उनकी और अपनी सेवा करते हैं. इस प्रक्रिया में जो कुछ भी उल्टा-सीधा घटित हो जाता है उसे विकास कह दिया जाता है.

पिछले चार साल धूल में रस्सी बटी गई है. प्रधानमंत्री मोदी ने मजमा लगाकर मदारी की तरह सांडे का नकली तेल बेचा है जिसे जनता ने पूरी आस्था के साथ अपने जर्जर जोड़ों पर लगाया लेकिन सत्तर साल पुराना गठिया और अधिक टीसने लगा. भांग खाकर भी इससे बेहतर सरकार चलाई जा सकती थी इसे साबित करने के लिए नोटबंदी, जीएसटी, पेट्रोल की कीमतें, बैंक घोटाले और रेलवे की हालत के पांच उदाहरण काफी हैं.

दावों के विपरीत कालाधन-भ्रष्टाचार बढ़ा, व्यापार चौपट हुआ, महंगाई बढ़ी और सार्वजनिक परिवहन ध्वस्त हो गया. असली उपलब्धि यह है कि आरएसएस ने अपनी सरकार की शीतल छांव में कुंठित-बेराजगार युवाओं को हिंदू गुंडों में बदल कर मुसलमानों-दलितों का आखेट किया. सामाजिक ताने बाने को छलनी कर हिंदू-मुसलमान घृणा को सबसे बड़ा मुद्दा बना दिया. धार्मिक हिंसा के सफल परीक्षण के बाद अब अगली बार संविधान संशोधन कर सवर्ण हिंदू राष्ट्र के स्वप्न को साकार करने की तैयारी है.

इसके मुकाबिल या कहें कि आरएसएस की मार से बिलबिलाए हुए राजनीतिक दलों का एक गठबंधन कांग्रेस की अगुवाई में आकार ले रहा है. इसमें कहने को समाजवादी हैं, सामाजिक न्यायवादी हैं, दलित-आदिवासियों के पैरोकार हैं लेकिन ये मूलतः कांग्रेस और उसकी गुटका संस्करण पार्टियां हैं. इनमें से सभी केंद्र या राज्यों में कभी न कभी सरकार चलाकर अपनी काबिलियत दिखा चुके हैं. उनकी दो विशेषताएं हैं मौका मिलने पर भरपूर भ्रष्टाचार और वंशवाद जिसके कारण उन्हें कांग्रेस का गुटका संस्करण कहा जा रहा है. साथ में नैतिकता और विचारधारा वगैरह पर बिन मांगी सलाह देने और बाहर कर दिए जाने की आदत से लाचार वामपंथी भी हैं.

अगर यह गठबंधन किसी चमत्कार से भाजपा को सत्ता से बेदखल कर भी दे तो सिर्फ एक चीज होगी कि हिंदू-मुसलमान मुद्दा कुछ दिन के लिए दब जाएगा. बाकी कुछ नहीं बदलने वाला. अब की तरह कारपोरेट ही सरकार चलाएंगे इसलिए आर्थिक नीतियां वही रहेंगी और विकास जैसे अब हो रहा है वैसे ही जबान के जोर से होता रहेगा. अगला चुनाव दंगों में बहने वाले खून और नेताओं के खून (वंशवाद) के बीच होना है.

अभी जनता इससे आगे नहीं सोच पाई है इसलिए ऐसा होना लाजिमी है. अब से लेकर चुनाव के बीच दोनों पक्षों के कारीगर जो मनोरंजक स्वप्न दिखाएंगे वही भारतीय राजनीति की रचनात्मकता और कल्पना शक्ति है.